(प्रतिष्ठित साहित्यकार श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ जी के साप्ताहिक स्तम्भ – “विवेक के व्यंग्य” में हम श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्य आप तक पहुंचाने का प्रयास करते हैं. अब आप प्रत्येक गुरुवार को श्री विवेक जी के चुनिन्दा व्यंग्यों को “विवेक के व्यंग्य “ शीर्षक के अंतर्गत पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है श्री विवेक जी का व्यंग्य “ये सड़कें ये पुल मेरे हैं”. धन्यवाद विवेक जी , मुझे भी अपना इन्वेस्टमेंट याद दिलाने के लिए. बतौर वरिष्ठ नागरिक, हम वरिष्ठ नागरिकों ने अपने जीवन की कमाई का कितना प्रतिशत बतौर टैक्स देश को दिया है ,कभी गणना ही नहीं की. किन्तु, जीवन के इस पड़ाव पर जब पलट कर देखते हैं तो लगता है कि- क्या पेंशन पर भी टैक्स लेना उचित है ? ये सड़कें ये पुल विरासत में देने के बाद भी? बहरहाल ,आपने बेहद खूबसूरत अंदाज में वो सब बयां कर दिया जिस पर हमें गर्व होना चाहिए. )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – विवेक के व्यंग्य – # 15 ☆
☆ ये सड़कें ये पुल मेरे हैं ☆
रेल के डिब्बे के दरवाजो के ऊपर लिखा उद्घोष वाक्य “सरकारी संपत्ति आपकी अपनी है”, का अर्थ देश की जनता को अच्छी तरह समझ आ चुका है. यही कारण है कि भीड़ के ये चेहरे जो इस माल असबाब के असल मालिक हैं, शौचालय में चेन से बंधे मग्गे और नल की टोंटी की सुरक्षा के लिये खाकी वर्दी तैनात होते हुये भी गाहे बगाहे अपनी साधिकार कलाकारी दिखा ही देते हैं. ऐसा नही है कि यह प्रवृत्ति केवल हिन्दोस्तान में ही हो, इंग्लैंड में भी हाल ही में टाइलेट से पूरी सीट ही चोरी हो गई, ये अलग बात है कि वह सीट ही चौदह कैरेट सोने की बनी हुई थी. किन्तु थी तो सरकारी संपत्ति ही, और सरकारी संपत्ति की मालिक जनता ही होती है. वीडीयो कैमरो को चकमा देते हुये सीट चुरा ली गई.
हम आय का ३३ प्रतिशत टैक्स देते हैं. हमारे टैक्स से ही बनती है सरकारी संपत्ति. मतलब पुल, सड़कें, बिजली के खम्भे, टेलीफोन के टावर, रेल सारा सरकारी इंफ्रा स्ट्रक्चर गर्व की अनुभूति करवाता है. जनवरी से मार्च के महीनो में जब मेरी पूरी तनख्वाह आयकर के रूप में काट ली जाती है, मेरा यह गर्व थोड़ा बढ़ जाता है. जिधर नजर घुमाओ सब अपना ही माल दिखता है.
आत्मा में परमात्मा, और सकल ब्रम्हाण्ड में सूक्ष्म स्वरूप में स्वयं की स्थिति पर जबसे चिंतन किया है, गणित के इंटीग्रेशन और डिफरेंशियेशन का मर्म समझ आने लगा है. इधर शेयर बाजार में थोड़ा बहुत निवेश किया है, तो जियो के टावर देखता हूँ तो फील आती है अरे अंबानी को तो अपुन ने भी उधार दे रखे हैं पूरे दस हजार. बैंक के सामने से निकलता हूँ तो याद आ जाता है कि क्या हुआ जो बोर्ड आफ डायरेक्टर्स की जनरल मीटींग में नहीं गया, पर मेरा भी नगद बीस हजार का अपना शेयर इंवेस्टमेंट है तो सही इस बैंक की पूंजी में, बाकायदा डाक से एजीएम की बैठक की सूचना भी आई ही थी कल. ओएनजीसी के बांड की याद आ गई तो लगा अरे ये गैस ये आईल कंपनियां सब अपनी ही हैं. सूक्ष्म स्वरूप में अपनी मेहनत की गाढ़ी कमाई बरास्ते म्युचुएल फंड देश की रग रग में विद्यमान है. मतलब ये सड़के ये पुल सब मेरे ही हैं. गर्व से मेरा मस्तक आसमान निहार रहा है. पूरे तैंतीस प्रतिशत टैक्स डिडक्शन का रिटर्न फाइल करके लौट रहा हूँ. बेटा अमेरिका में ३५ प्रतिशत टैक्स दे रहा है और बेटी लंदन में, हम विश्व के विकास के भागीदार हैं, गर्व क्यो न करें?
निरन्तरता से हमारी लेखनी सार्वजनिक करने और इसे वेब पर स्थाई स्थान देने हेतु हार्दिक आभार भाई साहब
आप सब के सहयोग के बिना ई-अभिव्यक्ति का अस्तित्व ही कहाँ है? स्तरीय रचनाओं के लिए आपका आभार।
व्यवस्था जनित पीड़ा पर करारी चोट,बहुत प्यार से की गई तीखी चोट है कलम की।
गर्व होना भी चाहिए तभी अपना समझकर मिसयूज न करेंगे। बधाई, बढिया ?
सही दिशा में व्यंग्य-चिंतन।वाकई।वाह!
नमन सृजन।
आदरणीय विवेक रंजन जी का बहुत ही उम्दा व्यंग्य उनके व्यंग सरल भाषा में और बहुत ही सटीक होते हैं।
बेहतरीन व्यंग्य
“ये सड़कें यह पुल मेरे हैं” श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव जी द्वारा लिखित व्यंग हमारी सोच और व्यवस्था पर करारी चोट करते हुए हमारे लिए एक संदेश छोड़ जाता है। कोटिश: बधाई
आपके इस व्यंग्य में
मनुष्य देता तो सरकार को बहुत कुछ है परन्तु जो देता है उसे वह अपना नहीं कह सकता।
व्यवस्था जनित पीड़ा पर करारी चोट,बहुत प्यार से की गई तीखी चोट है कलम की।
सामाजिक समस्याओं को लेकर बहुत ही बेहतरीन व्यंग्य
बधाई……,