(हम प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’जी के आभारी हैं जिन्होने साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक की पुस्तक चर्चा”शीर्षक से यह स्तम्भ लिखने का आग्रह स्वीकारा। श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र जी, अतिरिक्त मुख्यअभियंता सिविल (म प्र पूर्व क्षेत्र विद्युत् वितरण कंपनी, जबलपुर ) में कार्यरत हैं। तकनीकी पृष्ठभूमि के साथ ही उन्हें साहित्यिक अभिरुचि विरासत में मिली है। उनका कार्यालय, जीवन एवं साहित्य में अद्भुत सामंजस्य अनुकरणीय है। इस स्तम्भ के अंतर्गत हम उनके द्वारा की गई पुस्तक समीक्षाएं/पुस्तक चर्चा आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं । आप प्रत्येक मंगलवार को श्री विवेक जी के द्वारा लिखी गई पुस्तक समीक्षाएं पढ़ सकते हैं ।
आज प्रस्तुत है श्री शंतिलाल जैन जी के व्यंग्य संग्रह “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर श्री विवेक जी की पुस्तक चर्चा। संयोग से इस व्यंग्य संग्रह को मुझे भी पढ़ने का अवसर मिला। श्री शांतिलाल जी के साथ कार्य करने का अवसर भी ईश्वर ने दिया। वे उतने ही सहज सरल हैं, जितना उनका साहित्य। श्री विवेक जी ने भी उसी सहज सरल भाव से पैंतालीस कॉम्पैक्ट व्यंग्य रचनाओं परअपने सार्थक विचार रखे हैं। यह तय है कि एक बार प्रारम्भ कर आप भी बिना पूरी पुस्तक पढ़े नहीं रह सकते।)
पुस्तक – वे रचना कुमारी को नहीं जानते
व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन
प्रकाशक – आईसेक्ट पब्लिकेशन , भोपाल
पृष्ठ – १३२
मूल्य – १२०० रु
☆ पुस्तक चर्चा – व्यंग्य संग्रह – वे रचना कुमारी को नहीं जानते– व्यंग्यकार – श्री शांतिलाल जैन ☆
किताबों की दुनियां बड़ी रोचक होती है. कुछ लोगों को ड्राइंगरूम की पारदर्शी दरवाजे वाली आलमारियों में किताबें सजाने का शौक होता है. बहुत से लोग प्लान ही करते रहते हैं कि वे अमुक किताब पढ़ेंगे, उस पर लिखेंगे. कुछ के लिये किताबें महज चाय के कप के लिये कोस्टर होती हैं, या मख्खी भगाने हेतु हवा करने के लिये हाथ पंखा भी.
मैं इस सबसे थोड़ा भिन्न हूँ. मुझे रात में सोने से पहले किताब पढ़ने की लत है. पढ़ते हुये नींद आ जाये या नींद उड़ जाये यह भी किताब के कंटेंट की रेटिंग हो सकता है. अवचेतन मन पढ़े हुये पर क्या सोचता है, यह लिख लेता हूँ और उसकी चर्चा कर लेता हूँ जिससे मेरे पाठक भी वह पुस्तक पढ़ने को प्रेरित हो सकें.
श्री शांति लाल जैन जी अन्य महत्वपूर्ण सम्मानो के अतिरिक्त प्रतिष्ठित डा ज्ञान चतुर्वेदी व्यंग्य सम्मान २०१८ से सम्मानित सुस्थापित व्यंग्यकार हैं . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” उनका चौथा व्यंग्य संग्रह है . लेखन के क्षेत्र में बड़ी तेजी से ऐसे लेखको का हस्तक्षेप बढ़ा है, जिनकी आजीविका हिन्दी से इतर है. इसलिये भाषा में अंग्रेजी, उर्दू का उपयोग, सहजता से प्रबल हो रहा है. श्री शान्तिलाल जैन जी भी उसी कड़ी में एक बहुत महत्वपूर्ण नाम हैं, वे व्यवसायिक रूप से बैंक अधिकारी रहे हैं.
किताब की लम्बी भूमिका में डा ज्ञान चतुर्वेदी जी ने उन्हें एक बेचैन व्यंग्यकार लिखा, और तर्को से सिद्ध भी किया है. लेखकीय आभार अंतिम पृष्ठ है. मैं श्री शांति लाल जैन जी को पढ़ता रहा हूँ, सुना भी है . “वे रचना कुमारी को नहीं जानते ” पढ़ते हुये मेरी मेरी नींद उचट गई, इसलिये देर रात तक बहुत सारी किताब पढ़ डाली. मैने पाया कि उनका मन एक ऐसा कैमरा है जो जीवन की आपाधापी के बीच विसंगतियो के दृश्य चुपचाप अंकित कर लेता है. मैं डा ज्ञान चतुर्वेदी जी से सहमत हूं कि वह दृश्य लेखक को बेचैन कर देता है, छटपटाहट में व्यंग्य लिखकर वे स्वयं को उस पीड़ा से किंचित मुक्त करते हैं . वे प्रयोगवादी हैं.
लीक से हटकर किताब का नामकरण ही उन्होंने “ये तुम्हारा सुरूर” व्यंग्य की पहली पंक्ति “वे रचना कुमारी को नहीं जानते” पर किया है , अन्यथा इन दिनो किसी प्रतिनिधि व्यंग्य लेख के शीर्षक पर किताब के नामकरण की परंपरा चल निकली है. इसलिये संग्रह के लेखो की पहली पंक्तियो की चर्चा प्रासंगिक है. कुछ लेखो की पहली पंक्तियां उधृत हैं जिनसे सहज ही लेख का मिजाज समझा जा सकता है. पाठकीय कौतुहल को प्रभावित करती लेख की प्रवेश पंक्तियो को उन्होंने सफल न्यायिक विस्तार दिया है.
वाइफ बुढ़ा गई है … , ” मि डिनायल में नकारने की अद्भुत प्रतिभा है” कार्यालयीन जीवन में ऐसे अनेको महानुभावो से हम सब दो चार होते ही हैं, पर उन पर इस तरह का व्यंग्य लिखना उनकी क्षमता है. इसी तरह आम बड़े बाबुओ से डिफरेंट हैं हमारे बड़े बाबू ,हुआ यूं कि शहर में एक्स और वाय संप्रदाय में दंगा हो गया …
उनके लेखन में मालवा का सोंधा टच मिलता है “अच्छा हुआ सांतिभिया यहीं पे मिल गये आप” मालगंज चौराहे पर धन्ना पेलवान उनसे कहता है . ….
या पेलवान की टेरेटरी में मेंढ़की का ब्याह …
वे करुणा के प्रभावी दृश्य रचने की कला में पारंगत हैं ..
बेबी कुमारी तुम सुन नही पातीं, बोल नही पाती, चीख जरूर निकल आती है, निकली ही होगी उस रात. बधिर तो हम ठहरे दो दो कान वाले . …
राजा, राजकुमार, उनके कई व्यंग्य लेखो में प्रतीक बनकर मुखरित हुये हैं. गधे हो तुम .. सुकुमार को डांट रहे थे राजा साहब …. , या बादशाह ने महकमा ए कानून के वजीर को बुलाकर पूछा ये घंटा कुछ ज्यादा ही जोर से नही बज रहा ?
मुझे नयी थ्योरी आफ रिलेटिविटी रिलेटिंग माडर्न इंडिया विथ प्राचीन भारत पढ़कर मजा आ गया. इसी तरह छीजते मूल्य समय में विनम्र भावबोध की मनुहार वादी कविताएं वैवाहिक आमंत्रण पत्रो पर मुद्रित पंक्तियो का उनका रोचक आब्जरवेशन है. इसी तरह समय सात बजे से दुल्हन के आगमन तक भी वैवाहिक समारोहो पर मजेदार कटाक्ष है.
वे लोकप्रिय फिल्मी गीतों का अवलंबन लेकर लिखते मिलते हैं, जैसे महिला संगीत में बालीवुड धूम मचा ले से शुरूकरके, जस्ट चिल तक पहुँचता गुदगुदाता भी है, वर्तमान पर कटाक्ष भी करता है.
मैं पाठको को अपनी कुछ विज्ञान कथाओ में अगली सदियो की सैर करवा चुका हूँ इसलिये आँचल एक श्रद्धाँजंली पढ़कर हँस पड़ा, रचना यूँ शुरू होती है “३ जुलाई २०४८ … आप्शनल सब्जेक्ट हिंदी क्लास टेंथ . …
पैंतालीस काम्पेक्ट व्यंग्य लेख. वैचारिक दृष्टि से नींद उड़ा देने वाले, सूक्ष्म दृष्टि, रचना प्रक्रिया की समझ के मजे लेते हुये, खुद के वैसे ही देखे पर अनदेखे दृश्यो को याद करते हुये जरूर पढ़िये.
रेटिंग – मेरे अधिकार से ऊपर
समीक्षक .. विवेक रंजन श्रीवास्तव
ए १, शिला कुंज, नयागांव, जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८
≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈