सफरनामा-नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व-5 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व-5

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

ऐतिहासिक तत्व दर्शन से भी नर्मदा को समझना उतना ही ज़रूरी है जितना भाव दृष्टि से है।

हिंदू दर्शन का काल निर्धारण इस तरह हुआ है कि सबसे पहले ईसा से दो हज़ार साल याने आज से चार हज़ार साल पहले चार वेदों की रचना पंजाब की पाँच नदियों व्यास सतलज झेलम रावी चिनाब और अफगानिस्तान की काबुल नदी लद्दाख़ से आती हुई सिन्ध में समाहित हो जाती हैं, उस क्षेत्र में हुई थी।

आज से तीन हज़ार पाँच सौ साल पहले वेदों के 108 उपनिषद गंगा और यमुना के मैदानी भू-भाग में रचे गए। वैदिक काल में कृषि और ऋषि, ये दो महान संस्थाएँ थीं। लोग कृषि से अवकाश पाकर ऋषि की कुटिया के पास बने चबूतरों के चारों तरफ़ पाल्थी मारकर हाथ जोड़कर बैठ जाते थे। उप+निष्ठत:=उपनिषद, जब प्रधान ऋषि गण बीच में मंच पर बैठ पर वेदों की गहनता और गूढ़ अर्थ पर चर्चा करते थे तब उनके शिष्य नीचे बैठ कर टिप्पणी या नोट लिख लिया करते थे वे ही बाद में संकलित होकर उपनिषद कहलाए। जहाँ वेदों का अंत वही हुआ वेदांत या उत्तर मीमांसा। जिसे विवेकानन्द ने शिकागो में दुनिया को बताया उसके पूर्व कृष्ण ने अर्जुन को सिखाया।

तब तक आर्य अफ़ग़ानिस्तान से बंगाल तक फैल चुके थे और द्रविड़ विंध्याचल पर्वत पार करके दक्षिण की तरफ़ हिंदमहासागर तक फैल गए। पुराणों में एक कहानी कई जगह आती है कि अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पर्वत को हिमालय से नीचा रखने के लिए यह कहकर दक्षिण गए थे कि उनके आने तक वह वैसा ही बना रहे। यह प्रतीकात्मक कहानी एक बड़े रहस्य का उद्घाटन करती है कि आर्यों ने अपने दर्शन को दक्षिण में पहुँचाने के लिए अगस्त्य ऋषि का सहारा लिया था। इस प्रकार एक समावेशी अखिल भारतीय संस्कृति का जन्म हुआ था।

जब अगस्त्य ऋषि विंध्याचल पार कर रहे थे तब कपिल, जमदग्नि, मार्कण्डेय और भृगु ऋषि विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत श्रेणियाँ के सम्पर्क में आए। अमरकण्टक में कपिलधारा नर्मदा परिक्रमा का एक प्रमुख बिंदु है जहाँ से नर्मदा पहाड़ी बियाँबान में प्रवेश करती है। तब तक गंगा और यमुना का मैदान वनस्पति और जंगलों से साफ़ किया जा चुका था। वहाँ हिमालय पर हाड़फोड़ ठंड और मैदानी भाग में भयानक गर्मी का आलम शुरू हो गया था। उन्होंने डिंडोरी और मंडला जिलों से नीचे आकर अपने आश्रम बनाए। जिसे हम ऋषि भृगु के नाम से पहले भृगुघाट और कालांतर में भेड़ाघाट के नाम से जानते हैं। भृगु ऋषि स्वयं नर्मदा की परिक्रमा करते रहते थे। आगे बरमान और होशंगाबाद के बीच भारकच्छ और भरूच में भृगु मंदिर है।

उस काल में पूर्व के पहाड़ों से नदी तक का भू-भाग बारहों महीने पानी से भरा रहता था। घने जंगलों से जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद और हरदा जिले की जलवायु वर्ष के बारह महीने नर्म रहती थी। इस कारण यहाँ की मृदा यानी मिट्टी भी नर्म होती थी। भृगु ऋषि अपने आश्रम के शिष्यों को “रमता जोगी बहता पानी” की सीख के तहत एक जगह स्थिर नहीं रखते थे। साधु को उसका नाम और स्थान का मोह त्यागना होता था। लिहाज़ा उन्हें चौमासा छोड़कर बाक़ी आठ माह वन विचरण ज़रूरी हो जाता था। विचरण के लिए पानी, फल-फूल भिक्षा और सुरक्षा की ज़रूरत भी नदी किनारे आसानी से पूरी हो जाती थी।

इस पूरे क्षेत्र में नम जलवायु के साथ नम मृदा याने नरम मिट्टी रहती थी जिस पर पैदल चला जा सकता था। इस प्रकार नर्म+मृदा = नर्मदा इस नदी का नाम उन ऋषियों मुनियों के वाचन में आ गया।

जब इस नदी के समुद्र मिलन तक की थाह मिल गई तो इसके उद्गम की तरफ़ साधुओं का कौतुहल जागा और वे चल पड़े उत्तर-पूर्व की तरफ़ और पहुँच गए अमरकण्टक। इस प्रकार नर्मदा की परिक्रमा और परिक्रमा पथ का निर्धारण एक-दो नहीं सौ-दो सौ सालों में हुआ था। जो कि अब तक जारी है। यह शुरुआत सनातन पुनर्जागरण याने गुप्त काल में हुई मानी जाती है। इसी नर्म मृदा के कारण सोहागपुर में उत्तम कोटि का पान होते हैं और सुराहियाँ बनाई जातीं हैं। पिपरिया से गाड़रवाडा तक की उत्तम स्वादिष्ट दालें और करेली का गुड प्रसिद्ध है।

नर्मदा 1312 किलोमीटर लम्बी है जाना और वापस आना 2624 किलोमीटर पैदल परिक्रमा पथ हैं। पहले तीन साल तीन महीने और तेरह दिन में यह दूरी तय की जाती थी। याने एक दिन में क़रीबन दो किलोमीटर। उस समय बियाबन जंगल होने से यात्रा कठिन थी। अब यह यात्रा चार से छः महीनों में पूरी की जा सकती है।

इस प्रकार इस नदी का नाम रेवा और नर्मदा पड़ा और परिक्रमा एवं परिक्रमा पथ की परम्परा विकसित हो गई। जो विश्व में अनूठी है।

सतपुड़ा से एक और नदी निकलती है जिसके बारे में बैतूल जिले से महादेव, चौरागढ़ और नाथद्वारा की जत्तरा करने आने वाले लोग बताया करते हैं। वह है ताप्ती नदी, जो कि मुल्ताई से उद्गमित होती है। इन जिलों में देवनागरी की मराठी भाषा का प्रभाव है। मराठी में बहन को ताई पुकारा जाता है। नदी माँ-बहन के समान है। उसका मूल+ताई = मुल्ताई हो गया है। असीरगढ़ के पास महाराष्ट्र के अकोला ज़िला की सीमा पर देवी का एक सर्व कामना मंदिर है। साथ में शिव मंदिर भी है। लोग मुल्ताई से जल लेकर उस मंदिर की भी पैदल यात्रा करते हैं।

नर्मदा और ताप्ती क्रमशः बुरहानपुर और हरदा के हंडिया से समानांतर अरब सागर तक जातीं हैं जैसे दो सहेलियाँ जल भर कर बतियातीं चली जा रहीं हो मस्त चाल से। इन दो नदियों के बीच दस किलोमीटर से चालीस किलोमीटर की चौड़ी ज़मीन तीन सौ किलोमीटर याने खम्बात की खाड़ी तक चली गई है। यहाँ बाँस के घने जंगल हैं। इसी कारण पास में नेपानगर में काग़ज़ का कारख़ाना लगा है। पानी की बहुलता के कारण इस क्षेत्र में केले की भरपूर फ़सल होती है जिसे पूरा उत्तर भारत खाता है।

(कल आपसे साझा करेंगे रेवा : नर्मदा से संबन्धित विशेष जानकारी )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)