श्री सुरेश पटवा
(श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। श्री सुरेश पटवा जी ‘आतिश’ उपनाम से गज़लें भी लिखते हैं।आज प्रस्तुत है अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस पर विशेष “महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता – सिमोन द बुआ”।)
अंतरराष्ट्रीय महिला दिवस विशेष – महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता – सिमोन द बुआ ☆ श्री सुरेश पटवा
(अग्रज श्री सुरेश पटवा Suresh Patwa की पुस्तक “स्त्री-पुरुष” से )
दुनिया में महिला स्वतंत्रता आंदोलन की प्रणेता एक महिला दार्शनिक सिमोन को माना जाता है। सिमोन द बुआ (फ़्रांसीसी: Simone de Beauvoir) (जन्म: 9 जनवरी 1908 – मृत्यु : 14 अप्रैल 1986) एक फ़्रांसीसी लेखिका और दार्शनिक थीं। स्त्री उपेक्षिता (फ़्रांसीसी:Le Deuxième Sexe, जून 1949) अंग्रेज़ी में “Second Sex” जैसी महत्वपूर्ण पुस्तक लिखने वाली सिमोन का जन्म पैरिस में हुआ था। लड़कियों के लिए बने कैथलिक विद्यालय में उनकी आरंभिक शिक्षा हुई। उनका कहना था की स्त्री पैदा नहीं होती, उसे बनाया जाता है। समाज ने उसे गढ़ने का सामान चर्च, मंदिर और मस्जिद के रीति रिवाज के रूप मे तैयार कर रखा है।
सिमोन का मानना था कि स्त्रियोचित गुण दरअसल समाज व परिवार द्वारा लड़की में भरे जाते हैं, जबकि वह भी वैसे ही जन्म लेती है जैसे कि पुरुष और उसमें भी वे सभी क्षमताएं, इच्छाएं, गुण होते हैं जो कि किसी लड़के में हो सकते हैं। सिमोन का बचपन सुखपूर्वक बीता, लेकिन बाद के वर्षो में उन्होंने अभावग्रस्त जीवन भी जिया। 15 वर्ष की आयु में सिमोन ने निर्णय ले लिया था कि वह एक लेखिका बनेंगी। उनके क्रांतिकारी लेखन ने यूरोप अमेरिका में स्त्री स्वतंत्रता आंदोलन की दिशा बदल कर रख दी। दुनिया की संसद और सरकारों में महिला की आज़ादी के नए विचार उनकी किताब से छन कर आने और सत्ता के गलियारों में छाने लगे।
दर्शनशास्त्र, राजनीति और सामाजिक मुद्दे उनके पसंदीदा विषय थे। दर्शन की पढ़ाई करने के लिए उन्होंने पैरिस विश्वविद्यालय में प्रवेश लिया, जहां उनकी भेंट बुद्धिजीवी ज्यां पॉल सार्त्र से हुई। बाद में यह बौद्धिक संबंध आजीवन चला। डा. प्रभा खेतान द्वारा उनकी किताब “द सेकंड सेक्स” का हिंदी अनुवाद “स्त्री उपेक्षिता” भी बहुत लोकप्रिय हुआ। 1970 में फ्रांस के स्त्री मुक्ति आंदोलन में सिमोन ने भागीदारी की। स्त्री-अधिकारों सहित तमाम सामाजिक-राजनीतिक मुद्दों पर सिमोन की भागीदारी समय-समय पर होती रही। 1973 का समय उनके लिए परेशानियों भरा था। सार्त्र दृष्टिहीन हो गए थे। 1980 में सार्त्र का देहांत हो गया। 1985-86 में सिमोन का स्वास्थ्य भी बहुत गिर गया था। निमोनिया या फिर पल्मोनरी एडोमा में खराबी के चलते उनका देहांत हो गया। सार्त्र की कब्र के बगल में ही उन्हें भी दफनाया गया। दोनों विवाह के बिना साथ रहे वे दुनिया के पहले सहनिवासी (living together) जोड़े थे जिनके उदाहरण हमारे महानगरों मे हम अब देख रहे हैं।
सार्त्र ऐसे महान दार्शनिक थे कि जिन्हें उनके महान दार्शनिक सिद्धांत अस्तित्ववाद के लिए नोबल पुरस्कार दिया गया था जिसे लेने से उन्होंने यह कहकर मना कर दिया था कि वे अपने व्यक्तित्व का संस्थाकरण नहीं करना चाहेंगे। तब नोबल समिति ने कहा था कि लोग यह पुरस्कार लेकर सम्मानित होते हैं परंतु वे यदि पुरस्कार ले लेते तो नोबल पुरस्कार पुरस्कृत होता।
द सेकेंड सेक्स (The Second Sex) सिमोन द बुआ द्वारा फ्रेंच में लिखी गई पुस्तक है जिसने स्त्री संबंधी धारणाओं और विमर्शों को गहरे तौर पर प्रभावित किया है। स्त्री समानता विचारधारा वाली सिमोन की यह पुस्तक नारी अस्तित्ववाद को प्रभावी तरीके से प्रस्तुत करती है। यह स्थापित करती है कि जो स्त्री जन्म लेती है उसका मौलिक रूप विकसित न होने देकर, उम्र बढ़ने के साथ भोग के लिए बनाई जाती है। उसके दिमाग़ को नैसर्गिक रूप से गढ़ते रहने के बजाय वह कई अवधारणा में बाँध दी जाती है। लड़की एक अनचाहे भ्रूण की तरह गर्भ में पलती है। उनकी यह व्याख्या हीगेल के सोच को ध्यान में रखकर स्वयं (self) से अलग “दूसरा” (the Other) की संकल्पना प्रदान करती है। जो बच्ची पैदा हुई वह “पहला” है उसके बाद उसे संस्कारों के नाम पर ज़ंजीरों में बांधा जाना “दूसरा” है।
उनकी इस संकल्पना के अनुसार, नारी को उसके जीवन में उसकी पसंद-नापसंद के अनुसार रहना और काम करने का हक़ होना चाहिए और वो पुरुष से समाज में आगे बढ़ सकती है। ऐसा करके वो स्थिरता से आगे बढ़कर श्रेष्ठता की ओर अपना जीवन आगे बढ़ा सकतीं हैं। ऐसा करने से नारी को उनके जीवन में कर्त्तव्य के चक्रव्यूह से निकल कर स्वतंत्र जीवन की ओर कदम बढ़ाने का हौसला मिलता हैं। यह एक ऐसी पुस्तक है, जो यूरोप के उन सामाजिक, राजनैतिक, व धार्मिक नियमो को चुनौती देती हैं, जिन्होंने नारी अस्तित्व एवं नारी प्रगति में हमेशा से बाधा डाली है और नारी जाति को पुरुषो से नीचे स्थान दिया हैं। अपनी इस पुस्तक में सिमोन ने पुरुषों के ढकोसलों से नारी जाति को पृथक कर उनके जीवन में नैसर्गिक सोच विकसित न करने की नीति के विषय में अपने विचार प्रदान किये हैं। इसका हिन्दी अनुवाद स्त्री उपेक्षिता नाम से राजपाल एंड संस से प्रकाशित हुआ है।
(पोस्टर प्रस्तुति श्री अनिल करमेले)
© श्री सुरेश पटवा
≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈