रंगमंच स्मृतियाँ – ☆ मौसाजी जैहिन्द ☆ – प्रस्तुति श्री दिनेश चौधरी
श्री दिनेश चौधरी
यह विडम्बना है कि – हम सिनेमा की स्मृतियों को तो बरसों सँजो कर रखते हैं और रंगमंच के रंगकर्म को मंचन के कुछ दिन बाद ही भुला देते हैं। रंगकर्मी अपने प्रयास को आजीवन याद रखते हैं, कुछ दिन तक अखबार की कतरनों में सँजो कर रखते हैं और दर्शक शायद कुछ दिन बाद ही भूल जाते हैं। कुछ ऐसे ही क्षणों को जीवित रखने का एक प्रयास है “रंगमंच स्मृतियाँ “। यदि आपके पास भी ऐसी कुछ स्मृतियाँ हैं तो आप इस मंच पर साझा कर सकते हैं।
इस प्रयास में सहयोग के लिए श्री दिनेश चौधरी जी का आभार। साथ ही भविष्य में सार्थक सहयोग की अपेक्षा के साथ – हेमन्त बावनकर
☆ निराले बुंदेली मौसाजी भावुक कर देते हैं ☆
साझा रंगमंच द्वारा विगत 16 जनवरी 2020 को शहीद स्मारक, जबलपुर में ‘मौसाजी जैहिन्द’ नाटक की प्रस्तुति दी गई। साझा रंगमंच नगर के रंगकर्म क्षेत्र में नया प्रयोग व अवधारणा है। साझा रंगमंच – नगर की रंग संस्थाओं जिज्ञासा, रंगाभरण एवं इलहाम का संयुक्त प्रयास है। यह प्रयोग जबलपुर में पहली बार हुआ है, जिसमें तीन संस्थाओं के रंगकर्मियों ने संयुक्त रूप से नाट्य प्रस्तुति दी। ‘मौसाजी जैहिन्द’ विख्यात साहित्यकार उदय प्रकाश की कहानी पर आधारित बुंदेली रूपांतरण है। नाटक का बुंदेली रूपांतरण, निर्देशन और मौसाजी की मुख्य भूमिका वसंत काशीकर ने निभाई।
क्या है कहानी- मौसाजी एक अद्भुत चरित्र है, जो अपनी दुनिया में जीते हैं। वे एक गरीब बुजुर्ग ग्रामीण हैं, लेकिन उनके जीने का अंदाज़ निराला है। मौसाजी बात-बात में आज़ादी की लड़ाई में अपनी हिस्सेदारी के किस्से सुनाते रहते हैं। वो विपन्न हैं, परन्तु उनकी बातों से महसूस होता है कि वे सैकड़ों एकड़ ज़मीन के मालिक हैं। प्रत्येक किस्से के नायक वे स्वयं हैं। गांव वाले उनकी हालत व स्थिति को जानते-समझते हैं। मौसाजी ने अपना एक झूठा संसार रच लिया है। उनके हिसाब से महात्मा गांधी उनके दोस्त थे। वाइसराय जब-तब आ कर उनके चरण स्पर्श करते हैं। गांव वाले भी मौसाजी के किस्से व गप्पें मजे से सुनते और यह भ्रम बनाए रखते कि वे उनकी बातों को सच मानते हैं। मौसाजी के तीन पुत्र हैं, जो छोटे-मोटे काम कर गुजारा कर रहे हैं। पुत्र उनकी चिंता नहीं करते हैं, लेकिन मौसाजी हर समय उनका गुणगान करते रहते हैं। नाटक के अंत में मौसाजी के साथ एक घटना घटती है, जिससे कहानी अचानक मोड़ लेती है।
अभिनय व समग्र प्रस्तुति- लगभग सौ मिनट की अवधि का ‘मौसाजी जैहिन्द’ बुंदेलखंड की पृष्ठभूमि का नाटक है। इसके संवाद सरल व सहज बुंदेली में है, इसलिए दर्शकों को पूरे समय मज़ा देते हैं। मौसाजी व अन्य ग्रामीण परिवेश के चरित्रों एवं किस्सागोई शैली के कारण नाटक देखने में अंत तक रोचकता बनी रहती है। मौसाजी की भूमिका में वसंत काशीकर ने संवेदनशील अभिनय किया। वे मौसाजी के चरित्र को आत्मसात किए हुए हैं। उनके बुंदेली संवाद दर्शकों को नाटक से कनेक्ट कर देते हैं। नाटक में नमन मिश्रा की थानेदार के रूप में निभाई गई भूमिका अभिनय व भाव भंगिमा के कारण आकर्षित करती है। अन्य भूमिकाओं में आयुष राय, शोभा उरकड़े, निमिषा नामदेव, ब्रजेन्द्र सिंह, शुभम जैन, तरूण ठाकुर, आयुष राठौर, अर्पित तिवारी, संदीप धानुक, लोकेश यादव, अमन मिश्रा और हिमांशु पटैल न्याय करते हैुं और नाटक की गति को बढ़ाते हैं।
बैक स्टेज- मौसाजी जैहिन्द में अक्षय ठाकुर की प्रकाश परिकल्पना और निमिष माहेश्वरी का संगीत नाटक को प्रभावी बनाने में मदद करता है। मेकअप, कास्ट्यूम और सेट विषयवस्तु को समेटे हुए रहे। वैसे ही सेट की परिकल्पना रही। नाट्य प्रस्तुति में सुहैल वारसी, निमिष माहेश्वरी और ब्रजेन्द्र सिंह राजपूत का विशेष सहयोग रहा।
☆ मौसाजी के जन्नत की हकीकत ☆
सच हमेशा सुंदर नहीं होता। अक्सर यह क्रूर या डरावने भेस में सामने आता है। जब भी कोई सपना टूटता है, हमेशा यही सामने होता है। हिंस्र पशु की तरह। डराता-चिढ़ाता हुआ-सा। यह बहुत ईर्ष्यालु होता है और इससे किसी की थोड़ी-सी भी खुशी बरदाश्त नहीं होती!
मौसाजी सारे जगत के मौसाजी हैं। उनका यह सम्बोधन इतना लोकप्रिय है कि उनके अपने बेटे उन्हें मौसाजी कहते हैं। बेटे उनके साथ नहीं हैं। मंच पर भी नहीं। उनका बस जिक्र आता है। दो ठीक-ठाक हैं और तीसरा आवारा है। उसकी यही आवारगी मौसाजी द्वारा निर्मित उस किले को ध्वस्त कर देती है, जो भले ही छद्म है पर उनके जीने का सहारा है।
मौसाजी क़िस्सागो हैं। बड़बोले हैं। लम्बी-लम्बी हाँकते हैं। गाँधीजी उनके बड़े नजदीकी रहे। मुख्यमंत्री से वे फोन पर ही बतिया लेते हैं। डिस्ट्रिक्ट कलेक्टर उनके साथ शिकार पर जाता है और बेटे की शादी में इतने बराती आए कि कुँए में ही शर्बत घोलनी पड़ी। मौसाजी जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं। गाँव वाले भी जानते हैं कि वे झूठ बोल रहे हैं। जनगणना अधिकारी को भी पता है कि मौसाजी झूठ बोल रहे हैं और अब दर्शकों को भी मालूम पड़ गया है कि मौसाजी अव्वल नम्बर के झुठल्ले हैं। पर सबकी सहानुभूति मौसाजी के साथ है। यही इस कथा की खूबसूरती है।
जैसे सच हमेशा सुंदर नहीं होता, वैसे ही झूठ की शक्ल हमेशा खराब नहीं होती। कभी-कभी ये अपनी शक्लें आपस में बदल लेते हैं। एक बूढ़ा आदमी है। अकेला है। पत्नी को गुजरे दशकों बीत चुके हैं। बेटे साथ नहीं हैं। उसने अपने लिए एक सपनों की दुनिया बुन ली है, तो किसी का क्या जाता है? वह खुश हो लेता है और गाँव वाले मजे ले लेते हैं। बस इतनी-सी बात!
खतरनाक झूठ तो वह होता है जो आंकड़ों के रूप में सरकारी फाइल में दर्ज होता है। रोटियों के लिए तरस रहे इंसान की ‘कैलोरी इंटेक” बढ़ा-चढ़ाकर बताई जाती है। इंसान को गरीबी रेखा से ऊपर लाने के लिए रेखा को घसीटकर नीचे ले आया जाता है। यह उस लड़ाई के बाद और उसके बावजूद है, जिसका जिक्र मौसाजी बार-बार करते हैं। वे गाँधी के आखिरी आदमी से सूखी रोटी का एक टुकड़ा तक छीन लेना चाहते हैं। मौसाजी यह होने नहीं देते और उन्हें सचमुच ही जैहिन्द करने का मन करता है और थोड़े सर्द हो गए इस मौसम में उनके साथ चाय पीने का!
वसन्त काशीकर अभिनय और निर्देशन दोनों के लिए बधाई के पात्र हैं। वे सचमुच के मौसाजी लगते हैं। प्रस्तुति की डोर को कसकर थामे रहते हैं-कहीं कोई झोल नहीं। गाँव वालों के रूप में बाकी अभिनेताओं की संगत अच्छी है। सभी बेहद सहज लगते हैं, कोई बनावट नहीं। बुंदेली में होने के कारण नाटक की रंजकता और बढ़ जाती है। सबसे दिलचस्प दृश्यों में मौसाजी और ‘डुकरो’ के बीच होनी वाली नोंक-झोंक है। “वैष्णव जन तो तेने कहिए’ का एक टुकड़ा बेहद प्रभावशाली है। इसमें प्रयुक्त रोशनी भी। ‘अंधे अभिनेता’ का गला बड़ा सुरीला है।
मौसाजी दर्शकों को अपने साथ ‘कनेक्ट’ कर लेते हैं, इसलिए उनका अपमान दर्शकों को अपना अपमान लगता है। धक्का लगता है। काश की वह भरम बना रहता जो मौसाजी ने बड़े जतन से बनाया था! यह संवेदना और सह-अनुभूति ही नाटक का हासिल है।
मूल कथा : उदयप्रकाश
नाट्य रूपांतरण व निर्देशन : वसन्त काशीकर
मंडली : साझा रंगमंच
स्थान : शहीद स्मारक, जबलपुर
दिनांक : 16 जनवरी 20
आलेख एवं प्रस्तुति : श्री दिनेश चौधरी, जबलपुर