मराठी साहित्य – साप्ताहिक स्तम्भ – ☆ कवितेच्या प्रदेशात # 17 –ती ☆ – सुश्री प्रभा सोनवणे

सुश्री प्रभा सोनवणे

 

(आज प्रस्तुत है सुश्री प्रभा सोनवणे जी के साप्ताहिक स्तम्भ  “कवितेच्या प्रदेशात” में  एक स्त्री पर कविता  “-ती” एक स्त्री द्वारा.  ऐसा इसलिए  क्योंकि एक पुरुष साहित्यकार स्त्री की भावनाओं को कविताओं के इस स्वरुप में रचित कर सकेगा क्या? इसका उत्तर आप  विचारिये.  एक पंक्ति अद्भुत है – “स्त्री कांच का पात्र (बर्तन)  है एक बार चटक गया फिर संभाले नहीं संभलता.”  साथ ही यह भी  कि  “कोई आएगा स्वप्नों का राजकुमार और ले जायेगा स्वनों के संसार किन्तु उसे देख-परख लेना” – ऐसा क्यों नहीं कहती है सबकी माँ ?”  ह्रदय को स्पर्श कर गया.

यदि एक पुरुष  कवि या पिता की भावनाओं की बात करेंगे तो मैं अपनी  एक कविता  का एक संक्षिप्त अंश जो मैंने अपनी  पुत्रवधु एवं  पुत्री के लिए लिखी थी उद्धृत करना चाहूँगा –

एक बेटी के आने के साथ ही / तुम्हारे विदा करने का अहसास / गहराता गया। / और / हम निकल पड़े / ढूँढने/अपने सपनों का राजकुमार/ तुम्हारे सपनों का राजकुमार / एक/वैवाहिक वेबसाइट के /विज्ञापन के / पिता की तरह / हाथ में / पगड़ी लिये / और/ कल्पना करते / हमारे / सपनों के राजकुमार की / ढूंढते जोड़ते / वर वधू का जोड़ा। / कहते हैं कि – / जोड़े ऊपर से बनकर आते हैं। / फिर भी / प्रयास तो करना ही पड़ता है न।

यह पूरी लम्बी कविता फिर कभी प्रकाशित करूँगा किन्तु, मैं अपने पहले कथन पर स्थिर हूँ –  “एक स्त्री पर कविता  “-ती” एक स्त्री द्वारा”. जैसे -जैसे पढ़ने का अवसर मिल रहा है वैसे-वैसे मैं निःशब्द होता जा रहा हूँ। मुझे पूर्ण विश्वास है  कि  आप निश्चित ही प्रत्येक बुधवार सुश्री प्रभा जी की रचना की प्रतीक्षा करते होंगे. आप  प्रत्येक बुधवार को सुश्री प्रभा जी  के उत्कृष्ट साहित्य का साप्ताहिक स्तम्भ  – “कवितेच्या प्रदेशात” पढ़ सकते  हैं।)

 

☆ साप्ताहिक स्तम्भ – कवितेच्या प्रदेशात # 17 ☆

 

☆ -ती ☆

 

आई म्हणाली, तू वयात आलीस,

 

“आता हुन्दडू नकोसं गावभर,

 

“बाई ची अब्रू काचेचं भांडं, एकदा तडा गेला की सांधता येत नाही ”

कदाचित  तिच्या  आईनं ही तिला हे  सांगितलं  असावं

 

परंपरागत  हे काचेचं भांडं

जपण्याची शिकवण !

 

“तुला भेटेल कुणी राजकुमार

नेईल स्वप्नांच्या  राज्यात—

करेल उदंड  प्रेम तनामनावर —

पण  गाफिल राहू नकोस,

नीट पारखून घे तुझा  सहचर”

 

अशी शिकवण का देत नाही  कुठलीच  आई?

 

काचेला तडा न जाऊ देण्याच्या

अट्टाहासाने,

निसटून  जातात सगळे च

सुंदर क्षण  आयुष्यातले !

 

उरतो फक्त  व्यवहार-

बोहल्यावर चढविल्याचा,

पोरीचे हात पिवळे करून

आई बाप सोडतही असतील सुटकेचा  श्वास !

 

एका परकीय  प्रान्तात येऊन

तनामनानं तिथं स्थिरावण्याचं

अग्निदिव्य तर तिलाच करावं लागतं ना ?

 

आणि  नाहीच जुळले  सूर, तरीही

संसार गाणं गावंच लागतं ना ?

 

ही शिकवण की संस्कार ?

स्वतःची जपणूक, परक्या हाती स्वतःला सोपवण्याची–

नाच गं घुमा च्या तालावर  नाचण्याची??

 

आणि लागलाच एखाद्या  क्षणी

परिपूर्ण  स्त्री  असल्याचा शोध,

तर —-

 

मारून टाकायचे स्वतःतल्या

त्या भावुक  स्री ला ?

की बनू  द्यायचं तिला अॅना कॅरेनिना ??

 

एकूण  काय मरण अटळ —–

आतल्या  काय अन बाहेरच्या  काय ?

“ती” चं च फक्त तिचंच!

 

© प्रभा सोनवणे,  

“सोनवणे हाऊस”, ३४८ सोमवार पेठ, पंधरा ऑगस्ट चौक, विश्वेश्वर बँकेसमोर, पुणे 411011

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