श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की कलम से

(इस श्रंखला में  अब तक आपने पढ़ा श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  रहे होंगे। प्रस्तुत है उनकी  यात्रा के अनुभव उनकी ही कलम से उनकी ही शैली में। )  

नर्मदा परिक्रमा 4
भेड़ाघाट से बिजना घाट
भेड़ाघाट से बिजना घाट की यात्रा सबसे लम्बी थकाऊ और उबाऊ थी। पहले हमने तय किया था कि रामघाट में रुककर रात गुज़ारेंगे। मंगल सिंह परिहार जी वहाँ से चार किलोमीटर आगे रास्ता देख रहे थे। सुबह से कुछ भी नहीं खाया था। खजूर मूँगफली दाने और चने व पानी के दम पर खींचे जा रहे थे। चार घण्टे चल चुके थे। दोपहर में तेज़ धूप में चलने से शरीर का ग्लूकोस जल जाता है और हवा में ऑक्सिजन भी कम हो जाती है। मांसपेशियाँ जल्दी थकने लगतीं हैं और साँस फूलने लगती है। दो बजे के बाद सूर्य की रोशनी सामने से परेशान करने लगती है। ऐसे माहौल में नदी किनारे रास्ता भी  नहीं था। बर्मन लोगों ने नदी के कछार को हल चलाकर मिट्टी के बड़े-बड़े ढेले में बदल दिया था। खाने पीने का कोई ठिकाना नहीं था। साथियों को बाटी-भर्ता का लालच देकर खींचे जा रहे थे, जबकि भोजन का कहीं कोई ठिकाना नहीं था। उधर दनायक जी को परिहार जी मोबाइल से जल्दी आने की कह रहे थे। सब थक कर चूर थे। ऐसे में दल को खींच कर आगे ले जाना ज़रूरी था।
15 अक्टूबर को मंगल सिंह परिहार के आश्रम नुमा फ़ार्म हाऊस में विश्राम का अवसर मिला। वे एक बहुत पुराने परिचित सहकर्मी रहे हैं। उन्होंने दिन के ग्यारह बजे से, जब हम भेड़ाघाट से चले ही थे,  तब से बिजना गाँव से नर्मदा पार करके मुरकटिया  घाट आकर मोबाईल से सम्पर्क साध कर हमारी स्थिति लेना शुरू कर दिया। वे हर आधा घंटे में दनायक जी को मोबाईल से सम्पर्क साध कर स्थिति पूछते जा रहे थे। कभी मोबाईल लगता था और कभी नहीं लगता था।
हम लोग रामघाट से सड़क छोड़ नर्मदा किनारे आ गए वहाँ से अत्यंत दुरुह यात्रा शुरू हुई। छोटी नदी, नाले, झरने, सघन हरियाली और ताज़े गोंडे गए खेतों की मिट्टी के बड़े-बड़े ढेलों के बीच से घुटनों और ऐडियों की परीक्षा का समय था क्योंकि कहीं भी समतल ज़मीन नहीं थी। आगे छोटी पहाड़ियों का जमघट एक के बाद एक घाटियाँ का सिलसिला जिनको स्थानीय बोली में ड़ांगर कहते हैं। चम्बल में जैसे बीहड़ होते हैं जिनमे कँटीले पेड़-पौधे होते हैं वैसे नर्मदा के आजु-बाजु ड़ांगर का साम्राज्य है उनके बीच से पानी झिर कर जंगली नालों को आकार देते हैं।  उनको पार करने के लिए ऊपर चढ़ाई चढ़ना फिर उतरना फिर चढ़ना। यात्रियों का दम निकलने लगता है। पसीने से तरबतर शरीर में पूरी साँस धौंकनी के साथ भरकर पहाड़ियों को पार करने के बीच में नर्मदा दर्शन से हिम्मत बनती टूटती रहती है।
चार बजे कुछ हाल-बेहाल और कुछ निढ़ाल-पस्त हालत में बिजना घाट के सामने वाले मरकूटिया घाट पर मंगल सिंघ परमार बिस्कुट और केले फल के साथ स्वागत आतुर मिले। वहाँ उनकी सिकमी ज़मीन थी। उसी पर खड़े थे। बैठने को कोई छायादार जगह नहीं थी। यात्री बिस्कुट और केलों को क्षणभर में चट कर गए। नाव से नर्मदा पार करके दूसरी पार उतरे वहाँ एक बर्मन दादा पूड़ी और खीर का भंडारा करा रहे थे। यात्रियों ने भंडारा खाया। ख़ूब पानी पिया तो कुम्लाए चेहरों की रंगत और ढीले शरीरों में जान लौटने लगी।
मंगल सिंह  परिहार ने प्राकृतिक छटाओं में बसा अपना आश्रम दिखाया। जिसमें पारिजात और रुद्राक्ष के वृक्ष लगे हैं। सूर्यास्त का दृश्य अत्यंत सुंदर नज़र आता है। उन्होंने बताया कि उनके पूर्वज नागौद रियासत के राजा रहे हैं। परमार, परिहार, बुंदेले और बघेल ये सब गहडवाल राजपूत हैं। परमारों ने महोबा, परिहारों ने नागौद, बुन्देलों ने छतरपुर और बघेलों ने रीवा रियासत स्थापित की थी। ये सब पहले अजमेर के पृथ्वीराज़ चौहान या कन्नौज के जयचंद राज्यों के सरदार थे। 1091-92 में मुहम्मद गोरी के हाथों अजमेर, दिल्ली और कन्नौज हारने के बाद इन्होंने इन राज्यों को स्थापित किया था। नागौद कभी स्वतंत्र राज्य और कभी रीवा के बघेलों का करद राज्य हुआ करता था। उसके उत्तर-पश्चिम में केन नदी का अत्यंत ऊपजाऊ कछारी भाग था लेकिन दक्षिण-पूर्व में पथरीली ज़मीन थी। अतः राजपूतों ने नर्मदा के कछारी मे बसने का निर्णय लिया था।
अंग्रेज़ों ने 1861 में जबलपुर को राजधानी बनाकर सेंट्रल प्रोविंस राज्य बनाया तो रीवा, ग्वालियर, इंदौर, भोपाल रियासत छोड़कर मध्य प्रांत के नागौद  सहित बाक़ी सब इलाक़े उसमें रख दिए। तब ही नर्मदा घाटी का सर्वे करके जबलपुर की सीमा नर्मदा के उत्तर-दक्षिण में चरगवाँ-बरगी तक निर्धारित कर दी। परिहारों को ज़मींदारी में मगरमुहां का इलाक़ा दिया गया। कई परिहार सौ-सौ एकड़ के ज़मींदार बनकर आज के पाटन और शाहपुरा इलाक़े में आ बसे। उनमें मंगल सिंह परिहार के पूर्वज भी थे। मंगल सिंह के पिताजी मुल्लुसिंह परमार निरक्षर थे परंतु उन्होंने अपने आठ बेटों को पोस्ट-ग्रेजुएट कराया।
मंगल सिंह जी से देर रात तक बातें होतीं रहीं। वे हमें एक वेदान्ती साधु के दरबार में ले गए। हमसे कहा कि साधु जी वेदों के प्रकांड विद्वान हैं। आप उनसे गूढ़ प्रश्न कीजिए तब उनकी ज्ञान गंगा बहने लगेगी। हम लोग उनके दरबार मे पहुँचे पाँव-ज़ुहार होने के बाद बातचीत चली तो मौक़ा देखकर हमने एक सवाल का तीर चलाया कि हमारी जानने कि इच्छा है कि महाराज रुद्र और शिव का अंतर बताएँ तो बड़ी कृपा होगी। स्वामी जी ने थोड़ा इधर-उधर घुमाया। फिर विनम्रतापूर्वक स्वीकार किया कि प्रश्न गूढ़ है और उनका ज्ञान वेदों तक ही सीमित है उन्होंने पुराण नहीं पढ़े हैं। वे नेपाल से नर्मदा की गोद में आकर बस गए हैं। नर्मदा परिक्रमा कर चुके हैं। वापस आकर परिहार जी ने शिमला मिर्च की साग-रोटी और दाल-चावल का बढ़िया भोजन कराया। उसके बाद बातों का सिलसिला चल पड़ा। परिहार जी की बातें सुनते रहे। उनकी बातों के क्रम को बीच में बोलकर तोड़ना उनके रुतबे को कम करने जैसा होता है यह बात हम जानते थे परंतु अन्य लोगों को नहीं पता था। एक सहयात्री ने टोकने की कोशिश की तो  हमने उसे चुपके से समझा दिया कि भैया:-
बंभना जाय खाय पीय से
   क्षत्री जाय बतियाय
       लाला जाय लेय-देय से
           शूद्र जाय लतियाय।
इस बुंदेलखंड की कहावत को गाँठ बाँध लो और चुपचाप सुनो। सुबह दो-दो रोटियाँ तोड़कर आश्रम से फिर नर्मदा की गोद मे पहुँच गए। इस प्रकार 13,14 और 15 अक्टूबर की यात्रा पूरी हुई। यहाँ से हमारे एक और साथी प्रयास जोशी ने हमसे विदा ली।

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)

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