ई-अभिव्यक्ति: संवाद–20
आज सुश्री निशा नंदिनी जी की कविता नेत्रदान ने मुझे मेरी एक पुरानी कविता ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं की याद दिला दी जो मैं आपसे साझा करना चाहूँगा:
(यह कविता दहेज के कारण आग से झुलसी युवती द्वारा मृत्युपूर्व नेत्रदान के एक समाचार से प्रेरित है )
ये नेत्रदान नहीं – नेत्रार्पण हैं
सुनो!
ये नेत्र
मात्र नेत्र नहीं
अपितु
जीवन यज्ञ वेदी में
तपे हुये कुन्दन हैं।
मैंने देखा है,
नहीं-नहीं
मेरे इन नेत्रों ने देखा है
आग का एक दरिया
माँ के आँचल की शीतलता
और
यौवन का दाह।
विवाह मण्डप
यज्ञ वेदी
और सात फेरे।
नर्म सेज के गर्म फूल
और ……. और
अग्नि के विभिन्न स्वरुप।
कंचन काया
जिस पर कभी गर्व था
मुझे
आज झुलस चुकी है
दहेज की आग में।
कहाँ हैं – ’वे’?
कहाँ हैं?
जिन्होंने अग्नि को साक्षी मान
हाथ थामा था
फिर
दहेज की अग्नि दी
और …. अब
अन्तिम संस्कार की अग्नि देंगे।
बस
एक गम है।
साँस आस से कम है।
जा रही हूँ
अजन्में बच्चे के साथ
पता नहीं
जन्मता तो कैसा होता/होती ?
हँसता/हँसती ….. खेलता/खेलती
खिलखिलाता/खिलखिलाती या रोता/रोती?
किन्तु, माँ!
तुम क्यों रोती हो?
और भैया तुम भी?
दहेज जुटाते
कर्ज में डूब गये हो
कितने टूट गये हो?
काश!
…. आज पिताजी होते
तो तुम्हारी जगह
तुम्हारे साथ रोते!
मेरी विदा के आँसू तो
अब तक थमे नहीं
और
डोली फिर सज रही है।
नहीं …. नहीं
माँ !
बस अब और नहीं
अब
ये नेत्र किसी को दे दो।
दानस्वरुप नहीं
दान तो वह करता है
जिसके पास कुछ होता है।
अतः
यह नेत्रदान नहीं
नेत्रार्पण हैं
सफर जारी रखने के लिये।
सुनो!
ये नेत्र
मात्र नेत्र नहीं
अपितु,
जीवन यज्ञ वेदी में
तपे हुये कुन्दन हैं।
रचना – 2 दिसम्बर 1987
आज बस इतना ही।
हेमन्त बावनकर
7 अप्रैल 2019
बेहद खूबसूरत रचना
मार्मिक अभिव्यक्ति एक अलग अन्दाज़ में जो सीधी भीतर उतरती है
आभार सुश्री मित्तल जी