श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
दैवासुर संपद्विभाग योग
(आसुरी संपदा वालों के लक्षण और उनकी अधोगति का कथन)
आढयोऽभिजनवानस्मि कोऽन्योऽस्ति सदृशो मया।
यक्ष्ये दास्यामि मोदिष्य इत्यज्ञानविमोहिताः।।15।।
अनेकचित्तविभ्रान्ता मोहजालसमावृताः।
प्रसक्ताः कामभोगेषु पतन्ति नरकेऽशुचौ।।16।।
मैं ही एक कुलीन हॅू, मुझ सा दूजा कौन ?
यही सोचते जग डरा मेरे सामने मौन ।।15।।
भिन्न विभ्रमों में पड़े, मोह जाल में बद्ध
काम भोग आसक्त ये पाते नरक प्रसिद्ध।।16।।
भावार्थ : मैं बड़ा धनी और बड़े कुटुम्ब वाला हूँ। मेरे समान दूसरा कौन है? मैं यज्ञ करूँगा, दान दूँगा और आमोद-प्रमोद करूँगा। इस प्रकार अज्ञान से मोहित रहने वाले तथा अनेक प्रकार से भ्रमित चित्त वाले मोहरूप जाल से समावृत और विषयभोगों में अत्यन्त आसक्त आसुरलोग महान् अपवित्र नरक में गिरते हैं।।15-16।।
“I am rich and born in a noble family. Who else is equal to me? I will sacrifice. I will give (charity). I will rejoice,”-thus, deluded by ignorance,।।15।।
Bewildered by many a fancy, entangled in the snare of delusion, addicted to the gratification of lust, they fall into a foul hell.।।16।।
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १, शिला कुंज, विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, नयागांव,जबलपुर ४८२००८
मो ७०००३७५७९८