श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
चतुर्दश अध्याय
गुणत्रय विभाग योग
(ज्ञान की महिमा और प्रकृति-पुरुष से जगत् की उत्पत्ति)
इदं ज्ञानमुपाश्रित्य मम साधर्म्यमागताः ।
सर्गेऽपि नोपजायन्ते प्रलये न व्यथन्ति च ।।2।।
इसे जानकर, मुझ सा हरि उन्हें मिला अविना श
सर्ग-प्रलय के बंध से मुक्ति का प्रिय विश्वास ।।2।।
भावार्थ : इस ज्ञान को आश्रय करके अर्थात धारण करके मेरे स्वरूप को प्राप्त हुए पुरुष सृष्टि के आदि में पुनः उत्पन्न नहीं होते और प्रलयकाल में भी व्याकुल नहीं होते।।2।।
They who, having taken refuge in this knowledge, attain to unity with Me, are neither born at the time of creation nor are they disturbed at the time of dissolution.।।2।।
प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर