डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं। आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है उनकी स्त्री विमर्श पर आधारित लघुकथा माँ आज भी गाती है। स्त्री जीवन के कटु सत्य को बेहद संजीदगी से डॉ ऋचा जी ने शब्दों में उतार दिया है। डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को जीवन के कटु सत्य को दर्शाती लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद # 43 ☆
☆ लघुकथा – माँ आज भी गाती है ☆
माँ बहुत अच्छा गाती है, अपने समय की रेडियो कलाकार भी रही है। | पुरानी फिल्मों के गाने तो उसे बहुत पसंद हैं | भावुक होने के कारण हर गाने को इतना दिल से गाती कि कई बार गाते-गाते गला भर आता और आवाज भर्राने लगती। तब आँसुओं और लाल हुई नाक को धोती के पल्लू से पोंछकर हँसती हुई कहती- अब नहीं गाया जाएगा बेटा ! दिल को छू जाते हैं गाने के कुछ बोल !
‘तुझे सूरज कहूँ या चंदा, तुझे दीप कहूँ या तारा’, ‘ऐ मेरे प्यारे वतन, ए मेरे उजड़े चमन’ जैसे गाने माँ हमेशा गुनगुनाती रहती थी। वह ब्रजप्रदेश की है इसलिए वहाँ के लोकगीत तो बहुत ही मीठे और जोशीले स्वर में गाती है। लंगुरिया, होरी और गाली(गीत) गाते समय उसका चेहरा देखने लायक होता था। माँ गोरी है और सुंदर भी , गाते समय चेहरा लाल हो जाता। लोकगीतों के साथ-साथ थोड़ी हँसी-ठिठोली तो ब्रजप्रदेश की पहचान है, वह भला उसे कैसे छोड़ती? जैसा लोकगीत हो, वैसे भाव उसके चेहरे पर दिखाई देने लगते।
हम अपने समधी को गारी न दैबे,
हमरे समधी का मुखड़ा छोटा,
मिर्जापुर का जैसा लोटा….
लोटा कहते-कहते तो माँ हँस- हँसकर लोटपोट हो जाती। ढ़ोलक की थाप इस गारी (गीत) में और रस भर देती थी।
उम्र के साथ माँ धीरे-धीरे कमजोर होने लगी है। कुछ कम दिखाई देने लगा है, थोड़ा भूलने लगी है लेकिन अब भी गाने का उतना ही शौक और आवाज में उतनी ही मिठास। हाँ पहले जैसा जोश अब नहीं दिखता। अक्सर माँ फोन पर मुझसे कहती – ‘बेटा ! संगीत मन को बडी तसल्ली देता है। कभी-कभार अपने को बहलाने के लिए भी गाना चाहिए। जीना तो है ही, तो खुश रहकर क्यों ना जिया जाए। इस जिंदादिल माँ की आवाज में उदासी मुझे फोन पर अब महसूस होने लगी थी
वह अपने दोनों बेटों के पास है। बहुएँ भी आ गयी हैं , अपने-अपने स्वभाव की। पिता जब तक जिंदा थे माँ अपना सुख-दुख उनसे बाँट लेती थी। उनकी मृत्यु के बाद वह बिल्कुल अकेली पड़ गयी। ‘नाम करेगा रौशन जग में मेरा राज-दुलारा’ गा-गाकर जिन बेटों को पाल-पोसकर बड़ा किया, उनकी बुराई करे भी तो कैसे ? पर वह यह समझने लगी कि अब बेटों को उसकी जरूरत नहीं रही।
माँ उदास होती है तो छत पर बैठकर पुराने गाने गाती है। एक दिन माँ छत पर अकेली बैठी बड़ी तन्मयता से गा रही थी- ‘भगवान ! दो घड़ी जरा इन्सान बन के देख, धरती पर चार दिन मेरा मेहमान बन के देख तुझको नहीं पता कोई कितना……..’
‘निराश शब्द आँसुओं में डूब गया। गीत के बोल टूटकर बिखर रहे थे या माँ का दिल, पता नहीं।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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Behad khubsurat.
??
बहुत ही मार्मिक । चलचित्र की भाँति कहानी के दृश्यों को महसूस किया। बधाई ।