रंगमंच स्मृतियाँ – ☆ न चीनी कम ना नमक ज़्यादा ☆ – श्री अनिमेष श्रीवास्तव
श्री अनिमेष श्रीवास्तव
(यह विडम्बना है कि – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।
इस प्रयास में सहयोग के लिए श्री अनिमेष श्रीवास्तव जी का आभार। साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ – हेमन्त बावनकर)
☆ रंगमंच स्मृतियाँ – “न चीनी कम ना नमक ज़्यादा” – श्री अनिमेष श्रीवास्तव ☆
* निर्देशकीय *
नियति है.. अकेलापन.. ।
आना भी अकेले और जाना भी…. इससे दूर रहने के लिए इंसान ने ख़ूब उपाय किये । समाज बनाया, रीति-रिवाज बनाये, नियम बनाया, क़ानून बनाये.. कि सभ्य और सुसंस्कृत रूप से जी सके.. मगर फिर भी अकेलेपन से निजात नहीं पा सका.. क्योंकि वह इसकी जड़ में अपने मूल स्वभाव.. अहंकार को कभी समझ ही नहीं पाया ।
अहंकार जिसके ना रहने पर प्रेम होता है, प्रेम क़रीब लाता है । उसके अभाव में लोगों से घिरे रहने के बावजूद भी मनुष्य तनहा है। अनगिनत संबंधों की डोर से जुड़ा होने पर भी जो सिरा उसके पास है वह अकेलेपन का ही है…।
मनोवैज्ञानिक और तथाकथित सामाजिक रूप में संबंधों (दोस्त, प्रेमी-प्रेमिका, पति-पत्नी के संबंध) की महती आवश्यकता हर इंसान की ज़रूरत है। यह रिश्ते मानसिक जीवन के भरण-पोषण के लिए अवश्यम्भावी हैं। दोस्त के रूप में मां-बाप, भाई-बहन या अन्य कोई भी बाहरी, प्रेमी-प्रेमिका के रूप में किसी भी आदर्श व्यक्ति या अपने ही किसी संबंधी की छवि जो पति-पत्नी के चयन में भी परिलक्षित होती है, के लिए मन खेल खेलता है और अपने मुताबिक ना होने पर खुद को छला महसूस करता है । मन का ये भ्रमण विलास और खोजते रहने की प्रवित्ति ही मानव जीवन का सत्य है ।
दुरूह है यह जानते हुए भी इंसान ने जीवन को स्वाभाविक ढंग से जीना शुरू किया और अपने सबसे बड़े गुण, बुद्धि का इतना विकास किया कि उससे अविष्कृत सुख-सुविधा में दुःख (जो मूल रूप में अकेलापन है, उसे) भूलने का छल भी अपने से किया ।
दिवा-स्वप्नों को जीते हुए इंसान अपने जीने के कारणों को तलाश रहा है और जीता चला जा रहा है।
मनुष्य अकेला है मगर उजागर नहीं है । दर्शन का उपयोग और शास्त्र का प्रयोग उसके अकेलेपन का बचाव है ।
प्रस्तुत नाटक में मानवीय अकेलापन सीधे-सीधे तो परिलक्षित नहीं होता मगर हास्य के क्षणों को, जो नाटक में हैं, हम देखें तो उसका दर्शन अवश्य होता है ।
यह एक मनोवैज्ञानिक नाटक है । एक एकाकी अविवाहित महिला जो जीने के कारणों को स्वप्न-दिवास्वप्न में तलाशती है । उसके यह सपने तो कभी पूरे नहीं होते किन्तु उसकी संपूर्णता की चाह ही उसके जीने का सबब हैं।
शारीरिक ज़रूरत कई समस्याओं की जड़ है लेकिन उसकी पूर्ति किसी समस्या का हल भी नहीं है।
नाटक की मुख्य पात्र मीरा के अकेलेपन का एक कारण लीबीदो है, जो जैविक मनोवैज्ञानिक कारण जैसे व्यक्तित्व और तनाव, और सामाजिक कारक जैसे काम और परिवार से प्रभावित होता है। इसके अलावा चिकित्सीय स्थितियों, जीवन शैली, रिश्ते के मुद्दों और उम्र से भी अपना स्वरूप ग्रहण करता है ।
मनुष्यों में अंतरंग संबंधों के निर्माण और निर्वहन में यौन इच्छाएं अक्सर एक महत्वपूर्ण कारक होती हैं।
ऐसे ही लीबीदो से वशीभूत होकर मीरा के जीवन में किसी एक दिन तीन लोगों का आगमन होता है । यह लोग उसके मनःस्थिति में बसे संबंधों के आदर्श रूप प्रस्तुत करते हैं । उनमें से एक दोस्त है, एक हीरो रूप (प्रेरणा) और तीसरा प्रेमी । इनसे दो-चार होकर उसे खुशी भी मिलती है और नैराश्य भी। इस खुशी और नैराश्य के पीछे लीबीदो ही है।
क्या खुशी और नैराश्य एक स्वप्न है ? सिर्फ लीबीदो ?
निर्णय आपका है !
मंच पर
मीरा – आस्था जोशी
सोनू – सोनू चौहान
अरुण – सतीश मलासिया
हरीशंकर – सौरभ लोधी
मुरली मनोहर – पीयूष पांडा
कुली – आशुतोष मिश्रा
(नाटक “न चीनी कम ना नमक ज़्यादा” के लिए यह पेंटिंग नाटक के सेट डिजाइनर चैतन्य सोनी जी ने बनाया था। चैतन्य ने इस नाटक के लिए ना सिर्फ सेट डिजाइन किया, बल्कि वस्त्र-विन्यास भी उन्ही का था, जिसके लिए उन्होंने एक पूरी शर्ट भी पेंट किया। इसके अलावा नाटक में मेकअप भी उन्ही का था।)
मंच परे
मंच व्यवस्थापक – आशुतोष मिश्रा
मंच परिकल्पना एवं निर्माण – चैतन्य सोनी / अक्षिका यादव
मंच सामाग्री – सोनू चौहान
वस्त्र विन्यास – चैतन्य सोनी
रूप सज्जा – चैतन्य सोनी
प्रचार प्रसार – भगवती चरण
विडियो फोटो – कृष्णा गर्ग
प्रकाश परिकल्पना – मुकेश जिज्ञासी
मूल लेखक – मोहित चट्टोपाध्याय
हिन्दी अनुवाद – समर सेनगुप्ता
संगीत संकलन – अंकित शिरबावीकर
संगीत संचालन – अभिषेक सिंह राजपूत
सहयोगी कलाकार – चन्द्र कुमार फाये, पीयूष तिवारी, अक्षिका यादव
परिकल्पना एवं निर्देशन – अनिमेष श्रीवास्तव
मार्गदर्शक – मुकेश शर्मा
* निर्देशकीय संस्मरणात्मक अभिव्यक्ति *
समान्तर नाट्य संस्था, भोपाल के कलाकारों के साथ पिछले एक महीने से रंगमंचीय कार्यशाला करने का अनुभव ले रहा हूँ… सिखाया क्या हूँ कुछ नहीं, बल्कि खुद जाने कितनी चीज़े सीख गया हूँ। नए और जवान प्रशिक्षु लबरेज़ होते हैं अनगढ़ खूबसूरती से जिसे आकार देने की ज़िम्मेदारी किसी पुराने को दी जाती है। मैं पुराना नहीं हूँ बल्कि मुझ से नया और कोई नहीं, मगर फिर भी एक दिन श्री मुकेश शर्मा सर ने कहा कि आइए और हमारे कलाकारों के साथ कुछ काम कीजिये। मैं गया साहब। कलाकारों से मिला। बातें-वातें की । कुछ खेल खेले। कभी नाचे तो कभी रेंके । कभी पढ़ने लगे तो कभी एक्सरसाइज़ की। अपने तथाकथित सीखे को उनके तथाकथित नौसिखियेपन से जोड़ा, हिलाया, मिलाया, और जब सबने मिलकर खूब पसीना बहाया तब जाके रिजल्ट में निकला यह प्रहसन। जिसे मोहित चट्टोपाध्याय जैसे महान लेखक ने बांग्ला में ‘गनधोराजेर हाथताली’ नाम से रचा था मगर हिंदी में हमारे लिए जिसका अनुवाद वरिष्ठ रंगकर्मी श्री समर सेनगुप्ता जी ने किया । जबलपुर में रहने वाले समर दा अभिनय और निर्देशन के अलावा लेखन में भी दखल रखते हैं और उनका यह अनुवाद अच्छा बन पड़ा है ।
इधर मुकेश सर की बेशकीमती सलाहियत से नाटक के कई कमज़ोर पक्षों को मजबूती मिली तो कहानी और साफ हुई।
मूल बांग्ला से अनुदित इस नाटक की हिंदी में संभवतः यह पहली प्रस्तुति है ।
यह कक्षा अभ्यास प्रस्तुति महज परिदृश्य है उसका जिसे इन कलाकारों ने कार्यशाला के दौरान समझा है और जाना है। कितना जाना है इसे तो आपका अवलोकन ही बेहतर बयान कर सकेगा।
प्रस्तुति : श्री अनिमेष श्रीवास्तव, भोपाल