श्री भगवान वैद्य प्रखर

(हम स्वयं से संवाद अथवा आत्मसंवाद अक्सर करते हैं किन्तु, ईमानदारी से आत्मसाक्षात्कार अत्यंत कठिन है। प्रस्तुत है सुप्रसिद्ध वरिष्ठ साहित्यकार श्री भगवान् वैद्य “प्रखर” जी का आत्मसाक्षात्कार दो भागों में।)

☆ जीवनयात्रा ☆ मेरी सृजन-यात्रा  – भाग – 1 ☆ श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’☆

मैं कई बार, कई विषयों पर अपने-आप से अकेले में वार्त्तालाप  करता रहता हूँ। सलाह-मशविरा, जिरह करता हूँ, प्रश्न पूछता हूँ, खुद ही उत्तर देता  हूँ। पर यह कभी सोचा न था कि इस प्रकार की बातचीत में जो संवाद होता है, उसे कभी कागज पर उतारना पड़ेगा। सांगली की हमारी आत्मीय बहना, सुप्रसिद्ध मराठी लेखिका, यशस्वी अनुवादक सुश्री उज्ज्वला केळकर जी ने एक दिन दिलचस्पी दिखायी इस प्रकार की  ‘अपने-आप से बातचीत’ में और उसी का नतीजा है यह आत्म-साक्षात्कार:   

प्रश्न: ‘प्रखर’ जी, हाल ही में आपको हैदराबाद का ‘आनंदऋषि साहित्य निधि पुरस्कार’ घोषित हुआ है। सबसे पहले तो उसके लिए आप हार्दिक बधाई स्वीकार करें । साथही, जरा यह भी बतलाइए कि यह किस प्रकार का पुरस्कार है और उसका क्या स्वरूप है?

उत्तर: जी, धन्यवाद। हैदराबाद स्थित एक संस्था है, आचार्य आनंदऋषि साहित्य निधि संथा। यह संस्था  प्रतिवर्ष दक्षिण भारत के छह राज्य अर्थात महाराष्ट्र, तेलंगाना, आंध्र प्रदेश, केरल, कर्नाटक, तमिलनाडु, और गोवा तथा पुडुचेरी के हिंदीतर भाषी -हिंदी लेखकों में से किसी एक का चयन करके उन्हें उनके हिंदी साहिय-सृजन के लिए पुरस्कार देकर सम्मानित  करती है। आचार्य आनंदऋषि जी म.सा. की जयंती पर हैदराबाद में आयोजित समारोह में, इकतीस हजार की सम्मान राशि, दुशाला, मुक्ता-लड़ी, प्रशस्ति-पत्र प्रदान करके लेखक को समारोहपूर्वक गौरवान्वित किया जाता है। पुरस्कार के लिए संस्था द्वारा चुने गये विद्वानों से प्रस्ताव आमंत्रित किये जाते हैं जिनपर निर्णायकों की समिति द्वारा विचार-विमर्श करके निर्णय लिया जाता है। इसके पहले यह पुरस्कार 29 लेखकों को मिल चुका है जिनमें डॉ. बालशौरि रेड्डी, वसन्त देव, डॉ. शंकर पुणताम्बेकर, श्रीपाद जोशी, डॉ.सूर्यनारायण रणसुंभे, डॉ.दामोदर खड़से आदि शामिल हैं।

प्रश्न: आपको पुनश्च बधाई। प्रखर जी, आपको इससे पूर्व भी अनेक पुरस्कार मिले हैं जिनपर आगे बातचीत में चर्चा करेंगे ही पर पहले कुछ और विषयों पर चर्चा करते हैं।  

उत्तर: जी, अवश्य।

प्रश्न:  इधर कुछ दिनों से पत्र-पत्रिकाओं में आपकी लघुकथाएं लगातार छप रही हैं। दृष्टि, अविराम साहित्यिकी, कथादेश, हंस,लघुकथा डॉट कॉम, हिन्दी चेतना आदि में प्रकाशित आपकी लघुकथाएं खूब सराही गयी हैं। कुछ लघुकथाओं का मराठी में अनुवाद भी प्रकाशित हो चुका है। -तो सीधा प्रश्न यह है कि व्यंग्य, कहानी, कविता लिखते -लिखते आप अचानक लघुकथा में कैसे आ गये? 

उत्तर: ‘लघुकथा’ में मैं अचानक नहीं आया। आपको जानकर शायद आश्चर्य हो कि मेरी पहली लघुकथा ‘कवि(ता) और भविष्य’ दैनिक नवभारत, रायपुर के 20 दिसंबर 1973 के अंक में प्रकाशित हुई थी। मैं तबसे लघुकथाएं लिख रहा हूँ। सारिका(मार्च’1986), कादम्बिनी (अप्रैल’1986) में मेरी लघुकथाएं प्रकाशित हो चुकी थीं। -यही है कि लघुकथा मेरे लेखन की प्रमुख विधा न थी। इसी कारण 100 लघुकथाओं का पहला संग्रह ‘हजारों-हजार बीज’ दिशा प्रकाशन, दिल्ली से वर्ष 2002 में प्रकाशित हुआ। यानी उन्नीस वर्ष लग गये। उसके बाद दूसरा लघुकथा-संग्रह ‘बोनसाई’ वर्ष 2018 में किताब घर, दिल्ली से ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान’ का तमगा लेकर प्रकाशित हुआ। अर्थात अन्य विधाओं के साथ-साथ लघुकथा-लेखन जारी रहा। फर्क यही हुआ कि इन दिनों पूरा ध्यान लघुकथा-लेखन पर है।     

प्रश्न: इसका आप क्या कारण मानते हैं?

उत्तर: कारण यह है कि ‘आर्य-स्मृति साहित्य सम्मान’ प्रत्येक वर्ष किसी एक विधा की अखिल भारतीय -स्तर पर प्रविष्ठियां आमंत्रित करके चुनी गयी पुस्तक को दिया जानेवाला राष्ट्रीय सम्मान है। उसके लिए ‘बोनसाई’ के चुने जाने पर लघुकथा-जगत का ध्यान मेरी ओर आकर्षित हुआ।दिग्गज लघुकथा-लेखक, समीक्षक सम्पर्क में आएं। अनेक लघुकथा-संग्रह प्राप्त होने लगे। पूरी तरह लघुकथा के लिए समर्पित पत्रिकाएं डाक से घर आने लगीं। मेरी रचनाएं आमंत्रित की जाने लगीं। इस प्रकार अनायास मेरी पहचान लघुकथा -जगत से हो गयी।

प्रश्न: तो क्या अब आप अन्य विधाओं से विरत हो चुके हैं?

उत्तर: जी, ऐसा कहना उपयुक्त नहीं होगा। लेकिन यह मेरा स्वभाव रहा है कि किसी विधा में पूरे मन से जुड़ने के बाद मैं उसमें अपनी एक पहचान कायम करना चाहता हूँ।  व्यंग्य लिखने लगा तो लगभग 300 रचनाएं लिखीं। धर्मयुग, साप्ताहिक हिंदुस्तान, रविवार, नवभारत टाइम्स, दैनिक हिन्दुस्तान समान राष्ट्रीय-स्तर की पत्र-पत्रिकाओं में रचनाएं प्रकाशित हुईं। चार व्यंग्य-संग्रह प्रकाशित हुए।  नागपुर से प्रकाशित दैनिक ‘लोकमत समाचार’ में दो-वर्ष साप्ताहिक ‘व्यंग्य-कॉलम’ में योगदान दिया। व्यंग्य-संग्रह ‘बिना रीढ़ के लोग’ को भारत सरकार द्वारा राष्ट्रीय पुरस्कार देकर सम्मानित किया गया।- तीन कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं। हंस, कथादेश, शुक्रवार, जागरण सखि,भाषा, वर्तमान साहित्य ,साहित्य भारती, नवभारत टाइम्स, दै. हिन्दुस्तान आदि पत्र-पत्रिकाओं में कहानियां प्रकाशित हुईं। कहानी ‘ढोल बजाती शहनाइयां’ को  युद्धवीर फाउण्डेशन के तत्वावधान में, दैनिक मिलाप, हैदराबाद द्वारा आयोजित ‘अखिल भारतीय कहानी प्रतियोगिता’ में आंध्र-प्रदेश के तत्कालीन राज्यपाल, महामहिम डॉ. रंगनाथन जी के हस्ते प्रथम पुरस्कार (दि. 30.4.2002) प्राप्त हुआ। दो कहानी-संग्रह (1.सीढ़ियों के आसपास 2. चकरघिन्नी)को महाराष्ट्र राज्य हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘मुंशी प्रेमचंद पुरस्कार’ प्रदान किया गया। – दो कविता-संग्रह हैं। उसमें से एक ‘अंतस का आदमी’ को म. रा. हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘संत नामदेव पुरस्कार’ से नवाजा गया।- मराठी की 6 (छह) पुस्तकों सहित 35 कहानियों का हिंदी में अनुवाद किया जो भारतीय ज्ञानपीठ, साहित्य अकादेमी, भारतीय भाषा परिषद, उत्तर प्रदेश हिंदी संस्थान, मध्य प्रदेश संस्कृति परिषद आदि प्रतिष्ठित संस्थाओं की पत्रिकाओं में प्रकाशित हुआ। अनूदित पुस्तक ‘धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे (प्रभात प्रकाशन से प्रकाशित)’ को म. रा. हिंदी साहित्य अकादमी द्वारा ‘मामा वरेरकर पुरस्कार’ प्रदान किया गया। – कहने  का मतलब इन विधाओं में मैंने अपना एक मक़ाम हासिल किया है।

प्रश्न : तो अब लघुकथा में आप क्या करना चाहते हैं? 

उत्तर: संक्षेप में कहूं तो कुछ लघुकथाएं ऐसी लिखना चाहताहूँ जिनसे इस विधा में मेरी अपनी अलग पहचान बनें।। ‘बोनसाई’ एक ‘मक़ाम’ जरूर है पर लगता है, अभी मेरी साधना अधूरी है। कुछ रचनाएं बनी हैं, बन रही हैं, प्रकाशित हो रही हैं, प्रशंसा भी पा रही हैं। लेकिन लगता है, अभी बहुत कुछ तराशना बाकी है।

प्रश्न:  इसके लिए आप क्या कर रहे हैं?’

उत्तर: इस विधा को समझने की कोशिश कर रहा हूँ। नयी-पुरानी अधिक से अधिक लघुकथाएं, समीक्षाएं पढ़ रहा हूँ। ‘दिशा प्रकाशन, दिल्ली’  द्वारा प्रकाशित लघुकथा के 25 खण्ड,डॉ. राम कुमार घोटड़ के विभिन्न संग्रह पढ़े। ख़लील जिब्रान, सआदत हसन मंटो, मुंशी प्रेमचंद, हरिशंकर परसाई, विष्णु प्रभाकर से लेकर वर्तमान स्थापित तथा नवोदित लघुकथाकारों की हजारों लघुकथाएं पढ़ीं और पढ़ रहा हूँ। सर्वश्री कमल किशोर गोयनका, शंकर पुणताम्बेकर, बलराम, बलराम अग्रवाल, अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, सतीशराज पुष्करणा आदि के आलेख और समीक्षाएं पढ़ीं। एक और बात यहाँ बता दूं। मेरी साहित्य-यात्रा व्यंग्यकार के रूप में आरंभ हुई। चलते-चलते कहानी साथ हो ली। यदा-कदा कविता ने उंगली थामी। इन सबका साथ लेकर अब मैं लघुकथा को साधना चाहता हूँ और मुझे इसमें आशातीत सफलता मिल रही है।

प्रश्न: रचना के लिए विधा का चुनाव कैसे करते हैं?

उत्तर: रचना पहले एक बिम्ब के रूप में जेहन में उभरती है। उस पर अंतर्मन में चिंतन-मनन आरंभ होता है। आकार मिलने लगता है। इस बीच, उसके लिए कौन-सी विधा उपयुक्त होगी यह रचना खुद तय कर लेती है।

प्रश्न : लेकिन कविता बनेगी, लघुकथा लिखी जायेगी, कहानी लिखना चाहिये या व्यंग्य यह किस प्रकार तय होता है?

उत्तर: आपके पास कितनी जमीन है और उसकी कितनी उर्वरा-शक्ति है, इस पर यह निर्भर करता है कि आप कौन-सी फसल लेंगे। इसमें आपकी सृजन-क्षमता का महत्वपूर्ण ‘रोल’ होता है। किसी के हाथ काष्ठ का एक टुकड़ा पड़ जाए तो बैठे-बैठे उस पर किसी कील से लकीरें खींचकर स्वस्तिक बना देगा। वहीं कोई चित्रकार उस पर ‘युगल’ उकेर लेगा तो कोई ऐसा भी होगा जो उस पर पूरी वाटिका का चित्र बनाकर उसमें राम ,सीता का मिलन दर्शाएगा। इसी प्रकार किसी एक घटना पर कोई लेखक कविता या प्रभावशाली लघुकथा, दूसरा लेखक बढ़िया कहानी तो कोई और बृहद उपन्यास भी लिख सकता है।

प्रश्न: आपके मन में लेखन के लिए ये बिम्ब कैसे उभरते हैं?

उत्तर: आपने अच्छा प्रश्न किया है। बिम्ब हर चिंतनशील व्यक्ति के मन में उभरते हैं। लहरों की भांति। यही है कि जैसे हर लहर को किनारा नसीब नहीं होता उसी प्रकार प्रत्येक बिम्ब को आकार नहीं मिल पाता। अपनी बात कहूं तो, मेरा नाम है, भगवान वैद्य। मैं सांसारिक गतिविधियों में मगन एक सामान्य गृहस्थ हूँ। लेकिन मेरे भीतर एक और व्यक्ति है। उसका नाम है, भगवान वैद्य ‘प्रखर।’ यह अति संवेदनशील, चतुर्दिक आंखों वाला, औघड़ आदमी है। अपने-आप में मगन। उसे किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। मुझसे भी नहीं। वह सोते-जागते अपना काम करता रहता है। यहां तक कि जब भगवान वैद्य ब्रश करते रहता है तब यह आदमी किसी अधूरी रचना के लिए बेहतर शीर्षक, पात्रों के बेहतर नाम या सटीक पर्यायी शब्द खोजता रहता है। मैं यानी भगवान वैद्य, जहां कहीं जाता हूँ, यह आदमी अदृष्य रूप में सदैव मेरे साथ रहता है और अपनी जमीन के लिए ‘बीज’ खोजता, बटोरता रहता है। बाद में, अकेले में मुझे सौंपता है। फिर हम दोनों एकाकार होकर अपनी चादर बुनते हैं। उसे आकार, रंग देते हैं।सजाते-संवारते हैं। एक और बात बतला देना चाहता हूँ। जब तक वह चादर पूरी नहीं होती तब तक यह आदमी ‘भगवान वैद्य’ को चैन से नहीं रहने देता, जीना हराम कर देता है।

प्रश्न: आपने ऊपर अनुवाद का जिक्र किया है। मौलिक साहित्य-सृजन करते-करते आप अनुवाद की ओर कैसे मुड़ गये?

उत्तर: यह एक रहस्य है। अंतर्मन में उपजी पीड़ा की सांत्वना का रहस्य। मैं मूलत: मराठी-भाषी हूँ। न केवल मेरी मातृभाषा मराठी है, मेरी मैट्रिक तक की शिक्षा का माध्यम भी मराठी ही रहा है। घर में मेरी भाषा मराठी (पत्नी के साथ हिंदी भी) है । नौकरी के लिए मुझे मध्य प्रदेश जाना पड़ा। वहां मराठी माध्यम में आगे पढ़ाई संभव न थी। दूसरा कारण यह था कि वहां के लोग मेरी हिंदी पर हँसते थे। इस कारण हिंदी सीखना जरूरी था। भोपाल बोर्ड से इंटरमीजिएट और जबलपुर विश्वविद्यालय से हिंदी माध्यम लेकर बी.ए. किया।  आस-पड़ोस, सहकर्मी, सब हिंदी भाषी थे। जब साहित्य- सृजन आरंभ  हुआ तो अहसास हुआ कि मैं अपनी भावनाओं को हिंदी में बेहतर सम्प्रेषित कर सकता हूँ। मातृभाषा में न लिख पाने का अफसोस था । कालांतर में, उसी की भरपाई करने के लिए विचार आया कि क्यों न मराठी का कुछ उत्कृष्ट साहित्य हिंदी में उपलब्ध कराया जाए!- इसी बात ने मुझे मराठी से हिंदी में अनुवाद-कार्य के लिए प्रवृत्त किया।

प्रश्न: साहित्य-सृजन के लिए कोई पारिवारिक पृष्ठभूमि न थी । भाषा अपनायी तो हिंदी अर्थात मातृभाषा से इतर। पढ़ाई मात्र स्नातक-स्तर तक। कार्य-क्षेत्र भी शिक्षा या साहित्य से जुड़ा हुआ नहीं । तब हिंदी में साहित्य -सृजन की प्रेरणा कहां से मिली?

उत्तर:  मध्य प्रदेश के पी.डब्लू.डी. विभाग का सब-डिविजन ऑफिस था, सौंसर(जिला-छिंडवाड़ा) में। वहां पहली नौकरी लगी। ऑफिस में ‘घरेलू लाइब्रेरी योजना’ के अंतर्गत हर माह ‘हिंद पॉकेट बुक्स’ की दस पुस्तकें आती थीं। लाइब्रेरी मेरे जिम्मे थी। धीरे-धीरे मैं हिंदी पुस्तकें पढ़ने लगा । रवीन्द्रनाथ टैगोर, शरतचन्द्र चट्टोपाध्याय, बंकिमचंद्र, प्रेमचंद, आचार्य चतुरसेन,शिवानी आदि की पुस्तकों के पॉकेट-बुक्स संस्करण पढ़े। किताबें पढ़ने का चसका लग गया। 1965 में मैं जबलपुर चला गया, डाक-तार विभाग में। वहां पांच साल रहा। मेरे एक सहकर्मी साहित्यकार थे। उनसे मित्रता हो गयी। वे कहानियां लिखते थे। उनकी दृष्टि में, मेरे अक्षर अच्छे थे। वे मुझे अपनी कहानियां कॉपी करने के लिए दिया करते। (उन दिनों आज की तरह कम्प्यूटर आदि की सुविधा न थी और टाइप कराना महंगा पड़ता था।)  कुछ समय बाद मैं उनसे उनकी कहानियों पर चर्चा करने लगा। मुझे लगने लगा कि फलां कहानी कुछ और तरीके से भी लिखी जा सकती है। इस प्रकार सृजन का बीज अंकुरित होने लगा। इस बीच मैंने सुबह के कॉलेज में दाखिला लेकर बी. ए. कर लिया। जबलपुर में उन दिनों जबर्दस्त साहित्यिक माहौल था।सेठ गोविंद दास, नर्मदाप्रसाद खरे, ज्ञानरंजन, व्यंग्य-सम्राट परसाई जी आदि दिग्गजों की तूती बोलती थी। हिंदी के श्रेष्ठतम कवि काव्य -पाठ करने जबलपुर आया करते। मुझे भी लगने लगा कि कुछ लिखूं। लेकिन समय न था। सुबह कॉलेज, दिन भर ऑफिस।उसके बाद ओवर-टाइम। आधी तनख्वाह घर भेजना अपरिहार्य था। इस कारण ओवर-टाइम करना जरूरी था। अप्रैल 1971 में डाक-तार विभाग छोड़कर भारतीय जीवन बीमा निगम ज्वाइन कर लिया। पोस्टिंग मिली, भिलाई में। वहां मुझे पढ़ने-लिखने के लिए समय मिलने लगा।

लाइब्रेरी ज्वाइन कर ली। धर्मयुग, साप्ताहिक हिन्दुस्तान, सारिका, कादम्बिनी, कहानी, कहानीकार, निहारिका, दिनमान, माधुरी जैसी पत्रिकाएं घर में बैठकर इत्मीनान से पढ़ने लगा। नवभारत, देशबन्धु, नवभारत टाइम्स, युगधर्म आदि अखबारों के साहित्य-परिशिष्ट देखने लगा।। कुछ ही दिनों में,  इन्हीं में लिखने लगा।

क्रमशः …..

© श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

संपर्क : 30 गुरुछाया कालोनी, साईंनगर, अमरावती-444607

मो. 9422856767, 8971063051  * E-mail[email protected] *  web-sitehttp://sites.google.com/view/bhagwan-vaidya

संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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