श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

हम ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी के विशेष शोधपूर्ण , ज्ञानवर्धक एवं मनोरंजक आलेख  ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन को दो भागों में प्रस्तुत कर रहे हैं।)

☆ आलेख ☆ ठगों का काल कैप्टन विलियम स्लीमैन – भाग 1

यह बात 1984 कि है जब सुरेश की पोस्टिंग स्टेट बैंक की तुलाराम चौक, जबलपुर शाखा में थी। वह प्रशिक्षण हेतु भोपाल गया था। सुबह पाँच बजे के लगभग नर्मदा एक्सप्रेस से जबलपुर रेल्वे स्टेशन पर उतरकर बाहर निकल रहा था। तभी गेट पर एक साईकल रिक्शा वाले से घर तक का किराया दस रुपए में तय हो गया। वह बैग़ को दोनों पैरों पर रखकर रिक्शे में बैठ ऊँघने लगा। रिक्शा मालगोदाम गेट के बगल से निकल मुख्य सड़क पर सरपट दौड़ने लगा। बायें तरफ़ वन विभाग कार्यालय और दाहिनी तरफ़ हाईकोर्ट के बीच से आगे चौराहे पर पहुँच कर रिक्शा अचानक रुक गया।

सुरेश की नींद का झौंका टूटा तो उसने रिक्शा को तीन लोगों की गिरफ़्त में पाया। वे अपने मुँह कपड़े से ढँके थे। उनकी सिर्फ़ आँखें दिख रहीं थीं। एक गोल कंजी आँख वाले ने रामपुरी चाकू उसकी तरफ़ दिखाते हुए कहा कि जो भी कुछ माल है अंटी में ढ़ीला करो। सुरेश ने सुबह के धुँधलके में देखा कि दूसरा लुटेरा साईकल रिक्शा का हैंडल पकड़े था और

तीसरा बाईं तरफ़ लोहे की रॉड लेकर तैयार था। सुरेश अखाड़े का खिलाड़ी रहा था। वह चाकू, बल्लम, बर्छी और लाठी चलाना और वार से बचना जानता था। उसने स्थिति का आकलन किया और अन्दाज़ लगाया कि चाकू वाले लुटेरे का गुप्तांग उसकी दाहिनी टाँग की ज़द में था। वह चोट करके अपने दाएँ हाथ से उसका चाकू झटक सकता था, परंतु बाएँ तरफ़ वाला लुटेरा उसे रॉड से घायल कर सकता था। सुरेश ने  जो कुछ भी ज़ेब में था, सब निकाल कर लुटेरों के हवाले कर दिया। सामने वाले लुटेरे ने रक़म झटकते हुए हाथ में बंधी रीको घड़ी की तरफ़ इशारा किया, वह भी उसको दे दी। बाएँ तरफ़ वाले लुटेरे ने बैग़ की खानातलाशी लेते हुए ट्रेनिंग की फाइल एक तरफ़ फेंकी और कपड़े दूसरी तरफ़ फेंक बैग़ टटोल कर कहा “साला शिकार फटियल निकला, चलो रे।” सुरेश बिखरे सामान को बैग़ में रख रहा था तभी रिक्शा वाला रिक्शा लेकर रफ़ूचक्कर हो गया।

एकाध महीना बाद, सुरेश बैंक में बचत खाता पासिंग आफ़िसर की कुर्सी पर बैठा पासिंग कर रहा था। बग़ल में वीनू परांजपे सरकारी भुगतान की डेस्क पर काम कर रहे थे। एक पुलिस कांस्टेबल वीनू भाई की डेस्क पर आया। उसने सुरेश के सामने रखी कुर्सी खिसकाने की अनुमति चाही, इसके पहले कि कुछ कहा जाता वह कुर्सी खिसका कर वीनू भाई के सामने बैठ गया। वीनू भाई ने उसका परिचय ओमती थाने के दीवान के के रूप में कराया। वह थाने के स्टाफ़ के वेतन बिल का भुगतान लेने आया था। वीनू भाई ने चाय बुलाकर पिलाई। थोड़ी देर बाद एक गोल कंजी आँख वाला लम्बा छरछरा तीसेक साल का व्यक्ति पान की पुड़िया लेकर दीवान साहब के पास आया। दीवान साहब और वीनू भाई को पान देने के बाद उसने पुड़िया सुरेश की तरफ़ बढ़ाई तो उसकी नज़र उस व्यक्ति की कलाई पर बंधी घड़ी पर अटक गई। घड़ी एक जगह से घिस गई थी इसलिए वहाँ से हल्का पीलापन उभर आया था। सुरेश को अपनी घड़ी पहचानते देर नहीं लगी।

थोड़ी देर बाद जैसे ही लंच का समय हुआ, सुरेश पुलिस कांस्टेबल को लंच कराने बैंक केंटीन में ले गया। वहाँ उसने उससे पान लाने वाले व्यक्ति की जानकारी चाही। पुलिस कांस्टेबल ने कहा “वह पुलिस का मुखबिर याने पुलिस को खबर पहुँचाने वाला ख़बरी है। सुरेश के यह पूछने पर कि वह छोटी-मोटी वारदात को अंजाम देता है क्या? कांस्टेबल बोला “गुंदरा है, जात का रंग तो दिखाएगा साहब।

सुरेश ने जानना चाहा गुंदरा मतलब क्या? “गुंदरा याने गुरंदी का निवासी” कांस्टेबल ने बताया। आगे जोड़ा “अब आगे  न पूछना साहब, ज़्यादा पता करना हो तो एस.पी.साहब से मिल लो आकर, वे इनके बारे में किताब में पढ़ते रहते हैं।”

ConfessionsOfAThug1858.jpg

(Confessions of a Thug is an English novel written by Philip Meadows Taylor)

सुरेश एस.पी.साहब से मिला, उन्होंने फिलिप मीडोज टेलर द्वारा 1839 में लिखी की पुस्तक  “कन्फेशंस ऑफ ए ठग” पुस्तक उसे दी। जिसे पढ़कर पता चला कि अठारहवीं सदी के उत्तरार्ध और उन्नीसवीं सदी के पूर्वार्ध में बुंदेलखंड से विदर्भ और उत्तर भारत के कुछ हिस्सों में ठगों का आतंक था। यहां जीतू और ‘आमिर अली’ नामक ऐसे ठग थे, जिनके नाम पर सबसे ज्यादा हत्याएं इतिहास में दर्ज हैं। खास बात यह कि इन ठगों के खात्मे का मुख्य केन्द्र जबलपुर ही रहा था। आमिर अली यशवंत राव होलकर के साथ मिलकर सिंधिया के इलाक़ों में लूटपाट करते-करते बम्बई-आगरा रोड़ पर लूटमार करते पकड़ाया था।

फिलिप मीडोज टेलर की उस पुस्तक से ठगी प्रथा का पता चला। टेलर महोदय पुलिस कमिश्नर थे। उन्होंने ठग सरग़ना आमिर अली को पकड़ कर सागर सेंट्रल जेल में रखा था जहाँ उन्होंने आमिर अली से ठगी के तरीक़ों की पूरी जानकारी लेकर अपनी किताब में लिखी थी।

– ठगों की भाषा ‘रामासी’ थी। जो गुप्त और सांकेतिक थी।

– ठगों का मूल औजार तपौनी का गुड़, रूमाल और कुदाली होता था।

– ठग अपने शिकार को ‘बनिज’ कहते थे, जिनका रूमाल से गला घोंट दिया जाता था।

– शिकार का रूमाल से गला घोंटकर मारने के इशारे को झिरनी देना कहते थे।

– ठग शिकार को मारने के पहले उसकी कब्र खोदकर रखते थे और शिकार को मारकर उसके शव को कब्र में रख उसके पेट को फरसे से चीर देते थे ताकि शव फूलकर कब्र से बाहर न निकल आए।

– मूलत: ठग काली के उपासक थे, जिसमें मुस्लिम ठग भी शामिल थे।

जीतू के नेतृत्व वाले ठगों का कारोबार कटनी से होशंगाबाद तक फैला हुआ था। वे जबलपुर से नागपुर, सागर, बनारस और नर्मदा घाटी में शिकारों का काम तमाम करके उन्हें लूटते थे। ठगी विद्या में पहले शिकारी का भरोसा हासिल किया जाता था। जब उन्हें पक्का विश्वास हो जाता था तब मुख्य ठग दाहिने हाथ में रूमाल में सिक्का रख अंटी की फाँस बनाकर शिकार के पीछे खड़ा हो जाता था। उसके साथी शिकार को गाफ़िल पाते ही झिरनी याने इशारा देते थे। मुख्य ठग एक मिनट में शिकार का काम तमाम कर देता था।

जबलपुर से करीब 75 किलोमीटर दूर कटनी रोड पर स्थित “स्लीमनाबाद” व आसपास के कुछ क्षेत्रों में यह वर्ग लूट और ठगी का ही काम करता था। एक तरह से ठगी उनका परम्परागत व्यवसाय जैसा बन गया था। इस वर्ग के लोग राहगीरों को ठगकर या फिर लूटकर ही अपना परिवार चलाते थे। इसके अलावा और भी कई क्षेत्र थे जहां लूट के डर से शाम ढलने के बाद निकलना लोग जान से खिलवाड़ जैसा मानते थे। लूट और ठगी में किशोर और बच्चे तक शामिल रहते थे। इन गिरोहों ने अंग्रेजी हुकूमत तक की नींद मुश्किल कर दी थी। ये कभी पकड़ में नहीं आते थे। अंग्रेज हुकूमत परेशान थी।

आदमी की ज़िंदगी में कुछ घटनाएँ ऐसी भी घटती हैं कि सब कुछ असम्भव-अतार्किक सा लगता है। बिखरे-बेतरतीब सपनों की तरह। फिर इनकी यादें चाहे जब दिलो-दिमाग में दस्तक देने आ टपकती हैं। बेचैन करती हैं। इस बेकरारी का सबब कुछ समझ में नहीं आता। कभी लगता है कि यह फ़क़त दिमाग का फितूर है और ऐन इसी वक्त दिल कह रहा होता है कि कुछ तो है! अजीब से हालात होते हैं, जिन्हें स्लीमेन जबलपुर आने से पहले इलाहाबाद में झेल रहे थे। यहाँ वे चंद अरसा ही रहे, पर ये दिन बड़ी बेचैनी के थे। हाट-बाजार में घूमते हुए अचानक ऐसा लगता कि कोई उनका पीछा कर रहा है। पलटकर निगाह दौड़ाते तो मालूम पड़ता कि वैसा कुछ नहीं है। खुद पर खीझ हो आती कि यह क्या हरकत है? रातों को सोते हुए अचानक नींद खुल जाती। फिर कभी-कभी लगता कि कोई आवाज उनके पीछे है, जो उनसे कुछ कहना चाहती है। आवाज बहुत साफ होती बस उसके मायने पकड़ में नहीं आते! कभी आगत में खड़ी कोई चुनौती उन्हें ललकार रही होती। वह क्या थी, नहीं पता। पर वह जो भी थी अलग थी, अनूठी थी, अद्वितीय थी!

क्या यह उस जंग का असर था जो वे कुछ दिनों पहले नेपाल की सरहद में लड़कर आए थे? विलयम हैनरी स्लीमैन महज 21 साल की उम्र में  इंग्लैंड से भारत आकर दानापुर रेजिमेंट में भर्ती हो गए थे। इंसान चाहे कितना भी पत्थर-दिल हो, युद्धभूमि में मची मार-काट विचलित तो करती ही है। जंग सिर्फ बाहर नहीं होती, भीतर भी चलती है और जंग के खत्म हो जाने के बाद भी चलती रहती है। फिर स्लीमेन तो बहुत संवेदनशील थे। उनके बहुत से साथी बीमार पड़ गए। कुछ मारे भी गए। युद्ध से वितृष्णा-सी हो गई थी। कलकत्ते में आराम करने के लिए छुट्टी मिली। उन्होंने आला अफसरान को चिट्ठी लिखी कि वे फौज में लड़ने के बदले कॉलेज में पढ़ाना चाहते हैं। इलाहाबाद की एक लाइब्रेरी में किताबों के पन्ने पलटते रहे और बस एक पन्ने में उलझकर रह गए। यह एक फ्रेंच यात्री की किताब थी जो पचासेक साल पहले भारत-भ्रमण पर आया था। उनकी किताब के उस पन्ने पर आकर वे ठहर जाते, जिसमें लिखा था कि दिल्ली से आगरे का रास्ता बड़ा खतरनाक है और यहाँ से लोग न जाने कहाँ गायब हो जाते हैं? इस एक पन्ने को उन्होंने बार-बार पढा। कई बार पढा। जंग की ताजी यादों के साथ यह एक पन्ना भी शायद इलाहाबाद में उनकी बेचैनी का सबब था।

मि. स्मिथ नाम के अंग्रेज अफसर को यह मंजूर नहीं था कि स्लीमैन जैसा नौजवान अपने आपको कॉलेज की चाहारदीवारी में कैद कर ले। स्लीमेन को उन्होंने सिविल सर्विसेस में भर्ती कर जबलपुर के पास सागर भेज दिया। फिर वे सागर से नरसिंहपुर आए। नरसिंहपुर में उस जमाने में ठगों की सबसे बड़ी ‘बिल’ के होने का वजूद सामने आया था। मजे की बात यह कि तब यह बात स्लीमेन को भी पता नहीं थी कि उनके दफ्तर से महज 300 मीटर के फासले पर कंदेली नामक एक गाँव ठगों का असली अड्डा है और पास ही मड़ेसुर में हिंदुस्तान की सबसे बड़ी ‘बिल’ है।

यह जो ‘बिल’ है, यह ठग-भाषा से है, जिसे रामासी कहा जाता था। ठगों की कूट भाषा। ‘बिल’ का आशय उस जगह से है जहाँ ‘बनिज’ (शिकार) को मारकर दफ़्न कर दिया जाता था। उस जमाने के ठग सच्चे ठग होते थे और उन्हें ‘बोरा’ या ‘ओला’ कहा जाता थे। जैसे कहते हैं कि सियासतदां के कुछ उसूल होते हैं, ठगों के भी कुछ उसूल हुआ करते थे और वे लोगों को जन्नत बख्शने के लिए धारदार हथियारों का इस्तेमाल नहीं करते थे। इस काम के लिए वे एक पीले रंग का रुमाल इस्तेमाल करते थे और उसे ‘पेलहू’ कहते थे। रुमाल की गांठों में विक्टोरियन सिक्का होता था ताकि पाप के भागी फिरंगी भी बनें! जैसे इन दिनों फाइन आर्ट्स-थिएटर वगैरह की बारीकी सीखने के लिए कई तरह के प्रशिक्षण से गुजरना होता है, तब ठगी की भी बाकायदा ट्रेनिंग होती थी। परीक्षा देनी पड़ती थी। दीक्षांत समारोह में गुरु चेले के हाथों में गुड़ का टुकड़ा रख देता। फिर वह एक पीले रंग का रुमाल निकालता और उसके सिरे पर चाँदी का विक्टोरियन सिक्का बाँध दिया जाता। एक तरह से यही प्रशिक्षु की डिग्री-डिप्लोमा होती। गुड़ खाते ही वह ‘सर्टिफाइड’ ठग बन जाता। रुमाल में बंधे सिक्के से गुड़ की एक खेप और मंगाई जाती और इसके साथ ‘गुड़-भोज’ के रूप में लंच या डिनर होता। यह गुड़ ‘तुपोनी का गुड़’ कहलाता और कहते हैं कि इसे चखने वाला ताजिंदगी ठग बना रहता। वो ठग तो अब नहीं रहे पर इस फरेबी दुनिया में तब के गुड़ की तासीर अभी भी बची हुई है।

क्रमशः  —- भाग – 2

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

ब्लॉग संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈
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