ई-अभिव्यक्ति: संवाद–3
एक अजीब सा खयाल आया। अक्सर लोग सारी जिंदगी दौलत कमाने के लिए अपना सुख चैन खो देते हैं। फिर आखिर में लगता है, जो कुछ भी कमाया वो तो यहीं छूट जाएगा और यदि कुछ रहेगा तो सिर्फ और सिर्फ लोगों के जेहन में हमारी चन्द यादें। इसके बावजूद वो सब वसीयत में लिख जाते हैं जो उनका था ही नहीं।
ऐसे में मुझे मेरा एक कलाम याद आ रहा है जो आपसे साझा करना चाहूँगा।
जख्मी कलम की वसीयत
जख्मी कलम से इक कलाम लिख रहा हूँ,
बेहद हसीन दुनिया को सलाम लिख रहा हूँ।
ये कमाई दौलत जो मेरी कभी थी ही नहीं,
वो सारी दौलत तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
तुम भी तो जानते हो हर रोटी की कीमत,
वो ख़्वाहिशमंद तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
पूरी तो करो किसी ख़्वाहिशमंद की ख़्वाहिश,
ख़्वाहिशमंद की ओर से सलाम लिख रहा हूँ।
सोचा न था हैवानियत दिखाएगा ये मंज़र,
आबरू का जिम्मा तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर करना,
इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।
इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत,
ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।
ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,
बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
कुछ भी तो नहीं बचा वसीयत में तुम्हें देने,
अमन के अलफाज तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
जाने क्या किया था इस बदनसीब कागज ने,
जो इसे घायल कर अपना नाम लिख रहा हूँ।
आज बस इतना ही।
हेमन्त बावनकर
बहुत. बढ़िया, बावनकर जी
धन्यवाद सर
अत्यत्तम काव्य अभिव्यक्ति बधाई आदरणीय
बहुतही सही !
क्या अभिव्यक्ति है !