डॉ. ऋचा शर्मा
(डॉ. ऋचा शर्मा जी को लघुकथा रचना की विधा विरासत में अवश्य मिली है. किन्तु ,उन्होंने इस विधा को पल्लवित करने में कोई कसर नहीं छोड़ी . उनकी लघुकथाएं और उनके पात्र हमारे आस पास से ही लिए गए होते हैं , जिन्हें वे वास्तविकता के धरातल पर उतार देने की क्षमता रखती हैं. अब आप ई-अभिव्यक्ति में प्रत्येक गुरुवार को उनकी उत्कृष्ट रचनाएँ पढ़ सकेंगे. आज प्रस्तुत है उनकी एक सार्थक एवं वर्तमान में बच्चों की व्यस्तताएं एवं माँ पिता के प्रति संवेदनहीनता की पराकाष्ठा प्रदर्शित कराती लघुकथा “बरसी”. डॉ ऋचा शर्मा जी की लेखनी को ऐसी रचना रचने के लिए सादर नमन। )
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – संवाद – # 12 ☆
☆ लघुकथा – बरसी ☆
दीदी! आप और सुधा दीदी तो माँ की बरसी पर आई नहीं थीं आपको क्या पता मैने भोपाल में माँ की बरसी कितनी धूमधाम से मनायी? इक्कीस ब्राह्मणों को भोजन करवाया – वह भी शुद्ध देशी घी का। रिश्तेदार, पडोसी, दोस्त कौन नहीं था? बरसी में तीन – चार सौ लोगों को भोजन करवाया।
विजय कहे जा रहा था। सुमन के कानों में पिता की दर्द भरी याचना गूँज रही थी- “सुमन बेटी! विजय से कह दे न्यूयार्क से कुछ दिन के लिए आ जाए, चलाचली की बेला है। तेरी माँ तो कल का सूरज देखेगी कि नहीं, क्या पता ? तडपती है विजय को देखने के लिए।”
सुमन कहना चाह रही थी- विजय ! तू माँ से मिलने क्यों नही आया। तेरे लिए तरसतीं चली गयी। सुमन के मन की हलचल से बेपरवाह विजय अपनी धुन में बोले जा रहा था- “दीदी। तुम तो जानती हो न्यूयार्क से आने में कितना पैसा खर्च होता है इसलिए सोचा एक बार सीधे बरसी पर ही …………..।”
सुमन अवाक रह गयी।
© डॉ. ऋचा शर्मा
अध्यक्ष – हिंदी विभाग, अहमदनगर कॉलेज, अहमदनगर.
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