श्री प्रतुल श्रीवास्तव 

☆ आलेख – धर्म स्थापना के लिए ईश्वर के अवतार… ☆ श्री प्रतुल श्रीवास्तव ☆

श्रीकृष्ण मुख से निकला वेदामृत ही ‘गीता’…

धर्म क्या है ? धर्म की हानि होने पर उसकी पुनर्स्थापना के लिए ईश्वर को समय-समय पर अलग-अलग रूपों और नामों से क्यों प्रकट होना (जन्म लेना) पड़ता है ? क्या द्वापर युग में परमेश्वर ने ही भगवान श्रीकृष्ण के रूप में प्रकट होकर ‘वेदों’ में निहित ‘धर्म’ का ज्ञान गीता के माध्यम से अर्जुन को दिया था ? इसे समझने के लिए हमें पहले यह जानना होगा कि वेद क्या हैं ? और वेदों में क्या है ? वास्तव में ‘धर्म’ शब्द बहुत व्यापक अर्थ समेटे हुए है। विविध शक्तिपुंजों / ईश्वर पर श्रद्धा-भक्ति, उपासना-आराधना, पूजा-पाठ तो धर्म है ही, सद्गुण, सदाचरण, न्याय, अहिंसा, कर्त्तव्य तथा बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय का मार्ग भी मनुष्य का परमधर्म है। यह तमाम जानकारी वेदों में निहित है। वेद शब्द की उत्पत्ति संस्कृत भाषा के ‘विद’ से हुई है। वेद का अर्थ है ‘ज्ञान के ग्रन्थ’। विद् से ही विद्या, विद्वान और ज्ञान शब्द बने। आत्मोत्थान-समाजोत्थान के लिए ‘वेद’ सनातन मार्ग दर्शक हैं। ‘वेद’ श्रीनारायण का दिया हुआ दिव्य ज्ञान है। जब-जब ईश्वर इस सृष्टि को रचता है तब-तब परमेश्वर के द्वारा इस ज्ञान का प्रादुर्भाव ब्रह्मा के हृदय में होता है। ब्रह्मा ही सृष्टि के प्रथम देव हैं। इनसे यह ज्ञान ऋषियों-गुरूओं को और फिर शिष्यों तथा समाज को पहुँचता आया है। सम्भवतः इसी कारण वेदों को ‘श्रुति’ भी कहा जाता है। महर्षि भगवान व्यास ने इस ज्ञान को लिपिबद्ध किया। वेद-ज्ञान को चार भागों में बांटा गया, ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अथर्ववेद। वेदों के तत्व ज्ञान को वेदांत या उपनिषद कहते हैं। चारों वेदों सहित ‘गीता’ में भी योग शब्द का प्रयोग मुख्यतः संयोग, प्रयत्न, सिद्धि और विशिष्ट शक्ति के रूप में किया गया है।

शक्ति की उपासना-साधना और ज्ञान से प्राप्त सामर्थ्य का दुरूपयोग भी सदा से होता आया है। शक्ति सम्पन्न लोग जब निरंकुश होकर समाजोत्थान के मार्ग से विचलित हो जाते हैं और वेदों द्वारा वर्जित अथवा वेद विरूद्ध कार्य करते हुए सामाजिक व्यवस्था तहस-नहस कर अत्याचार-अनाचार और अराजकता की हदें पार कर देते हैं, तब समाज को अनीति की पोषक निरंकुश शक्तियों से मुक्त कर पुनः धर्म और सुनीति की स्थापना के लिए प्रभु को जन्म लेना पड़ता है। द्वापर युग में निर्मित इन्हीं परिस्थितियों के समाधान के लिए परम प्रभु को श्रीकृष्ण के रूप में अवतार लेना पड़ा। श्रीकृष्ण ने कंस सहित अनेक अत्याचारी राजाओं और उनके अनुचरों को समाप्त किया। भौमासुर का वध कर सोलह हजार राजकुमारियों को मुक्त कराया। निर्वस्त्र नहाती युवतियों को मर्यादा का पाठ पढ़ाया। अनेक प्रयत्नों के बाद भी जब कौरवों और पाण्डवों के बीच युद्ध (महाभारत) होना निश्चित हो गया तब श्रीकृष्ण ने स्वयं शस्त्र न उठाने की बात कहते हुए अर्जुन का सारथी बनना स्वीकार किया। युद्धभूमि में अर्जुन जब विपक्ष में खड़े स्वजनों को देखकर विचलित हो गया और क्षत्रिय धर्म-कर्त्तव्य भूलकर उसने युद्ध से इन्कार करते हुए अपने शस्त्र रख दिए तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को जो वेद सम्मत उपदेश दिए वही गीता है। श्रीकृष्ण अर्जुन को तरह-तरह के उदाहरणों से धर्म का मर्म बताकर समझाते हैं कि धर्मनीति, अधिकार और कर्त्तव्य का पालन करते हुए युद्ध से भी पीछे नहीं हटना चाहिये।

‘अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सड्ग्रामं न करिष्यसि ।

ततः स्वधर्म कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ।।’

(यदि तू इस धर्मयुक्त युद्ध को नहीं करेगा तो स्वधर्म और कीर्ति को खोकर पाप को प्राप्त होगा।)

सनातन धर्म में भाग्य को प्रधानता नहीं दी गई है। वेद, उपनिषद और गीता तीनों ही कर्म (प्रयत्न) का महत्व बताते हुए इसे कर्त्तव्य मानते हैं। यही पुरुषार्थ है। धर्म और नीतिशास्त्रों में बताया गया है कि कर्म के बिना गति नहीं। वैदिक मान्यताओं के अनुरूप ‘अवश्यमेव भोक्तव्यं कृतं कर्म शुभाशुभं ।’ मनुष्य जो भी अच्छा-बुरा अर्थात् पुण्य व पाप कर्म करता है उस कर्म का फल उसे अवश्य भोगना पड़ता है। गोस्वामी तुलसीदास ने भी कर्म को प्रधान मानते हुए लिखा है – ‘कर्म प्रधान विश्व रचि राखा। जो जस करे तो तस फल चाखा।’ वेदों, शास्त्रों, पुराणों सहित सभी ग्रन्थों में ईश्वर प्राप्ति के तीन मार्ग बताए गए हैं। इनमें सबसे ऊपर कर्म को रखा गया है, द्वितीय ज्ञान और तृतीय भक्ति व उपासना। विराट ईश्वर के अवतार श्रीकृष्ण ने भी ‘गीता’ में उन्हें प्राप्त करने के यही तीन मार्ग बताए हैं। ऋग्वेद भी कहता है ‘सं गच्छध्वम् सं वदध्वम् ।’ साथ चलें मिलकर बोलें। उसी सनातन मार्ग का अनुसरण करें जिस पर पूर्वज चले हैं।

जीवन में कर्म का महत्वपूर्ण स्थान है। हमें फल प्राप्ति की चिंता न करते हुए कार्य करते रहना चाहिये। गीता में भगवान श्रीकृष्ण ने कहा है –

‘कर्मण्येवाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन।’

यहाँ श्रीकृष्ण जी के कथन में यह निहित है कि यदि हम लक्ष्य या उद्देश्य प्राप्ति के लिये कर्म करते जाएंगे तो उसका फल तो हमें मिलना ही है। अतः कर्म करें, फल प्राप्ति को लेकर निश्चिंत रहें। कहा गया है कि ‘बुद्धिः कर्मानुसारिणी’ अर्थात बुद्धि भी कर्म का अनुसरण करती है। जब बुद्धि और कर्म का योग होता है तो सफलता अवश्य प्राप्त होती है।

उपनिषद के अनुसार ‘शरीरमाद्यां खलु धर्मसाधनम्।’ शरीर सभी धर्मों/दायित्वों को पूरा करने का साधन है। इसी को कृष्ण गीता में कहते हैं –

‘नियंत कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।

शरीरयात्रापि चते न प्रसिद्धयेद कर्मणः।।’

(तू शास्त्र अनुसार कर्त्तव्य कर्म कर, क्योंकि कर्म न करने की अपेक्षा कर्म करना श्रेष्ठ है तथा कर्म न करने से तेरा शरीर-निर्वाह भी नहीं सिद्ध होगा।)

श्रीकृष्ण गीता में कहते हैं –

‘न मे पार्थस्ति कर्त्तव्यं जिषु लोकेषु किंचन।

नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि।।’

(हे अर्जुन मुझे इन तीनों लोकों में न तो कुछ कर्त्तव्य है और न ही कोई प्राप्त करने योग्य वस्तु अप्राप्त है तो भी मैं कर्म में रत रहता हूँ।)

वेदों में वर्णित ‘यज्ञ’ शब्द की श्रीकृष्ण जी ने गीता में विस्तृत सरल व्याख्या कर जीवन में यज्ञ और हवन की सार्थकता बताई है – भगवान श्रीकृष्ण ने पूजन रूप, परमात्मा रूप, आत्म रूप, संयम रूप, इन्द्रिय रूप, तपस्या रूप, योगरूप सहित द्रव्य संबंधी यज्ञ, स्वाध्याय रूप ज्ञान-यज्ञ का उल्लेख किया है। उन्होंने ज्ञान-यज्ञ को सभी यज्ञों से महत्वपूर्ण बताते हुए कहा है कि –

‘न हि ज्ञानेन सदृशं पवित्रमिह विद्यते।

तत्स्वयं योगसंसिद्धः कालेनात्मनि विन्दति ।।

अर्थात् इस संसार में ज्ञान के समान पवित्र करने वाला निःसंदेह कुछ भी नहीं है। इस ज्ञान को कितने ही काल से कर्मयोग के द्वारा शुद्धान्तःकरण हुआ मनुष्य अपने आप ही आत्मा को पा लेता है।

श्रीकृष्ण ने ‘गीता’ में वेद विधानों को इस तरह मान्य किया है –

‘त्रैविद्या मां सोमपाः पूतपापायज्ञैरिष्द्वा स्वर्गतिं प्रार्थयन्ते।

ते पुण्यमासाद्य सुरेन्द्रलोकमश्र्नन्ति दिव्यान्दिवि देवभोगान।।’

तीनों वेदों में विधान किए हुए सकाम कर्मों को करने वाले, सोमरस को पीने वाले, पापरहित पुरुष मुझको यज्ञों के द्वारा पूजकर स्वर्ग की प्राप्ति चाहते हैं, वे पुरुष अपने पुण्यों के फलस्वरूप स्वर्गलोक को प्राप्त होकर स्वर्ग में दिव्य देवताओं के भोगों को भोगते हैं।

परमेश्वर भगवान श्रीकृष्ण ने सत्पुरुषों को आश्वासन एवं दुर्जनों को चेतावनी देते हुए गीता में कहा है –

‘यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानम्धर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम ।।’

(हे भारत ! जब जब धर्म की हानि होती है और अधर्म का बोलबाला बढ़ता है, तब-तब मैं धर्म के उत्थान के लिए लोगों के सम्मुख साकार रूप में प्रकट होता हूँ।

‘परित्राणाय साधूनां विनाशाय च दुष्कृताम् ।

धर्मसंस्थापनार्थाय सम्भवामि युगे-युगे।।’

(साधु/सज्जन पुरुषों (लोगों) का उद्धार करने के लिए, पाप / दुष्कर्म करने वालों का विनाश करने और धर्म को अच्छी तरह से स्थापित करने के लिए मैं युग-युग में प्रकट हुआ करता हूँ।) (यहाँ धर्मसंस्थापनार्थाय का अर्थ वेदों में वर्णित धर्म-ज्ञान ही है।)

श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों में श्रीकृष्ण ने अर्जुन के माध्यम से पूरे संसार के समक्ष समय-समय पर अपने जन्म लेने का कारण और अपनी असीमित शक्ति को भी दर्शा दिया है।

© प्रतुल श्रीवास्तव

संपर्क – 473, टीचर्स कालोनी, दीक्षितपुरा, जबलपुर – पिन – 482002 मो. 9425153629

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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