सफरनामा-नर्मदा घाटी का ऐतिहासिक महत्व-3 – श्री सुरेश पटवा

नर्मदा घाटी का ऐतिहासिक महत्व – 3 

 

 

 

 

 

प्रस्तुत है सफरनामा – श्री सुरेश पटवा जी की खोजी कलम से

(इस श्रंखला में आप पाएंगे श्री पटवा जी की ही शैली में पवित्र नदी नर्मदा जी से जुड़ी हुई अनेक प्राकृतिक, ऐतिहासिक और पौराणिक रोचक जानकारियाँ जिनसे आप संभवतः अनभिज्ञ  हैं।)

सनातनी हिंदुओं के लिए नर्मदा नदी का धार्मिक महत्व है क्योंकि परम्परा में जल को देवता और नदियों को देवियाँ मानकर पूजा जाता रहा है। प्रकृति और पंचभूत अन्योनाश्रित हैं। प्रकृति है तो पंचभूत हैं और पंचभूत हैं तो प्रकृति है। पृथ्वी, अग्नि, जल, वायु और आकाश हमारे आभासी ब्रह्माण्ड में हैं और मानव देह समस्त ब्रह्माण्ड को अपने भीतर समेटे हुए है इसलिए प्रथम कृति नियंता की प्र+कृति है। इसी में से आना है और इसी में समा जाना है। हिंदू मान्यता के अनुसार पुरुष का एक अंश आत्मा रूप में प्रकृति में जीव की संरचना करता है तब जीव जगत अस्तित्व में आता है।

प्रकृति के अंगों का अध्ययन प्राकृतिक भूगोल कहलाता है। भूगोल मनुष्य के खान-पान रहन-सहन सोच-विचार से संस्कृति का निर्माण करता है जैसे यूरोप में ईसाई संस्कृति, अरब में मुस्लिम संस्कृति, चीन-जापान में बौद्ध संस्कृति और भारत में हिंदू संस्कृति। संस्कृति के निर्माण के कई दौर चलते है उनमें आध्यात्म और राजनीति के घोर संघर्ष होते हैं। उन संघर्षों को हम इतिहास कहने लगे। इस प्रकार हम आज जो भी कुछ हैं अपने भूगोल और इतिहास की उपज हैं। हमारे पितरों में हमारा भूगोल और इतिहास अविच्छिन्न रूप से समाहित था इसलिए पितरों को पूज कर हम अपनी परम्परा को सम्मान देते हैं।

इसी सांस्कृतिक संदर्भ में जब हम नर्मदा घाटी का इतिहास देखते हैं तो विस्मयकारी जानकारी हमारे हाथ लगती है। करोड़ों साल पहले जब पृथ्वी सूर्य से आग के गोले के रुप में छिटक कर ठंडी होने लगी तब ऊपर की परत ठंडी होकर कड़क ज़मीन में बदल गई परंतु अंदर गहराई में गर्म लावा धधकता रहा। वह लावा कई जगहों से ऊपर आया, जिस कारण से पृथ्वी पर पर्वतों का निर्माण हुआ था। ऐसी ही प्रक्रिया में हिमालय, विंध्याचल और सतपुड़ा पर्वत अस्तित्व में आए। हिमालय से सात बड़ी नदियाँ काबुल, सिंध, रावी, चिनाब, झेलम, सतलज और व्यास पश्चिम की तरफ़ दौड़ चलीं और गंगा व यमुना पूर्व की तरफ़ चल पड़ीं थीं। बीच में असंख्य झरने, श्रोते और छोटी नदियाँ ने उनमें मिलकर पंजाब और दोआब का सबसे उपजाऊ इलाक़ा बना दिया। यहीं भारतीय संस्कृति का अभ्युदय और विकास हुआ।

अमरकण्टक के पठार से कैमोर से आता विंध्याचल पश्चिम की तरफ़ मुंड गया जो शहडोल उमरिया कटनी के किनारे से होता हुआ दमोह जिले को छूकर सागर रायसेन सीहोर देवास इंदौर झाबुआ से गुजरात में निकल गया। दूसरी तरफ़ सतपुड़ा पर्वत माला डिंडोरी मंडला जबलपुर नरसिंघपुर होशंगाबाद हरदा खंडवा खरगोन होते हुए महाराष्ट्र निकल गई। इन दो पर्वत शृंखलाओं के बीच एक 1400 किलोमीटर लम्बी घाटी बन गई। जिसमें विंध्याचल-सतपुड़ा दोनों से चालीस बड़ी और असंख्य छोटी नदियों और झरनो से नर्मदा घाटी का निर्माण किया।

इस नर्मदा घाटी में सरीसृप के फ़ॉसिल्ज़ और आदिमानव की गुफाएँ मिलीं हैं। जिसका मतलब है कि आदिमानव के साथ ड़ायनासोर जैसे सरीसृप रहा करते थे। जब आर्य आए तो वे अफ़ग़ानिस्तान से घुसकर पंजाब से सीधे गंगा-यमुना के दोआब में बसते चले गए। नर्मदा घाटी सघन वन आच्छिदित थी। दोनों पर्वतों के बीच से चुपचाप बहती रही। जिसमें आदिवासी जंगली जानवरों के साथ रहते रहे। आर्य-द्रविड़ संग्राम के दौरान भी द्रविड़ नर्मदा घाटी के आजु-बाजु से दक्षिण की तरफ़ खिसक लिए। राम भी जब गोदावरी के तट पर आज के नासिक पहुँचे तो वे भी कौशल से आज के छत्तीसगढ़ होते हुए गए थे। कृष्ण भी मथुरा से टीकमगढ़ अशोकनगर उज्जैन से सीधे द्वारका चले गए थे। इस प्रकार नर्मदा घाटी में आदिवासियों का एकक्षत्र राज्य रहा आया। महाभारत काल में कई राक्षस राजाओं ने नर्मदा घाटी से आकर महायुद्ध में दोनों पक्षों की तरफ़ से भाग लिया था। लेकिन नर्मदा घाटी में तब तक कोई बड़ी बसावट नहीं हुई थी।

पुराणों में आर्य-अनार्य संघर्षों के प्रमाण मिलते हैं। जब आर्य भारत के मैदानी क्षेत्रों में आए तब अनार्य उत्तर से दक्षिण की तरफ़ खिसकना शुरू हुए थे। उन्हें अपनी आदिम संस्कृति पसंद थी। जिसे वे छोड़ना नहीं चाहते थे। आर्य उन्हें परिष्कृत करके अपने जैसा बनाना चाहते थे।

बहुत से अनार्य उन जैसे बन कर उनमें घुलमिल गए लेकिन कुछ लोगों ने तय किया कि वे अपनी संस्कृति की रक्षा करेंगे। आर्यों ने उन्हें राक्षस कह कर सम्बोधित किया। राक्षसों में मानव बलि और नरमांस सेवन आम बात थी। भीम ने जब हिडिंबा से शादी करके घटोत्कच पैदा किया था तब बाक़ी चार पांडव कुंती के साथ पेड़ों पर घर बनाकर रात गुज़ारते थे। भीम ने उनकी राक्षसों से रक्षा हेतु सुरक्षित व्यवस्था कर रखी थी।

जैसे-जैसे आर्य मैदानी हिस्सों में अपने राज्य स्थापित करते चले गए वैसे-वैसे आदिवासी विंध्याचल-सतपुड़ा पर्वतों में आवासित होते गए। शिवपुराण में एक बांणासुर राक्षस का ज़िक्र आता है वह शोणितपुर को राजधानी बनाकर इन पहाड़ों में रहता था। जिसकी पुत्री का प्रेम प्रसंग कृष्ण के पुत्र से हो गया था तब कृष्ण ने उसका वध करके अपने पुत्र को वहाँ का शासक नियुक्त किया था। इस प्रकार आर्य धीरे-धीरे इन पहाड़ों में प्रवेश करते रहे थे।

दसवीं से बारहवीं सदी के बीच महमूद गजनवी और मुहम्मद गौरी के आक्रमण के बाद उत्तर भारत और पश्चिमी भारत से हिंदुओं का पलायन हुआ तब उन्होंने इन पहाड़ों के बीच में नर्मदा घाटी में शरण लेना शुरू किया। यह दौर कई सौ सालों तक चला।

उत्तर से लोधी, रघुवंशी, पश्चिम से गूज़र, कन्नौज से ब्राह्मण, उत्तर से ही बनिया और उनके साथ तेली, लोहार, चमार, बसोड और अन्य जातियाँ नर्मदा के किनारे आकर बसने लगी थीं। तभी से नर्मदा घाटी आबाद होने लगी थी।

(कल आपसे साझा करेंगे नर्मदा की असफल प्रेम कथा। )

क्रमशः …..

© श्री सुरेश पटवा

(श्री सुरेश पटवा, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं।)