आध्यात्म/Spiritual – श्रीमद् भगवत गीता – पद्यानुवाद – द्वितीय अध्याय (33) प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
श्रीमद् भगवत गीता
पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
द्वितीय अध्याय
साँख्य योग
( अर्जुन की कायरता के विषय में श्री कृष्णार्जुन-संवाद )
(क्षत्रिय धर्म के अनुसार युद्ध करने की आवश्यकता का निरूपण)
अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥
यदि तू नहीं करेगा यह धर्म समय संग्राम
तो अपयश देगा तुझे यही “पाप का काम” ।।33।।
भावार्थ : किन्तु यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा ।।33।।
But, if thou wilt not fight in this righteous war, then, having abandoned thine duty and fame, thou shalt incur sin. ।।33।।
© प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर
मो ७०००३७५७९८
(हम प्रतिदिन इस ग्रंथ से एक मूल श्लोक के साथ श्लोक का हिन्दी अनुवाद जो कृति का मूल है के साथ ही गद्य में अर्थ व अंग्रेजी भाष्य भी प्रस्तुत करने का प्रयास करेंगे।)