चुभता हुआ सत्य (ईबुक) – हेमन्त बावनकर
आत्मकथ्य – यह उपन्यासिका मेरी पहली कहानी ‘चुभता हुआ सत्य’ पर आधारित है। यह कहानी दैनिक नवीन दुनिया, जबलपुर की साप्ताहिक पत्रिका ‘तरंग’ के प्रवेशांक में 19 जुलाई 1982 को डॉ. राजकुमार तिवारी ‘सुमित्र’ जी के साहित्य सम्पादन में प्रकाशित हुई थी।
इस उपन्यासिका का कथानक एवं कालखंड अस्सी-नब्बे के दशक का है। अतः इसके प्रत्येक पात्र को विगत 36 वर्ष से हृदय में जीवित रखा। जब भी समय मिला तभी इस कथानक के पात्रों को अपनी कलम से उसी प्रकार से तराशने का प्रयत्न किया, जिस प्रकार कोई शिल्पकार अपने औजारों से किसी शिलाखण्ड को वर्षों तराश-तराश कर जीवन्त नर-नारियों की मूर्तियों का आकार देता है, मानों वे अब बोल ही पड़ेंगी।
सबसे कठिन कार्य था, एक स्त्री पात्र को लेकर आत्मकथात्मक शैली में उपन्यासिका लिखना। संभवतः किसी लेखिका को भी एक पुरुष पात्र को लेकर आत्मकथात्मक शैली में लिखना इतना ही कठिन होता होगा। इन पात्रों की पीड़ा को अपनी पीड़ा समझते हुए पिछले 36 वर्ष तक अपने हृदय में सहेजने के पश्चात अब उन्हें उपन्यासिका का रूप दे कर संतुष्टि का अनुभव कर रहा हूँ। यह उपन्यासिका वर्तमान परिपेक्ष्य में कितनी सार्थक है, इसका निर्णय मैं अपने पाठकों पर छोड़ता हूँ।
अमेज़न पर यह ईबुक 27 दिसंबर मध्यरात्रि तक प्री-लॉंच ऑफर पर उपलब्ध है एवं 28 दिसंबर 2018 प्रातःकाल से विक्रय के लिए उपलब्ध रहेगी।
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पुस्तक समीक्षा – चुभता हुआ सत्य – डॉ विजय कुमार तिवारी ‘किसलय’
लेखन की सार्थकता दिशाबोधी उद्देश्य की सफलता पर निर्भर करता है। लेखन सुगठित, सुग्राह्य, चिंतनपरक एवं उद्देश्य की कसौटी पर जितना खरा उतरेगा उतना व्यापक पठनीय, श्रवणीय तथा देखने योग्य होगा। सृजक की साधना, अभिव्यक्ति-चातुर्य तथा अनुभव ही सृजन को महानता और सार्थकता प्रदान करते हैं। अध्ययन एवं सांसारिक चिंतन-मनन उपरांत लिखा गया साहित्य निश्चित रूप से जनहितैषी एवं मार्गदर्शक होता है। हिन्दी में साहित्य लेखन का प्रारंभ ही धर्म, नीति, सद्भाव तथा मानवता से हुआ है। आज समय के दीर्घ अंतराल पश्चात लेखन बदला है, विषय बदले हैं और सबसे बड़ा बदलाव हुआ है तो वह है मानवीय दृष्टिकोण का। निःसंदेह तकनीकी प्रगति में अकल्पनीय वृद्धि हुई है परंतु वांछित मानवीय गुणों में निरंतर गिरावट हो रही है। आज बदलते परिवेश में शांति, सद्भाव, प्रेम, सहयोग एवं उदार भावों को समाज की मुख्यधारा से जोड़ने का उत्तरदायित्व साहित्यकारों के ऊपर पुनः आ गया है। आज उत्कृष्ट साहित्य के प्रचार प्रसार एवं अनुकरण हेतु प्रबुद्ध वर्ग का आगे आना अनिवार्य हो गया है। आज जब हर शख्सियत ‘अपनी ढपली अपना राग’ अलापने में लगी है, तब समाज को सही दिशा देने का परंपरागत कार्य साहित्यकार को ही करना पड़ेगा। आज समाज में स्वार्थ, वैमनस्य, असमानता तथा घमंड जैसी बहुसंख्य समस्याएँ एवं विद्रूपताएँ व्याप्त हैं। ‘मैं’ को ‘हम’ में बदलने का कार्य कलमकार ही कर सकता है।
तुलसी और कबीर से लेकर आज तक साहित्यमनीषियों के प्रेरक प्रसंग तथा लेखन ने इस समाज को परस्पर बाँधे रखा है। आज भी ऐसे साहित्यकारों की कमी नहीं है जो निरंतर दिशाबोधी तथा सकारात्मक सृजन में संलग्न हैं। ऐसे ही एक साहित्यकार हैं श्री हेमंत बावनकर, जिनके साहित्य पर मैंने चिंतन-मनन तो किया ही है उन्हें निकट से जाना भी है। साधारण सहज एवं आत्मीय श्री हेमंत जी एक ओर जहाँ मितभाषी एवं सहयोगी प्रकृति के हैं, वहीं अपने लेखन के प्रति सदैव सजग तथा गंभीर भी रहते हैं। आपका काव्य हो, कहानियाँ हों अथवा उपन्यास। हर विधा में इन्हें निष्णात माना जा सकता है। भाषा-शैली, भाव-गाम्भीर्य, परिदृश्य-चित्रांकन के साथ ही अंतस तक प्रभावी संवाद आपके लेखन की विशेषताएँ हैं।
उपन्यासिका ‘चुभता हुआ सत्य’ भी एक ऐसी ही कृति है जिसमें मानवीय भावनाओं को प्रमुखता से उभारा गया है। पूरी उपन्यासिका को परिस्थितियों एवं परिवेश के अनुरूप दो भागों में विभक्त किया जा सकता है। एक भाग में नायिका सुनीता के विवाह पूर्व का लेखा-जोखा है, वहीं दूसरे भाग में विवाहोपरांत उन संवेदनाओं का उल्लेख है जो मानवीय मूल्यों को कहीं न कहीं ठेस पहुँचाते हैं। उपन्यासिका में नायक सुनीता विद्यार्थी जीवन से ही बुद्धिमान, सत्य के प्रति निर्भीक तथा चिंतक प्रवृत्ति की लड़की रहती है। दहेज एवं लड़की वालों की बातों से वह काफी विचलित होती है। तभी एक पत्रकार रवि परिचर्चा हेतु साक्षात्कार के लिए उसके घर आता है। सुनीता उसके विचारों से प्रभावित होती है। मुलाकातें वैवाहिक प्रस्ताव तक पहुँचती हैं। नौकरी लगने पर रवि से उसका अंतरजातीय विवाह हो जाता है। इस भाग में मध्यम वर्गीय परिवारों, रैगिंग जैसी कुरीतियों, दहेज प्रथा, बेरोजगारी, ननद-भाभी के पवित्र रिश्ते एवं आचार-व्यवहार के ताने-बाने से मध्यम वर्गीय परिदृश्य पाठकों के जेहन में उभरकर स्थायित्व प्राप्त करता है। मीना भाभी माँ का आदर्श चित्रण भी लेखक की अपनी शैली का उदाहरण है।
विवाह के उपरांत लखनऊ यूनिट में रवि एम. ए. इंग्लिश पढ़ी सुनीता के साथ बड़े उत्साह और गर्व के साथ सैन्यजीवन आगे बढ़ाता है। यहाँ पर पढ़ी-लिखी सुनीता अफ़सर और सिपाहियों के भेद तथा अफसरों की पत्नियों द्वारा अफ़सरों जैसे व्यवहार से क्षुब्ध रहती है। एक बार महिला कल्याण समिति की अध्यक्ष और रवि के बॉस की पत्नी मिसेज शर्मा से बहस होने पर रवि को सिपाही से अर्दली बनने का खामियाजा भुगतना पड़ता है। इससे सुनीता मानसिक रूप से बेहद परेशान रहती है लेकिन रवि के समझाने पर उसका मन हल्का हो जाता है। इन प्रसंगों के चलते पूरी उपन्यासिका में सुनीता की वैचारिक उथल-पुथल चलती रहती है। सामाजिक बंधनों की बात, रवि के साथ आकर्षण की बात, बिटिया मधु की भावनाओं की बात, सैन्य जीवन में अफसर सिपाही के भेद की बात अथवा अफसर-सिपाहियों की पत्नियों के बीच भी उच्च एवं निम्न के भेद की बात सुनीता के मन को कचोटती है और एक दिन जब उसके सब्र का बाँध टूट पड़ता है तब पाठकों को भी एहसास होता है कि स्वाभिमान पर ठेस लगना साधारण नहीं होता। पति-पत्नी के आदर्श रिश्ते की सफलता का वर्णन भी इस उपन्यासिका में बखूबी किया गया है।
सुनीता के जीवन में ऐसे अनेक चुभते हुए सत्य सामने आते हैं और वह हर बार तिलमिला उठती है। शादी हेतु बार बार प्रस्तुत होना। अकेले जन्मे हैं अकेले ही मरेंगे। सैनिक से अधिक अर्दली की पत्नी हूँ। देशभक्ति में नैतिकता बहुत निचले स्तर तक पहुँच गई है। अमर शहीदों का जीवन कुछ धन या सिलाई मशीन से तौला जा सकता है? ऐसे और भी चुभते सत्य इस उपन्यासिका में हैं, जिनके माध्यम से जनचेतना लाने का प्रयास साहित्यकार श्री हेमन्त जी द्वारा किया गया है। अंत में राष्ट्रप्रेम का भाव रवि को सुनीता के दृष्टि में और ऊँचाई पर पहुँचा देता है। इसके साथ ही अब सुनीता के पास ऐसा कोई भी चुभता हुआ सत्य नहीं बचता जो उसके हृदय में गहराई तक चुभ सके।
इस तरह हम कह सकते हैं कि उपन्याससिका ‘चुभता हुआ सत्य’ आज समाज में व्याप्त विसंगतियों, कुरीतियों, दहेज, द्वेष आदि के उदाहरण प्रस्तुत करती ऐसी कृति है जिसे पढ़ने के पश्चात पाठक भी उद्वेलित होकर चिंतन-मनन हेतु निश्चित रूप से बाध्य होगा। उपन्यासिका में महाविद्यालयीन, पारिवारिक, वैवाहिक, युवक-युवती आकर्षण, ममता, वात्सल्य, सैन्य जीवन, निर्भीकता, सत्यता जैसे भावों का समावेश होना लेखक का व्यापक अध्ययन और ज्ञान का नतीजा ही कहा जाएगा। यह कृति समाज को नई दिशा दे। श्री हेमन्त जी का सृजन अबाध चलता रहे। उपन्यासिका ‘चुभता हुआ सत्य’ के प्रकाशन पर हमारी अंतस से अनंत बधाईयाँ।
– विजय तिवारी ‘किसलय’
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