श्रीमद् भगवत गीता
हिंदी पद्यानुवाद – प्रो चित्र भूषण श्रीवास्तव ‘विदग्ध’
एकादश अध्याय
(अर्जुन द्वारा भगवान के विश्वरूप का देखा जाना और उनकी स्तुति करना )
किरीटिनं गदिनं चक्रिणं च तेजोराशिं सर्वतो दीप्तिमन्तम् ।
पश्यामि त्वां दुर्निरीक्ष्यं समन्ताद्दीप्तानलार्कद्युतिमप्रमेयम् ।। 17।।
मुकुट गदा औ” चक्र से तेजपुंज द्युतिमान
देख रहा मैं आपको अनायास विद्यमान।
दीप्ति अनल औ” सूर्य सम, आभा भव्य ललाम
चकाचौंध है प्रखर , प्रभु ! दर्शन मुश्किल काम ।। 17।।
भावार्थ : आपको मैं मुकुटयुक्त, गदायुक्त और चक्रयुक्त तथा सब ओर से प्रकाशमान तेज के पुंज, प्रज्वलित अग्नि और सूर्य के सदृश ज्योतियुक्त, कठिनता से देखे जाने योग्य और सब ओर से अप्रमेयस्वरूप देखता हूँ।। 17।।
I see Thee with the diadem, the club and the discus, a mass of radiance shining everywhere, very hard to look at, blazing all round like burning fire and the sun, and immeasurable.।। 17।।
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ए १ ,विद्युत मण्डल कालोनी, रामपुर, जबलपुर