डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा विडंबना। स्त्री जीवन के कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 41 ☆
☆ लघुकथा – विडंबना ☆
’बहू ! गैस तेज करो, तेज आँच पर ही पूरियाँ फूलती हैं’ यह कहकर सास ने गैस का बटन फुल के चिन्ह की ओर घुमा दिया। तेल में से धुआँ निकल रहा था। पूरियाँ तेजी से फूलकर सुनहरी हो रही थी और घरवाले खाकर। कढ़ाई से निकलता धुआँ पूरियाँ को सुनहरा बना रहा था और मुझे जला रहा था। मेरी छुट्टियाँ पूरी-कचौड़ी बनाने में खाक हो रही थीं। बहुत दिन बाद एक हफ्ते की छुट्टी मिली थी। मेरे अपने कई काम दिमाग में थे, सोचा था छुट्टियों में निबटा लूंगी। एक-एक कर सातों दिन नाश्ते- खाने में हवा हो गए। दिमाग में बसे मेरे काम कागजों पर उतर ही नहीं पाए। सच कहूँ तो मुझे उसका मौका ही नहीं मिला। पति का आदेश- ‘तुम्हारी छुट्टी है अम्मा को थोड़ा आराम दो अब, बाबूजी की पसंद का खाना बनाओ’। बच्चों की फरमाइश अलग- ‘मम्मी ! छुट्टी में तो आप मेरे प्रोजेक्ट में भी मदद कर सकती हैं ना ?’
बस, बाकी सबके कामकाज चलते रहे, मेरे कामों की फाइलें बंद हो गई थीं। कॉलेज में परीक्षाएँ समाप्त हुई थीं और जाँचने के लिए कॉपियों का ढेर मेरी मेज पर पड़ा था। बंडल बंधा ही रह गया। सोचा था इस छुट्टी में किसी एक शोध छात्र की थीसिस का एक अध्याय तो देख ही लूंगी लेकिन सब धरा रह गया। घर भर मेरी छुट्टी को एन्जॉय करता रहा। ‘बहू की छुट्टी है’ का भाव सासू जी को मुक्त कर देता है। मेरे घर पर ना रहने पर पति जो काम खुद कर लेते थे अब उन छोटे-मोटे कामों के लिए भी वे मुझे आवाज लगाते। बच्चे वे तो बच्चे ही हैं।
छुट्टी खत्म होने को आई थी , छुट्टी के पहले जो थकान थी, वह छुट्टी खत्म होने तक और बढ़ गई थी। कल सुबह से फिर वही रुटीन-सुबह की भागम-भाग, सवा सात बजे कॉलेज पहुँचना है। मन में झुंझलाहट हो रही थी , इसी तरह काम करते-करते जीवन किसी दिन खत्म हो जाएगा। यह सब बैठी सोच ही रही थी कि पति ने बड़ी सहजता से मेरी पीठ पर हाथ मारते हुए कहा- बड़ी बोर हो यार तुम? कभी तो खुश रहा करो? छुट्टियों में भी रोनी सूरत बनाए बैठी रहती हो। आराम से सोफे पर लेट कर क्रिकेट मैच देखते हुए उन्होंने अपनी बात पूरी की- एन्जॉय करो लाइफ को यार ! मैं अवाक् देखती रह गई।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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अच्छी रचना