ई-अभिव्यक्ति: संवाद– 8
टाइम्स ऑफ इंडिया (जबलपुर संस्कारण) के 19 मार्च 2019 के अंक में समाचार चैनलों की बेवजह/बेमानी बहसों के बीच एक सकारात्मक समाचार पढ़ कर लगा कि भाग दौड़ भरी इस दुनियाँ में अब भी इंसानियत जीवित है। क्यों ऐसे समाचार समुचित स्थान नहीं पाते जो इंसान को इंसान से जोड़ते हों। संक्षिप्त में समाचार कुछ इस प्रकार है :
संयोगवश विश्व किडनी दिवस (14 मार्च 2019) के दिन मुंबई के एक अस्पताल में दो परिवारों के मध्य एक अनुकरणीय किडनी प्रत्यारोपण ऑपरेशन किया गया। ठाणे के एक मुस्लिम परिवार एवं बिहार के एक हिन्दू परिवार में उनके पतियों को किडनी की आवश्यकता थी। उन्होने सर्वप्रथम अपने अपने परिवारों में प्रयास किया किन्तु ब्लड ग्रुप मैच न होने के कारण यह संभव नहीं हो पाया। संयोगवश दोनों परिवार की पत्नियों का ब्लड ग्रुप एवं किडनियाँ एक दूसरे के पतियों से मैच हो रही थी। अतः दोनों परिवार की पत्नियों ने एक दूसरे के पतियों को अपनी किडनियाँ दान देकर न केवल इंसानियत की मिसाल पेश की अपितु एक दूसरे परिवार से आजीवन रक्त संबंध भी बना लिए।
इस अनुकरणीय उदाहरण को आप किस दृष्टि से देखेंगे। हो सकता है कोई साहित्यकार इस पर लघुकथा भी लिख दे तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। आखिर हम अपने आस पास से अपनी रचनाओं के लिए ऐसे चरित्रों/पात्रों को ही तो तलाशते रहते हैं।
इस संदर्भ में मुझे अपने एक कलाम “जख्मी कलम की वसीयत” की कुछ पंक्तियाँ याद आ रही हैं जो आपसे साझा करना चाहूँगा:
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना,
इसलिए यह अमन का पैगाम लिख रहा हूँ।
इंसानियत तो है ही नहीं मज़हबी सियासत
ये कलाम इंसानियत के नाम लिख रहा हूँ।
ये सियासती गिले शिकवे यहीं पर रह जाएंगे,
बेहद हसीन दुनियाँ तुम्हारे नाम लिख रहा हूँ।
आज बस इतना ही।
हेमन्त बावनकर