श्रीमद् भगवत गीता

पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’

पंचम अध्याय

(सांख्ययोग और कर्मयोग का निर्णय)

 

ज्ञेयः स नित्यसन्न्यासी यो न द्वेष्टि न काङ्‍क्षति ।

निर्द्वन्द्वो हि महाबाहो सुखं बन्धात्प्रमुच्यते ।।3।।

 

राग-द्वेष से रहित जो वह सन्यासी तात

द्वंद रहित जीवन सदा सुख संयम की बात।।3।।

 

भावार्थ :  हे अर्जुन! जो पुरुष न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है, वह कर्मयोगी सदा संन्यासी ही समझने योग्य है क्योंकि राग-द्वेषादि द्वंद्वों से रहित पुरुष सुखपूर्वक संसार बंधन से मुक्त हो जाता है।।3।।

 

He should be known as a perpetual Sannyasin who neither hates nor desires; for, free from the pairs of opposites, O mighty-armed Arjuna, he is easily set free from bondage! ।।3।।

 

© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’ 

ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर

[email protected]

मो ७०००३७५७९८

(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)

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