श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’
( श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि’ जी एक आदर्श शिक्षिका के साथ ही साहित्य की विभिन्न विधाओं जैसे गीत, नवगीत, कहानी, कविता, बालगीत, बाल कहानियाँ, हायकू, हास्य-व्यंग्य, बुन्देली गीत कविता, लोक गीत आदि की सशक्त हस्ताक्षर हैं। विभिन्न पुरस्कारों / सम्मानों से पुरस्कृत एवं अलंकृत हैं तथा आपकी रचनाएँ आकाशवाणी जबलपुर से प्रसारित होती रहती हैं। आज प्रस्तुत है एक संस्मरणात्मक, शिक्षाप्रद एवं सार्थक लघुकथा “शर्मिंदगी ”।)
☆ साप्ताहक स्तम्भ – कृष्णा साहित्य # 7 ☆
☆ लघुकथा – शर्मिंदगी ☆
उसके ब्लाउज की फटी हुई आस्तीन से गोरी बाजू साफ झलक रही थी।
मेरी कमउम्र बाई कशिया को इसका भान तक न था। रसोईघर में घुसते ही मेरी नजर उस पर पड़ी तुरन्त ही मैने आँखो से इशारा किया, पर वह इशारा नहीं समझ सकी। घर पर बडे-बड़े बच्चे और नाती पोते सभी थे।
उसके न समझने पर मैने उस समय कुछ न कहा और अंदर से एक ब्लाउज लाकर कशिया को देती हुई उससे बोली -“जा गुसलखाने में जाकर बदल आ।”
वह मुझे हैरानी से देखने लगी। मगर बिना कुछ बोले वह और गई ब्लाउज बदल कर आ गई।
उसके हाथ में अब भी उसका वह ब्लाउज था। वह अब भी मुझे हैरानी से ताक रही थी। ये देख मैने उसका ब्लाउज अपने हाथ में लेकर उसे फटा हुआ हिस्सा दिखाया।
वह अचकचा गई और शरम के कारण उसकी नजरें झुक गई। वह धीरे से बोली – “बाई हम समझ ही नहीं पाये जल्दी – जल्दी पहन आये। रास्ते में एक आदमी चुटकी ले रहा था। वह गा रहा था धूप में निकला न करो …….गोरा बदन काला न पड़ जाये।”
“कोई बात नहीं। पर ध्यान रखो घर से निकलते वक्त कपड़ो पर एक निगाह जरूर डालनी चाहिए ताकि बाद में कोई शर्मिंदगी न हो।”
© श्रीमती कृष्णा राजपूत ‘भूमि ‘
अग्रवाल कालोनी, गढ़ा रोड, जबलपुर -482002 मध्यप्रदेश