सफरनामा-नर्मदा की असफल प्रेम कथा-4 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा की असफल प्रेम कथा-4 

 

 

 

 

 

आर्यों के साहित्य में यह चीज़ बार-बार मिलती है कि उन्होंने अनार्यों से वैवाहिक सम्बंध बनाकर अपने में मिला लिया। यही बात नर्मदा के प्रेम प्रसंग में भी दिखती है। लोक कथा में नर्मदा को रेवा नदी और शोणभद्र को सोनभद्र के नाम से जाना गया है। राजकुमारी नर्मदा राजा मेखल (महाकाल) की पुत्री थी। राजा मेखल ने अपनी अत्यंत रूपसी पुत्री के लिए यह तय किया कि जो राजकुमार गुलबकावली के दुर्लभ पुष्प उनकी पुत्री के लिए लाएगा वे अपनी पुत्री का विवाह उसी के साथ संपन्न करेंगे। पड़ौसी राज्य के राजकुमार सोनभद्र गुलबकावली के फूल ले आए अत: उनसे राजकुमारी नर्मदा का विवाह तय हुआ।

नर्मदा अब तक सोनभद्र के दर्शन ना कर सकी थी लेकिन उसके रूप, यौवन और पराक्रम की कथाएं सुनकर मन ही मन वह भी उसे चाहने लगी। विवाह होने में कुछ दिन शेष थे लेकिन नर्मदा से रहा ना गया उसने अपनी दासी जुहिला के हाथों प्रेम संदेश भेजने की सोची। जुहिला ने राजकुमारी से उसके वस्त्राभूषण मांगे और धारण करके चल पड़ी राजकुमार से मिलने। सोनभद्र के पास पहुंची तो राजकुमार सोनभद्र उसे ही नर्मदा समझने की भूल कर बैठा। जुहिला की नीयत में भी खोट आ गया। राजकुमार के प्रणय-निवेदन को वह ठुकरा ना सकी। इधर नर्मदा का सब्र का बांध टूटने लगा। दासी जुहिला के आने में देरी हुई तो वह स्वयं चल पड़ी सोनभद्र से मिलने।

वहां पहुंचने पर सोनभद्र और जुहिला को साथ देखकर वह अपमान की भीषण आग में जल उठीं। तुरंत वहां से उल्टी दिशा में चल पड़ी फिर कभी ना लौटने के लिए। सोनभद्र अपनी गलती पर पछताता रहा लेकिन स्वाभिमान और विद्रोह की प्रतीक बनी नर्मदा पलट कर नहीं आई।

जैसिंहनगर के ग्राम बरहा के निकट जुहिला (इस नदी को दुषित नदी माना जाता है, पवित्र नदियों में इसे शामिल नहीं किया जाता) का सोनभद्र नद से वाम-पार्श्व में दशरथ घाट पर संगम होता है और कथा में रूठी राजकुमारी नर्मदा कुंवारी और अकेली उल्टी दिशा में बहती दिखाई देती है। रानी और दासी के राजवस्त्र बदलने की कथा इलाहाबाद के कारा क्षेत्र में आज भी प्रचलित है।

यह कथा भी आर्य शोनभद्र-नर्मदा और अनार्य जुहिला के प्रेम त्रिकोण पर रच कर पुराणों में रख दी गई है। जुहिला नदी मंडला के सघन आदिवासी इलाक़ों से निकलती है जबकि नर्मदा और शोनभद्र अमरकण्टक से निकलती हैं जहाँ कि आर्यों के ऋषि मुनियों ने आश्रम बना लिए थे।

नर्मदा की कथा जनमानस में कई रूपों में प्रचलित है लेकिन चिरकुवांरी नर्मदा का सात्विक सौन्दर्य, चारित्रिक तेज और भावनात्मक उफान नर्मदा परिक्रमा के दौरान हर संवेदनशील मन महसूस करता है। कहने को वह नदी रूप में है लेकिन चाहे-अनचाहे भक्त-गण उनका मानवीयकरण कर ही लेते है। पौराणिक कथा और यथार्थ के भौगोलिक सत्य का सुंदर सम्मिलन उनकी इस भावना को बल प्रदान करता है। नर्मदा सा स्वाभिमान और स्वच्छता नर्मदा अंचल के निवासियों के जीवन में भी झलकता है।

इस पौराणिक कहानी का भौगोलिक-एतिहासिक संदर्भ है। हमने नदियों को व्यक्तित्व में गढ़ दिया है। नर्मदा अमरकण्टक से निकलकर दक्षिण-पूर्व दिशा की ओर चलती है वहीं सोन भी वहीं से निकलकर उत्तर-पूर्व की तरफ़ चल पड़ती है। जुहिला नदी भी उद्गम से निकलकर थोड़ा दक्षिण-पूर्व की तरफ़ नर्मदा की ओर बढ़ती है लेकिन कबीर चौड़ा पहाड़ रास्ते में आ जाने से वह सोन की तरफ़ उत्तर-पूर्व की तरफ़ मुड़ जाती है। यही कहानी का आधार बन गया।

सोन नदी विंध्याचल और कैमोर पर्वत मालाओं के बीच से सीधी जिले से होकर अम्बिकापुर के पीछे से झारखंड होते हुए बिहार निकल जाती है। वह सासाराम होते हुए पटना के नज़दीक गंगा में मिल जाती है।

 

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा का ऐतिहासिक महत्व)

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)