ई-अभिव्यक्ति: संवाद-22 – हेमन्त बावनकर

ई-अभिव्यक्ति:  संवाद–22         

साहित्यकार की किसी भी रचना रचने के पीछे अवश्य ही उसका अपना कोई ना कोई इतिहास, घटना/दुर्घटना अथवा ऐसा कोई तो तथ्य अवश्य रहता होगा जो साहित्यकार को नेपथ्य में प्रोत्साहित अथवा उद्वेलित करता होगा जिसकी परिणति उस रचना को कलमबद्ध कर आप तक पहुंचाने की प्रक्रिया का अंश होता है । जब तक साहित्यकार, चाहे किसी भी विधा में क्यों न हो, अपने हृदय में दबे हुए उद्गार कलमबद्ध न कर दे कितना छटपटाता होगा इसकी कल्पना कतिपय पाठक की परिकल्पना से परे है।

विगत दो तीन दिनों के अंतराल में सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा जी की अङ्ग्रेज़ी कविताओं  “Tearful adieu” एवं “Fear of Future” और आज डॉ प्रेम कृष्ण श्रीवास्तव जी की कविता “यद्यपि नवदुर्गा का स्वरूप है” ने काफी उद्वेलित किया।

मुझे अनायास ही लगा कि गर्भ में पल रहे बच्चे की मनोभावनाओं की परिकल्पना क्या इतनी सहज एवं आसान है? क्या स्त्री कवियित्रि  उन मनोभावों को किसी पुरुष कवि की परिकल्पना से अधिक सहज स्वरूप दे सकती है। एक पाठक के रूप में यह मेरी भी परिकल्पना से परे है। इन्हीं तथ्यों पर आधारित मेरी एक कविता आपसे साझा करना चाहता हूँ। अब यह आप ही तय करें।

 

स्वागत!

जब से आहट दी है तुमने,

मुझमे यह एहसास जगाया है।

मानो किसी दूसरी दुनिया से

कोई शांति दूत सा आया है।

जब गर्भ में हलचल देकर

अपना एहसास दिलाते हो।

ऐसा लगता है जैसे मुझको

तुम अन्तर्मन से बुलाते हो।

सारी रात तुम्हारे भविष्य के

हम सपने रोज सँजोते हैं।

मैं सुनाती हूँ प्यारी लोरी

पिता कहानी रोज सुनाते हैं।

यह मेरा सौभाग्य है जो तुम

मेरी ही कोख में आए हो।

दादा-दादी कहते नहीं थकते

तुम पिछली पीढ़ी के साये हो।

स्वप्न देखकर पिछली पीढ़ी ने

हमको आज यहाँ पहुंचाया है।

अब आसमान छूना है तुमको

यही स्वप्न हमें दिखलाया है।

ना जाने तुम अपने संसार में

कैसे यह एकांत बिताते हो ?

क्या खाते हो? क्या पीते हो?

कुछ भी तो नहीं बताते हो?

तन आकुल है, मन आकुल है

तुम्हारी एक झलक पाने को।

बाहें आकुल हैं, हृदय आकुल है

अपने हृदय से तुम्हें लगाने को।

शरद, ग्रीष्म और वर्षा ऋतु से

प्रकृति ने ही तुमको बचाया है।

शांत सुरम्य बर्फ की चादर ने

स्वागत में आँचल फैलाया है।

सह सकती हूँ कैसी भी पीड़ा

तुम्हें इस संसार में लाने को।

नौ माह लगते हैं नौ युग से

तुम्हें इस संसार में लाने को।

सभी धार्मिक स्थलों के दर पर

हमने अपना माथा टिकाया है।

सांसारिक शक्तियों ने तुम्हारा

अस्तित्व मुझमें मिलाया है ।

यह जीवन अत्यंत कठिन है

यह कैसे तुमको समझाउंगी?

मैंने भी मन में यह ठानी है

तुम्हें अच्छा इंसान बनाऊँगी।

 

आज बस इतना ही।

हेमन्त बावनकर 

16 अप्रैल 2019