सफरनामा-नर्मदा परिक्रमा-3 – श्री सुरेश पटवा
श्री सुरेश पटवा
प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से
(इस श्रंखला में अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )
नर्मदा परिक्रमा 3
तिलवारा घाट से भेड़ाघाट
15 तारीख़ को हम तिलवारा घाट से चलने को तैयार हुए तो पता चला कि पुल के किनारे से एक नाला गारद और कंपे से भरा होने के कारण दलदली हो गया है लिहाज़ा एक किलोमीटर ऊपर से नए घूँसोर, लमहेंटा,चरगवा, धरती कछार से एक रोड शाहपुरा निकल गई है। लम्हेंटा घाट पर शनि मंदिर से लगा ब्रह्म कुंड देखा। ऐसी मान्यता है कि जब कोई कोढ़ी मर जाता है तो उसके शव को ब्रह्मकुंड में सिरा देते हैं। वह सीधा पाताल लोक पहुँच जाता है।
शाम को चार बजे धुआँधार पहुँच गए। डूंडवारा से पसर कर बहने वाली नर्मदा अचानक लजा कर सिमट गई। उसका पानी सिमट कर गहरे खड्ड में तेज़ी से गिरने लगा तो वह छोटे कणों में बदलकर धुएँ की शक्ल में दिखने लग गया। यही जबलपुर की शान धुआँधार जलप्रपात है। अचानक यादों के फ़्लैश बैक में 1987 का चित्र घूम गया, जब सुरेश पटवा स्टेट बैंक भेड़ाघाट में शाखा प्रबंधक हुआ करते थे। दो साहूकार सुनील जैन और ब्रजकिशोर मूर्तियों के कुशल कारीगरों और नाविकों को दो-तीन रुपया प्रतिमाह सूद पर क़र्ज़ दिया करते थे याने 24-36 प्रतिशत वार्षिक का ब्याज वसूलते थे। जिसके लिए उन्होंने बैंक से लिमिट ले रखी थी। कारीगर और नाविक न तो बैंक से क़र्ज़ लेते थे न बैंक में रक़म जमा करते थे। बैंक का बट्टा बैठ रहा था।
वे दोनों अपनी लिमिट बढ़वाने बैंक आए तो उनसे पुरानी लिमिट का खाता बंद करके बढ़ी हुई लिमिट का नया खाता फ़र्म के नाम से खुलवाने को कहा गया। उन्होंने कारीगरों और नाविकों से रक़म वसूल कर खाते बंद कर दिए। उनके बढ़ी लिमिट के प्रस्ताव जबलपुर क्षेत्रीय कार्यालय भेज दिए गए। इस बीच 200 नाविकों और कारीगरों को दस-दस हज़ार के क़र्ज़ बाँटकर उनके बचत खाते भी खोल दिए गए। वे शोषण मुक्त हुए और बैंक लाभ कमाने लगा। दोनों साहूकारों को नई लिमिट दी और उनको मूर्तियों का स्टॉक रखने को ज़रूरी बताया। उन्होंने कारीगरों से मूर्तियाँ ख़रीदना शुरू कर दिया। इस प्रकार बैंक स्थानीय वित्तीय कारोबार का मध्यस्थ बन गया।
भेड़ाघाट संगमरमर की मूर्तियों और कलाकारी के लिए मशहूर है। संगमरमर या सिर्फ मरमर (फारसी) संग-पत्थर, ए-का, मर्मर-मुलायम = मुलायम पत्थर।
यह एक कायांतरित शैल है, जो कि चूना पत्थर के कायांतरण का परिणाम है। यह अधिकतर कैलसाइट का बना होता है, जो कि कैल्शियम कार्बोनेट (CaCO3) का स्फटिकीय रूप है। यह शिल्पकला के लिये निर्माण अवयव हेतु प्रयुक्त होता है। इसका नाम फारसी से निकला है, जिसका अर्थ है मुलायम चिकना पत्थर।
संगमरमर एक कायांतरित चट्टान है जिसका निर्माण अवसादी कार्बोनेट चट्टानों के क्षरण और कभी-कभी संपर्क कायांतरण के फलस्वरूप होता है। यह अवसादी कार्बोनेट चट्टानें चूना पत्थर या डोलोस्टोन, या फिर पुराना संगमरमर हो सकती है। कायांतरण की इस प्रक्रिया के दौरान मूल चट्टान का पुनर्क्रिस्टलीकरण होता है। अवसादी निक्षेपों से संगमरमर बनने की इस प्रक्रिया में उच्च तापमान और दबाव के चलते मूल चट्टान मे उपस्थित किसी भी प्रकार के जीवाश्मिक अवशेष और चट्टान की मूल बनावट नष्ट हो जाती है। ये चट्टानें डूंडवारा से बगरई तक नर्मदा के आग़ोश में फैली हुई हैं। नर्मदा पहले धुआँधार के खड्ड में न गिरकर उसके दाहिनी तरफ़ से सीधे सरस्वती घाट पहुँचती थी। हज़ारों सालों से नर्मदा चट्टानों को काटती रही तब कहीं जाकर संगमरमर का स्वप्नलोक उजागर हुआ। जिसकी बन्दरकूदनी में राजकपूर ने नाव पर “चंदा एक बार जो उधर मुँह फेरे मैं तुझसे प्यार कर लूँगी, आँखें दो चार कर लूँगी” गीत को सेल्यूलाईड पर नर्गिस के साथ रचकर बॉलीवुड का इतिहास रच दिया। अब लाखों लोग उस सौंदर्य लोक को निहारने वहाँ जाते हैं।
बगरई कारीगरों का गाँव है। वहाँ कारीगरों के 250-300 गाँव हैं। चारों तरफ़ संगमरमर पत्थर की खदानें हैं। दस हज़ार रुपयों में एक ट्रॉली ख़रीद कर कटर, छेनी, वसूली और दांतेदार रगड़ से पत्थर को मूर्तियों की शक्ल में ढाल देते हैं। अधिकांश कारीगरों ने बैंकों से क़र्ज़ लिए थे वे सब ख़राब हो गए, उनका रिकार्ड बिगड़ने से उनको क़र्ज़ मिलना बंद हो गया। अब निजी माइक्रो फ़ाइनैन्स कम्पनी उन्हें 24% वार्षिक दर से क़र्ज़ उनके घर पर देते हैं और घर से ही वसूली करते हैं। बगरई गाँव में एक बसोड के घर रुक कर पानी पिया। अरुण दनायक जी ने उनसे लम्बी बातचीत की, उनके फ़ोटो उतारे। आगे रामघाट की तरफ़ चल दिए। तब पता नहीं था कि हमें बिजना घाट तक का सफ़र तय करना होगा।
पंचवटी तट स्थित नेपाली कोठी, जहाँ हमारे ठहरने की व्यवस्था मेरे अरुण जी के सुधीर भाई ने की थी, वहीं रात्रि विश्राम किया। यहाँ से हमारे एक अन्य साथी अविनाश दवे भी बिछुड गये।
क्रमशः …..
© श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)