डॉ. ऋचा शर्मा

(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में  अवश्य मिली है  किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी । उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं।  आप ई-अभिव्यक्ति में  प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे। आज प्रस्तुत है मानवीय संवेदनाओं पर आधारित  उनकी लघुकथा ‘दिया हुआ वापस आता’डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को  संस्कृति एवं मानवीय दृष्टिकोण पर आधारित लघुकथा रचने के लिए सादर नमन।)

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद  # 50 ☆

☆  लघुकथा – दिया हुआ वापस आता 

काकी का रोज का नियम था सुबह उठकर पक्षियों के लिए आटे की छोटी- छोटी गोलियां बनाकर छत की मुंडेर पर रखना। पक्षियों के लिए पानी तो हमेशा उनके घर की छत पर रखा ही रहता था। घर के बाहर भी  उन्होंने  सीमेंट की हौद बनवा  दी थी। सर्दी, गर्मी,बरसात कुछ भी हो वह पानी से लबालब भरी ही रहती। कई बार पडोसी टोक देते ‌- अरे बारिश में क्यों पानी भर रही हो काकी, इस मौसम में थोडे ही  प्यास लगती होगी जानवरों को। काकी हँसकर उत्तर देती -अरे! हमारी तुम्हारी तरह बोलकर माँग सकते होते  तो ना भरती पानी, पर बिचारे बेजुबान प्राणी हैं, क्या पता कब प्यास लगे।

काकी पशु –पक्षियों, इंसान सबके लिए करती ही रहती थीं। वास्तव में गीता का वाक्य ‘ कर्म करो, फल की इच्छा मत करो ‘काकी के  जीवन को देखकर मानों अपना अर्थ समझा देता था। आस – पडोस के लिए तो काकी रात –दिन कुछ ना देखती, सब मानों उनके ही परिवार के अभिन्न अंग। वह तरह – तरह के अचार डालती और छोटी छोटी कटोरियों में रख पडोसियों को दे आतीं।  आसपास के बच्चे तो उनके पीछे ही पडे रहते – काकी चूरनवाली गोली दो ना। काकी गुड, इमली, अजवाईन और सेंधा नमक मिलाकर पाचक गोली बनाकर रखतीं, बच्चे चटकारे लेकर खट्टी – मीठी गोलियां चूसते रहते।  कुल मिलाकर  काकी का घर जमावडा था आस – पडोसवालों के लिए और क्यों ना हो, काकी छोटी – मोटी बीमारियों के घरेलू नुस्खों का खजाना जो थीं। किसी को कुछ  तकलीफ हुई कि वह उनके पास पहुँच जाता फिर सरसों के तेल में हल्दी गरम करके लगाना हो या काढा बनाकर देना, वह सब कुछ बडे स्नेह से करतीं।

काकी घर में अकेले ही रहती थीं, दो लडके थे पर दूसरे शहरों  में रहते थे। उनके बहुत कहने पर भी काकी उनके साथ नहीं गईं। शहर में लोगों का अजनबीपन उन्हें रास नहीं आया, कुछ दिन रहकर वापस आ गईं। कोरोना के बारे में  काकी ने भी सुन रखा था, तरह – तरह की बातें कि कोरोना हो जाने पर घरवाले भी हाथ नहीं लगाते। आस पडोस में किसी को कोरोना हो जाए तो लोग बात करना भी छोड देते हैं। और भी ना जाने क्या- क्या –। सर्दी, जुकाम,बुखार तो मौसम बदलने पर होता ही है लेकिन कोरोना के आतंक ने इस मामूली बीमारी को भी भयावह बना दिया। काकी को भी सुबह से बदन में थोडी हरारत लग रही थी। अकेली घर में रहते हुए  रात में एक बार तो उसके मन में भी विचार आया – अगर उसे कोरोना हो गया तो ? कोई अस्पताल ले जाएगा कि नहीं ? फिर वह मुस्कुराई – देखा जाएगा जो होगा, पहले से सोचकर क्या फायदा और सो गई।

काकी की नींद खुली तो  अपने को अस्पताल के बिस्तर पर पाया। उसने आसपास नजर दौडाई, सब अनजान चेहरे थे। नर्स को अपने पास बुलाकर पूछा,उसने बताया –‘ उसकी पडोसिन बीना  रात में पेट दर्द की दवा लेने काकी के घर गई जब कई बार आवाज देने पर कोई उत्तर नहीं आया तो वह घर के अंदर  गई। उसने देखा कि काकी बहुत तेज बुखार में बेहोश पडी है। पडोसियों ने उसे तुरंत अस्पताल में भर्ती करवाया  और कह गए हैं कि काकी बिल्कुल चिंता ना करें। हम सब अस्पताल के बाहर ही खडे हैं,जो भी जरूरत हो हमें बताएं ‘। काकी को कुछ कहना ही नहीं पडा, खाना – पीना, दवा सब पडोसियों ने संभाल लिया था। जल्दी ही काकी के बच्चे भी आ गए। काकी को पता ही ना चला कि कोरोना कब आया और चला गया। पास खडी नर्स किसी से कह रही थी – इनका दूसरों के लिए किया हुआ ही वापस आ रहा है, वरना आज के समय में किसी के लिए कौन करता है इतना।

 

© डॉ. ऋचा शर्मा

अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.

122/1 अ, सुखकर्ता कॉलोनी, (रेलवे ब्रिज के पास) कायनेटिक चौक, अहमदनगर (महा.) – 414005

e-mail – [email protected]  मोबाईल – 09370288414.

 

≈ ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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