डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
(श्रद्धेय डॉ गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’ जी का मैं अत्यन्त आभारी हूँ, जिन्होने मुझे प्रोत्साहित किया और मेरे विशेष अनुरोध पर अपनी जीवन-यात्रा के कठिन क्षणों को बड़े ही बेबाक तरीके से साझा किया, जिसे साझा करने के लिए जीवन के उच्चतम शिखर पर पहुँचने के बाद अपने कठिनतम क्षणों को साझा करने का साहस हर कोई नहीं कर पाते। मैं प्रस्तुत कर रहा हूँ, जमीन से जुड़े डॉ गुणशेखर जी का हृदय से सम्मान करते हुए उनकी जीवन यात्रा उनकी ही कलम से।)
जन्म: 01-11-1962
अभिरुचि: लेखन
मेरी पसन्द : अपने बारे में ज़्यादा प्रचार-प्रसार न तो मुझे पसंद है और न उचित ही है।
संप्रति: पूर्व प्रोफेसर (हिन्दी) क्वाङ्ग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय
परिचय:
(मैंने ऊपर ‘मैं और मेरी पसंद’ में बता दिया है कि अपने बारे में ज़्यादा प्रचार-प्रसार न तो मुझे पसंद है और न उचित ही है। )
इसके बावज़ूद अगर लिखना ही हो तो मैं कहूँगा कि मेरी ज़िंदगी में कई ऐसे मोड़ आए जहाँ से लौटने के अलावा कोई चारा ही नहीं दिखता था लेकिन चमत्कार हुए और रास्ते मिलते चले गए।
मेरे जीवन में धमाकेदार मोड़ १४ जून १९७८ को तब आया जब मेरी शादी हो गई। उस समय मैं बारहवीं का विद्यार्थी था। ज़िंदगी में दो-दो बोर्ड एक साथ।मेरे ससुर के लिए ब्याही बेटी को घर में रखना नाक का सवाल लगता था और मुझे बवाल। जब भी घर जाता और लौटने को होता तो पत्नी मेरे पायजामे के नाड़े में लटक जाती थी। नाड़ा याद नहीं कि कभी टूटा कि नहीं।अगर नहीं टूटा होगा तो बस इसी कारण से कि लोकलाज वश मैं ठंडा हो जाता था।
मैंने पढ़ना तब शुरू किया था जब यह समझ पैदा हो गई कि अगर रामायण पढ़नी सीख गए तो लोग इज़्ज़त से अपने घर बुलाएँगे।जीवन का एक मोड़ यह भी था। संयोग से हमारे चचेरे ताऊ को रामायण पढ़ने वाले लड़के नहीं मिल रहे थे।वे हमारे लिए वरदान सिद्ध हुए और मौलवी नुमा अध्यापक को एक दिन धर लाए कि हमारे गाँव के बच्चों को पढ़ाओ। उनका उद्देश्य्य रामायण पढ़ लेने वाले लड़के तैयार करना था ।सो, दो रुपए महीने की फीस भर कर एक ही साल की घिसाई में मैं पाँचवीं तक पढ़ गया। पहले दर्ज़े में दस ग्यारह के बीच रहा हूँगा और पाँचवीं में भी वही उमर लिखाई गई। यानी एक साल में ही पाँच-पाँच वैतरणियाँ (कक्षाएँ) पार कर गया। परिणामतः सन् सतहत्तर तक दसवीं की बड़ी वैतरणी भी तर गया। इसके बाद समस्याएँ भले बड़ी-बड़ी आईं लेकिन कभी बड़ी लगीं नहीं।
पत्नी के ज़ेवर जो उधार के थे वे बरात से लौटते ही लौट गए थे। ट्यूशन पढ़ाके उसे पायल बनवा के दी वह भी बारहवीं की परीक्षा के लिए ३० रुपए में बेंच दीं। उन्नासी में बारहवीं की वैतरणी भी पार हो गई।
उसके बाद का जीवन और संघर्षमय हो गया। ज्यों -ज्यों संघर्ष बढ़ता गया मैं मज़बूत होता गया। बी.ए.और एम.ए. तक मेरे पास बीबी और दो बच्चों के भरण-पोषण के लिए शाम को चार बाग स्टेशन पर उतरने वाले बैगन के सड़े-सुड़े केले लाकर बाहर बेंचना और उससे दो-चार रुपए कमा लेने के कारण कभी कभार सौ-पचास की नकद पूँजी इसके अलावा चल संपत्ति में शायद कटोरी या कटोरा और एक तवा यानी कुल जमा दो-तीन बर्तनों की ही पूँजी रही। उसी पूँजी के साथ सन् बयासी में लखनऊ महानगर में शानसे अड़ा या पड़ा हुआ था एम.ए. करने के लिए।
लखनऊ प्रवास के दौरान ही मेरे जीवन में और ज़बर्दस्त मोड़ आया जहाज मुड़ना भी था साथ में आँधी से सामना भी करना था। हुआ यह था कि मेरे लखनऊ आने के एक ही साल के भीतर ही बीबी-बच्चों का गाँव में रहना दुष्कर हो गया था।
एक कोचिंग में जब मुझ अकेले को ज़िंदा रहने भर को मिलने लगा तो उन्हें भी इलाज के बहाने ले आया। कहाँ एक का खर्च और कहाँ चार का! जीविका दुष्कर हुई। कभी-कभी भूखों भी मरे लेकिन एल.टी. और एम.एड कर ही डाले। नौकरी तब मिली जब पूरी तरह टूट चुके थे सन् १९९१में। सन् ८९ में जे आर एफ निकाल चुके थे लेकिन वे पैसे काम न आ सके। उनकी प्रक्रिया पूरी होते-होते पूरे दो साल लग गए और नौकरी मिल गई तो उस वज़ीफ़े को सलाम कर लिया। मेरे जीवन का एक यह भी मोड़ है जहाँ से पुर शुकूँ मंज़िल भले न दिखी हो पर भूख ने हमसे नमस्ते अवश्य कर ली थी।
जीवन के अविस्मरणीय क्षण :
मेरे ईरान और चीन के लंबे प्रवास मेरे लिए सुखद और सम्मान जनक रहे। इसके अलावा लाल बहादुर शास्त्री राष्ट्रीय प्रशासन अकादमी में सहायक प्रोफ़सर रहते हुए काफ़ी मान-सम्मान मिला। आज भी किसी प्रदेश में जाता हूँ तो दस-पाँच आईएएस,आईपीएस,आईआरएस और विदेश जाता हूँ तो आईएफएस मिल जाते हैं तो उस समय अपना गरुत्त्व जाग जाता है लेकिन गुरूर तब भी नहीं।
जीवन के सबसे कठिन क्षण:
एम.ए करते समय लखनऊ की एक ठेकी पर रहना, रेलवे स्टेशन पर कोलाहल के बीच पढ़ना पर ताप-ताप कर रातें बिताना।
आपकी शक्ति:
चराचचराचचर के प्रति समान संवेदना, सकारात्मक सोच और मनुष्य में आस्था।
आपकी कमजोरी
किसी भी संवेदनशील बात पर बिना आँसू गिराए नहीं रह पाना।
आपके शोध कार्य / प्रकाशन
बीस से अधिक पुस्तकें-गज़ल, कविता और दोहा संग्रह, आलोचना की एक पुस्तक, भाषा और व्याकरण पर पाँच पुस्तकें और कुछ संपादित हैं (विवरण नेट पर उपलब्ध हैं)। आईएएस अकादमी, मसूरी में दो आधार पाठ्यक्रम में पढ़ाई जाती हैं। क्वांग्तोंग वैदेशिक अध्ययन विश्वविद्यालय के स्नातक पाठ्यक्रम में भी रचनाएँ शामिल की गई हैं।
आपकी कार्य-जीवन संतुलन:
कभी नसीब नहीं हुई। फूलों की सेज की कल्पना भी कभी नहीं की। इसलिए आज भी स्लीपवेल के गुलगुल और थुलथुल गद्दे को छोड़कर फर्श पर बिछी दुबली-पतली खुरदरी दरी पर पूरे अभिमान के साथ सोता हूँ।
आपका समाज को सकारात्मक सन्देश:
आज ही के दिन २०१५ को प्रिय भाई जय प्रकाश मानस की टाइम लाइन पर दी गई मेरी अभिव्यक्ति –
मैं और मेरी पसंद – 15
डॉ. गंगाप्रसाद शर्मा ‘गुणशेखर’
”अपने संदर्भ में क्या और कौन के उत्तर खुद देने में हमें सदैव संकोच रहा है। अपने बारे में तो सभी बोलते हैं। अच्छा हो कि कुछ दूसरों के बारे में भी बोला जाए। श्रम-स्वेद सने श्रमिक और अन्न दाता किसान हमें बहुत प्यारे लगते हैं। इनके कोमल हाथों से आँगन और द्वार-द्वार रोपे गए हरे-भरे पौधे, बगिया, हरी-भरी लहलहाती फसलें और इन्हीं के सुदृढ़ हाथों खोदी गई रेगिस्तान को भी हरा-भरा कर देने वाली नहरें अच्छी लगती हैं। इसलिए इनको और इनके बारे में लिखने-पढ़ने वाले हमें बहुत अच्छे लगते हैं।
देश और विदेश के विभेद से रहित शांत और उन्मद नदी-नद, पर्वत और उत्ताल तरंगों वाले सागरों को अपने अंक में सहेजे समूची प्रकृति हमें मोहित करती है। इसी प्रकृति के पुजारी महा पंडित राहुल सांकृत्यायन और उनकी यायावरी भी हमें बहुत पसंद हैं। किशोरावस्था में पढ़ा गया उनका यह प्रिय शेर –
सैर कर दुनिया की गाफिल ज़िंदगानी फिर कहाँ
ज़िंदगी गर कुछ रही तो नौजवानी फिर कहाँ ।
अवस्था ढलने के बावजूद भुलाए नहीं भूलता। यही शेर अब भी शिथिल होते पैरों में रवानी भर देता है। उनकी तरह हमको भी घूमना बहुत पसंद है। कभी-कभी मन करता है कि सारा घर-द्वार बेंच-बाँच कर पूरी दुनिया घूम डालें। लेकिन माँ, पत्नी और बच्चों तथा परिवार वालों के नेह से गीले नयन सदा बांधते रहे हैं। बच्चों का मतलब बेटे-बेटी से अधिक नातिनें और पोती से है।
शहरों में लखनऊ शहर और प्रदेशों में केरल हमें बहुत प्यारा लगता है। वर्षों पहली देखी केरल की नैसर्गिक आभा अब भी आँखों में बसी हुई है। वहाँ के समुद्री तट हमें सदैव आकर्षित करते रहे हैं। जब भी उन तटों पर गया हूँ ऐसा लगा है कि जैसे प्रगल्भा नायिका की तरह उनकी नीलांचल, उत्ताल तरंगें बाहें फैलाकर अपनी ओर बुला रही हैं।
साहित्य का पठन-पाठन मुझे बहुत पसंद है। किसी खास कवि/कवयित्री या लेखक/लेखिका से बंधकर केवल उसी का हो जाना हमें कभी पसंद नहीं रहा। हमने जीव और जीवन दोनों को छुट्टा रखने में सदैव सुख का अनुभव किया है। इसलिए न कभी किसी खास खूँटे में बंधे और न आगे बंधने का विचार है। सच कहें,हमें तो वे कवि या लेखक ही अधिक पसंद आते रहे जिन्होंने जीवन को सच्चे अर्थों में जिया है और उसे सही संदर्भों में परिभाषित भी किया है। वे लोग फिर चाहे साहित्यकार हों या आमजन हमें बिल्कुल पसंद नहीं जो जीवन में नहीं बल्कि जीवन के अभिनय में विश्वास करते हैं। भाव को अंतस का नहीं जिह्वा का ऋंगार बनाकर प्रस्तुत करते हैं।
अपनी समझ की सभी भाषाओं की समस्त विधाएँ हमें अच्छी लगती हैं।अपवाद स्वरूप इक्का-दुक्का फ़िल्मों को छोडकर सामान्यतः फ़िल्में मुझे अच्छी नहीं लगतीं लेकिन नाटक अच्छे लगते हैं। मैं तो पंजाबी, मराठी और उर्दू के नाटक भी बड़े चाव से देखता-सुनता हूँ। अच्छा तो और भी बहुत कुछ लगता है लेकिन सबका उल्लेख इतने छोटे कैनवास पर संभव नहीं। विशेष रूप से वे लोग हमें बहुत पसंद हैं जो केवल अपने लिए नहीं, केवल और केवल अपनों के लिए भी नहीं अपितु अपने-पराए और छोटे-बड़े के भेद से परे समस्त सृष्टि के लिए उदार भाव से जीते हैं -“अयं निजः परोवेति गणना लघुचेतसां, उदार चरितानांतु वसुधैव कुटुंबकम् ।”
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