हिन्दी साहित्य- कविता -मैं काली नहीं हूँ माँ! – सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा
नीलम सक्सेना चंद्रा
मैं काली नहीं हूँ माँ!
माँ,
सुना है माँ,
कल किसी ने एक बार फ़िर
यह कहकर मुझसे रिश्ता ठुकरा दिया
कि मैं काली हूँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
कल जब मैं
बाज़ार जा रही थी,
चौक पर जो मवाली खड़े रहते हैं,
उन्होंने मुझे देखकर सीटी बजाई थी
और बहुत कुछ गन्दा-गन्दा बोला था,
जिसे मैंने हरदम की तरह नज़रंदाज़ कर दिया था;
काले तो वो लोग हैं माँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
उस दिन जब मेरे बॉस ने
चश्मे के नीचे से घूरकर कहा था,
प्रमोशन के लिए
और कुछ भी करना होता है,
मैं तो डर ही गयी थी माँ!
काला तो वो मेरा बॉस था माँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
अभी कल टेलीविज़न पर ख़बर सुनी,
एक औरत के साथ कुकर्म कर
उसे जला दिया गया!
माँ, यह कैसा न्याय है माँ?
काले तो वो लोग थे माँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
यह कैसा देश है माँ
जहाँ बुरे काम करने से कुछ नहीं होता
और चमड़ी के रंग पर
लड़की को काली कहा जाता है?
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
माँ, मैं काली नहीं हूँ माँ!
© नीलम सक्सेना चंद्रा
(सुश्री नीलम सक्सेना चंद्रा सुप्रसिद्ध हिन्दी एवं अङ्ग्रेज़ी की साहित्यकार हैं। आपकी प्रिय विधा कवितायें हैं। वर्तमान में आप जनरल मैनेजर (विद्युत) पद पर पुणे मेट्रो में कार्यरत हैं।)