डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक  के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो  हिंदी  तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं।  आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती  भाषाओं में अनुवाद हो  चुकाहै। आप कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)

☆ आलेख ☆ बच्चे कहानी कविता क्यों पढ़े ♥ ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी

(बाल-साहित्य की ‘आर्थिक उपयोगिता’)

‘मर जाने पर भी पैसे की कीमत का अहसास तुम्हे रहता है!’

– नोबल विजयी तुर्की लेखक ओरहॉन पामुक. (मेरा नाम लाल है।)

कथापीठ :

बनारस की मलाई गिलोरी हो या कोलकाता के प्रख्यात भीमनाग का संदेष – इनके रसास्वादन के लिए स्वाद, सौन्दर्य और विपणन (मार्केटिंग) वगैरह के अलावा दो बातें बहुत ही जरूरी है। एक, ये मिठाई कहीं से बिके ; दूसरी – ग्राहक इन्हें खाने तो आयें। बाल-साहित्य के सम्बन्ध में भी यह अत्यन्त आवश्यक है कि बाल-साहित्य पत्रिकायें निकलें एवं बच्चे (और उनके घरवाले भी) उन कहानी-कविता-नाटकों को कम से कम एकबार तो पढ़े…       

और आज के कोरोना काल में जब पूरे देश दुनिया में लॉक डाउन की स्थिति बन गई है, बच्चों को घर में ही रह कर ऑन लाइन पढ़ाई करनी है, उन्हें बार बार कहा जा रहा है कि वे घर से बिलकुल न निकले तो मनोग्राही बाल साहित्य की आवश्यकता का एक बार नये ढंग से अहसास हो जाता है। सारा दिन घर बैठे वे सिर्फ लैपटॉप पर ही तो आँख गड़ाये बैठे नहीं रह सकते। मनोरंजन के लिए वे कहानी की एक किताब हाथों में ले सकते हैं। 

‘बातचीत’ के दौरान अकादमी अवार्ड से आदृत अमरकान्त ने अपना विचार यूँ रक्खा :‘साहित्यिक पत्रिकाएँ निकालना घाटे का सौदा बन गया है। इसलिए बड़े घरानों ने इधर से हाथ खड़े कर लिये हैं।’

(पुनर्नवाः दै.जागरण. 11.1.08.)

इस पहलू को छोड़ हमारी चर्चा का विषय है – कहानी-कविता पढ़ने से बच्चों को (एवं उनके अभिवावकों को) फायदा क्या? वैसे तो ‘बाल साहित्य’ का मतलब यही लगा लिया जाता है कि ‘कोई’ स्वदेश प्रेम, पर्यावरण, बड़ों का आदर करना – यानी नीति शिक्षा पर बाँचने के लिए तैयार बैठा है। हद तो यह है कि एक अखबार के बालपृष्ठ पर प्रकाशित  कहानी के अंत में -‘इससे क्या शिक्षा मिलती है?’ – इसे टिप्पणी के रूप में प्रस्तुत की जाती है।           

ज्ञान वितरण के चक्कर में वे भूल जाते हैं -‘जहाँ आनन्द है, वहीं सत्य है। साहित्य काल्पनिक वस्तु है, पर उसका प्रधान गुण है – आनन्द प्रदान करना।’

( प्रेमचंदः मानसरोवरः एक)

जन्म से लेकर जीविकोपार्जन की ड्योढ़ी तक पहुँचने में एक बच्चे की जिंदगी में विभिन्न पड़ाव आते हैं : बचपन, पढ़ना-खेलना, बाल-मजदूरी, कम्पटीशन, एडमिशन, कैरियर, और रोजगार से लेकर सेविंग या शेयर निवेश तक। चलिए देखें कि इस ‘दुनियादारी’ को निभाने में बाल-साहित्य कैसे हमारे बच्चों का हाथ पकड़ कर हम सफर बन सकता है – शुद्ध आर्थिक आकलन की दृष्टि से …..।

बेवज़ह नाक भौं सिकोड़ने से कोई फायदा नहीं। आज के लक्ष्मीवाद के बाज़ार में बैठे सिर्फ सरस्वती की वीणा बजाऊँ, इतना बड़ा लक्ष्मीवाहन भी नहीं हूँ। तो –

बचपन :

‘‘माँ ओ’ कहकर बुला रही थी, मिट्टी खाकर आई थी। कुछ मुँह में कुछ लिए हाथ में, मुझे खिलाने आई थी।’(मेरा नया बचपन)। सुभद्राकुमारी चौहान की इस कविता का वात्सल्य रस अगर किसी नन्हे पाठक को सराबोर कर देता है, तो भविश्य में इसकी उपयोगिता क्या है?

आपने टीवी में सौन्दर्य या सफाई – साबुन का ऐड नहीं देखा? कैसे माँ अपनी नन्ही सी प्यारी सी परी को साबुन लगाती है, या पलक झपकते उसके गंदे कपड़ों को साफ कर देती है। हाँ, तो ऐसी कल्पनाओं से प्रेरणा पाकर ‘मिले सुर मेरा तुम्हारा’ के सृष्टि विज्ञापन जादूगर अभिजीत अवस्थी (दै.जागरण. 19.1.08.) की तरह आपका बेटा भी डॉक्युमेन्टरी या ऐड फिल्म का प्रणेता बन सकता है। उनमें नौकरी पा सकता है। आज जब एम0बी0ए0 की ध्वजा सर्वत्र बुलन्द होकर फरफरा रही है – उसमें एडमिशन लेने में, या एडमिशन के बाद प्रोजेक्ट तैयार करने में शायद ‘झाँसीवाली रानी’ की रचयित्री काम आ जाएँ ……..

बाज़ार :

इसका टार्गेट भी बचपन है । माल या वस्तु (कमॉडिटी) की व्याख्या करते हुए कार्ल मार्क्स ‘पूँजी’ का बिस्मिल्लाह इस तरह करते हैं :‘माल का अस्तित्व हमसे पृथक है। वह किसी न किसी रूप से हमारी किसी माँग की आपूर्ति करता है। यह माँग पेट की हो चाहे मन की …..’

उन्होंने माल के लिए जड़ जगत से कोट या सूत वगैरह का ही उदाहरण प्रस्तुत किया। मगर आज ‘मनोभावना’ भी एक कमॉडिटी है। दो मिनट में फट से तैयार होनेवाला खाना हो या टूथपेस्ट – सभी ऐड का ‘टार्गेट-ग्राहक’ बच्चे हैं। जिन्हें मद्दे नज़र रखते हुए इन ऐड्स् की सृष्टि होती है। आखिर वे ही अपनी माँ से उन वस्तुओं को खरीद देने की माँग करेंगे।

शिक्षा :

विष्णु शर्मा ने पंचतंत्र जैसे बाल साहित्य की सृष्टि महज इसलिए की थी कि महिलारोप्य नगर के राजा अमर शक्ति के तीन उच्छृंखल एवं मूर्ख कुमारों (बहुशक्ति, उग्रशक्ति और अनन्तशक्ति) को सही मार्ग पर लाया जाएँ। वे राज्य-लक्ष्मी को सँभाल सकें। यानी विशुद्ध वित्तीय उद्देष्य! (डा0 श्रीप्रसाद रचित बाल साहित्य का उद्देष्य से ये नाम लिए गये हैं।)                       

एन.सी.ई.आर.टी. का निर्देशक श्री कृष्णकुमार के अनुसार : ‘शिक्षा की प्राचीन अवधारणा यह नहीं बताती कि हर बच्चा एक ‘अर्थ’ ढूँढ़ने का प्रयास करता है। वर्तमान शिक्षा पद्धति में जोर इस बात पर है कि पठन एवं कहानी-कथन को जोड़ा जाय …..।’

(हिन्दूःअंग्रेजीः 22.1.08.)

एक चीनी कहावत है : पहली दफा किसी किताब को पढ़ने का मतलब है एक नया दोस्त बनाना, दूसरी बार पढ़ने का मतलब है बिछड़े हुए यार से मिलना।

(हिन्दू यंगवर्ल्ड :28.3.08)

मामूली नर्सरी में एडमिशन की त्रासदी को ‘मैं लड्डू नहीं खाता’ कहानी (बालहंसः अप्रैलःद्विः2003) में दर्शाया गया है। नर्सरी से लेकर बारहवीं तक भाषा की भूमिका को कौन अस्वीकार कर सकता है? ध्यान रहे – हिन्दी भी एक ‘विषय’ है। तो कहानी/कविता की भूमिका क्या है? 

1.‘बिल्ली बोली म्याऊँ म्याऊँ मुझको हुआ जुकाम/ चूहे चाचा चूरन दे दो जल्दी हो आराम।’(श्रीप्रसाद)। एडमिशन के समय बच्चा इसे सुना सकता है।

2. एकबार धड़का खुल जाए तो वह आगे चलकर अपनी शैली में, अपने ठंग से दूसरे विषयों का भी जवाब दे सकता है।

3. विज्ञान कथाओं से उनमें विज्ञान के प्रति रुचि पैदा होती है। (उदाः लूशियन का रहस्य – डा0 हरिकृष्ण  देवसरे : पाठक मंच बुलेटिन, अंतरिक्ष के लुटेरे : विष्णु प्रसाद चतुर्वेदी, बालवाटिका)।

4. प्रवेश परीक्षाओं के जी.के. पेपर को हल करने में आसानी हो सकती है। जैसे – नौरोज़ क्या है? ईरान का नव-वर्ष। (नव वर्श की निराली प्रथाएँ – प्रेमलता, बालवाणी, जन/फर .2008).

5. जैसे स्कूटर या कार में मशीन को चुस्त रखने के लिए पेट्रोल के साथ मोबिल की भी जरूरत होती है, उसी तरह लगातार अध्ययन के दौरान बच्चा अगर ऊबने लगे तो (सिर्फ मनोरंजन के लिए ही) कहानी वगैरह पढ़ लेने से उसका दिमाग तरोताज़ा हो जाता है।

6. यहाँ तक कि अन्य विषय के किसी पाठ को मनोग्राही ठंग से आरम्भ करने के लिए भी कविता का सहारा लिया जाता है। डी. आर. लॉरेन्स की भेषज-विज्ञान की पुस्तक में दर्द निवारक औषधियोंवाला चैप्टर मिल्टन के ‘पैराडाइज लॉस्ट’ की पंक्तियों से आरम्भ होता है : ‘वो बेमिसाल ताकत किस काम का ? जब ख़ुद दर्द से हो कराह रहा …’।

7.ग्रुप डिसकॅशन में सुविधा : इधर सी.बी.एस.ई. नई परीक्षा पद्धति लागू कर रही है। पुनरावृत्ति एवं पहले जैसे प्रश्नपत्रों (मोर ऑफ द सेमः एम.ओ.टी.एस.) के बदले व्याख्या एवं ज्ञान का संश्लेषण पर आधारित (हायर आर्डर थिंकिंग स्किल्स : एच.ओ.टी.एस.) प्रश्न  पूछे जायेंगे। (हिन्दूः11.2.08.).

8. बताते चलें 10$2 कक्षाओं में कुछ नये विषय आरंभ हो चुके हैं। जैसे – क्रिएटिव राइटिंग, ट्रान्स्लेशन स्टडीज। जिसे साहित्य के प्रति लगाव है, वह आसानी से इन विषयों में रुचि ले सकता है। फिल्म एवं मीडिया तथा जेन्डर स्टडीज वगैरह भी आने वाले विषय हैं।(हिन्दूः वही)

भौतिकविद प्रो0 यशपाल के अनुसार : ‘मीडिया के प्रभाव से यह भाव पैदा हो गया है कि पार्टियों में जाना और नाचना गाना ही सभ्यता है। … ज्यादातर अनपढ़ लोग सभ्य होते हैं … जबतक उनके साथ कोई नाइन्साफी न हो! हेराफेरी करनेवाले ज्यादातर लोग पढ़े लिखे होते हैं। आमतौर पर उच्च शिक्षा प्राप्त लोग अंध विश्वासी होते हैं। … हमारी शिक्षा व्यवस्था सामाजिक सरोकारों से जुड़ी होनी चाहिए। वरना बच्चे शिक्षित तो हो जायेंगे, बेहतर इंसान नहीं।

(दै.जा.5.1.08. बृज बिहारी चौबे से बातचीत)  

‘बाल शिक्षा बालक का अधिकांशतः औपचारिक विकास करती है, जबकि बाल-साहित्य बालक का बौद्धिक और भावनात्मक, दोनों स्तरों पर विकास करता है ।’

(डा0 श्रीप्रसादः बा.सा.की अवधारणा पृ.5)

अब कुमाऊँ लोककथा पर आधारित शिवानी की कहानी ‘नदी किनारे’ (नंदनः अप्रैल 03) पर ज़रा गौर फ़रमाइये। व्यापारी पुत्री रजुला और बैराठराज मालूसाही एक दूसरे से विवाह करना चाहते हैं। रजुला का धनलोभी पिता सुनपता हूंणदेश के नृशंस राजा चंद विरवैपाल से उसकी शादी करवाना चाहता है। जोहार, बगड़, तेजम और बागेश्वर (कुमाऊँ का भूगोल) आदि से होकर रजुला भागती है। मिलने पर राजा को छोटा नन्हा बनाकर उसने उसे अपनी चोटी में खोंस लिया। रजुला की माँ गंगोली ने दामाद को विषैली खीर खिला दी। अंततः मालूसाही को उसके भाई बचा लेते हैं। फिर दोनों सुख पूर्वक राज्य शासन करने लगे। ज़रा सोचिए इस लोक कथा की उपयोगिता क्या हो सकती है ?

1.हूंण के बारे में जानकारी। इतिहास (पाठ्यक्रम का एक विषय। आप चाहे या न चाहे इसे पढ़ना पड़ता है। इसमें भी पास होना पड़ता है।) में इनका जिक्र आता है।

2. पहाड़ का विशिष्ट व्यंजन : घुइयां के पत्तों को पिसे हुए चावल लपेटकर बनाई गई पतौड़े की पकौड़ी की जानकारी। होमसाइंस से लेकर फुड टेक्नोलॉजी या होटल मैनेजमेन्ट में कोई नया प्रयोग कर सकता है। तरला दलाल या संजीव कपूर की आर्थिक सफलता क्या कम है?

भले ही आप इसे ‘कष्ट कल्पना’ कह लें। परंतु क्या करूँ? शिव की पूजा में धतूरे की ही ज़रूरत होती है। और आजके ‘पाठकों’ को रिझाने के लिए ‘लक्ष्मी-चालीसा’ की ।

यहाँ तक कि सुकरात ने भी कहा है :- खाद से भरा बोरा भी सुन्दर है, क्योंकि इसकी उपयोगिता है। (एसथेटिक्स : यूरी बोरेव)

फिर भी …

याज्ञवल्क ने गार्गी से कहा था :‘नवा अरे वित्तस्य कामाय वित्तं प्रियं भवति। आत्मनस्तु कामाय वित्तं प्रियं भवति।। वित्त की कामना भर से वित्त प्रिय नहीं हो जाता, आत्मा की कामना है इसीलिए वित्त प्रिय है।’

(विश्व साहित्य : रवीन्द्ररचनावली 10 पृ.325)

स्वास्थ्य और मनोरंजन :

‘सत्य ही सौन्दर्य है। परंतु सौन्दर्य का रस तभी मिलता है, जब हृदय में उसकी अनुभूति हो। (शुष्क) ज्ञान से नहीं, स्वीकृति से।’

– साहित्य का स्वरूप : रवीन्द्रनाथ

बाल-साहित्य का भी मुख्य उद्देश्य निर्मल आनन्द और मनोरंजन ही होना चाहिए (उपदेशामृत नहीं )। आज जब चारों ओर ठहाका-क्लबों का निर्माण हो रहा है, तो यह मानी हुई बात है कि स्वस्थ रहने के लिए हँसना, खुश रहना और मनोरंजन जरूरी है। और स्वास्थ्य की कीमत क्या सिर्फ पैसों से आँकी जा सकती है? वैसे हाँ, आज के अर्थशास्त्री यह भी गणना कर लेते हैं कि अस्वस्थ रहने पर टके के हिसाब से कितने का घाटा हुआ !

यह भी बता दें – ब्रिटेन में मोटापे के लिए ‘फैट टैक्स’ (?) का प्रचलन हो चुका है। यानी बीमा कम्पनियां मोटे लोगों से 50 प्रतिशत अधिक प्रीमियम लेने की सोच रही हैं। धूम्रपान करने पर या दूसरी खास बीमारी की स्थिति में यह वृद्धि 400 फीसदी तक हो सकती है।

(हिन्दू 25.2.08.)

तो मनोरंजन / स्वास्थ्य के लिए भी कहानी। सिगरेट से बचने के लिए भी कहानी। (बस, किताबें खरीद कर पढ़ा करें। दूसरों से उधार लेकर नहीं।)

डब्ल्यू. एच. ओ. के परिभाषानुसार (1978) केवल रोगों का न होना ही स्वास्थ्य का लक्षण नहीं है। बल्कि शारीरिक, मानसिक एवं सामाजिक रूप से सकुशल रहना ही स्वास्थ्य है।

अगर बच्चा मनोरंजन के लिए टीवी देखना ही ज्यादा पसन्द करे, तो? फिर सुनिए :‘प्रतिदिन दो घंटों से कम टीवी देखनेवाले बच्चों की तुलना में दो से चार घंटों तक टीवी देखनेवाले बच्चों में हाई ब्लड-प्रेशर की संभावना ढाईगुणा ज्यादा होती है।’

(एस. लक्ष्मीसुधाः हिन्दू 30.12.07.)

मनोरंजन के साथ कहानी का रिश्ता कितना गहरा है – यह देखिए – ‘जोधा अकबर’ के निर्देशक आशुतोष गोवारिकर के मंतव्य में :‘मेरे लिए तो हर फिल्म एक ‘रिस्क’ है। मेरा ध्यान सर्वथा यह रहता है कि कितने मनोग्राही ठंग से कहानी सुनाई जाए।’

(हिन्दू :01.02.08.)

‘कौआ और मगरमच्छ’ नामक अंग्रेजी बाल पुस्तक के प्रकाशन के अवसर पर ‘कथावाचिका’ नूपुर अवस्थी ने बच्चों से उस कहानी के नाट्य रूप का मंचन करवाया। प्रकाशक ‘कथा बुक्स’ की प्रशंसा  करते हुए उन्होंने कहा,‘मनोहारी चित्रण के जरिए ये कहानी को ही आगे बढ़ाते हैं। इस तरह ये भारत की इस कथा-वाचन की परंपरा को ही समृद्ध करते हैं।’

(यंग वर्ल्डः हिन्दूः 01.02.08.)  

कैरिअर की स्वर्णलंका तक पहुँचने के लिए ही विज्ञान के बुलन्द दरवाजे पर भेड़िया धँसान मची हुई है। जुले वर्न और एच.जी.वेल्स ने दिखा दिया था कल्पना-कहानी एवं विज्ञान में कितना प्रगाढ़ रिश्ता है। हाल ही में दिवंगत प्रख्यात विज्ञान कथा लेखक आर्थर सी. क्लर्क ने 1945 में ही उपग्रहों की मदद से दूर संचार की कल्पना कर ली थी, जो बीसों साल बाद यथार्थ में संभव हो सका।

(जी.एस.ओ. – जीओसिन्क्रोनस सैटेलाइट ऑरबिट)

इतनी वकालत के बावजूद यह सही है – पढ़ने लायक कहानी ही नहीं होगी तो पढ़ेगा कौन? एक अंग्रेजी कविता-संग्रह के बारे में खुशवंत सिंह की टिप्पणी :-‘आधुनिक कविता को समझने में मुझे उतनी ही मुश्किल होती है, जितनी कि उनके नाम उच्चारण करने में। …इसका ज्यादातर हिस्सा मेरी समझ में नहीं आया।’

(दैनिक जागरण 19.01.08)

यानी छपने से ही सामग्री पठनीय/रोचक नहीं हो जाती।

बालसाहित्य में आदर्श / नीतिशिक्षा :

‘यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः। सत्यप्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते।।’ (गीताः 3ः21)। आम लोग श्रेष्ठपुरुश को आदर्श मानते हुए उनके आचरण का अनुसरण करते हैं। यूँ देश के लिए जज्बात, बाप-माँ-भाई-बहन के प्रति लगाव, परोपकार, सत्यनिष्ठा, घूस से घृणा आदि आदर्शों को कोई सिक्कों के मोल तौलना चाहे तो उनसे विनम्र निवेदन है कि बच्चों के लिए बाल-रामायण का पाठ इसलिए जरूरी नहीं है कि पुरुषोत्तम राम स्वयं नर-रूपी नारायण थे, बल्कि इसलिए जरूरी है कि बेटा अगर ‘राम जैसा’ बने तो बाप को उससे कुछ उम्मीद बँध सकती है। रिटायरमेन्ट बेनिफिट। वरना राम के ही देश में पिता माता की देखभाल के लिए ‘कानून’ बनाने पड़ते हैं!! गंगा किनारे भगीरथ प्यासा !

लेकिन बाल साहित्यकार लिखेगा क्या?

‘वही आरुणि श्रवणकुमार और एकलव्य की नैतिक कथाएँ, जिन्हें पढ़ पढ़ कर हम अनैतिक हो गये हैं। वही उपदेश ……. जिन्हें सुनते पढ़ते हमारी कितनी ही पीढ़ियाँ बुढ़ा गईं।’

(स्कूली किताबों से अलग – रामकुमार कृषक :: आजकल. नवं./07)

‘कल कल करते बहते झरने /शोर मचाती नदियाँ हैं ’(पेड़ों की माया – राधेश्याम भारतीय. बालवाटिका. दिसं/07) पर्यावरण पर यह लिखना ही काफी है? साथ में यह बताना आवश्यक नहीं है कि देश के ‘सर्वोच्च पदाधिकारी के अंदामान/निकोबार भ्रमण के समय सुरक्षा के नाम पर चार सौ पेड़ों को ‘कत्ल’ कर दिया गया था ? वांदुर, गुप्तपाड़ा, पोर्टब्लेयर आदि स्थानों के मछुआरों को समुद्र में जाने से मना कर दिया गया ? रोज़ कमाने वाले खायेंगे क्या?

(हिन्दूः 13.01.08) 

किताबों का व्यर्थ बोझ, परीक्षा का ‘टेंशन’, कम्पटीशन, रैगिंग, शिक्षकों के द्वारा प्रताड़णा, फर्जी डिग्री, यौन शोषण, दुराचार और अंत में बेकारी… इनके बावजूद हम कब तक यह माँग करते रहेंगे कि बाल कहानिओं का अंत ‘सुखान्त’ ही हो?

आर्थिक चश्मा/शेयर/खुली निगाह :

गुरुवर हजारीप्रसाद द्विवेदी ने कहा था :‘भौतिक समृद्धि बढ़ाने का प्रयत्न होना चाहिए, पर उसे संतुलित करने के लिए साहित्य और संगीत आदि का बहुत प्रचार वांछनीय है।’ (साहित्य का मर्म)

अमरीकी आर्थिक मंदी के चलते बी.एस.ई. सूचकांक 1408.35 अंक लुढ़क गया (7.41 फीसदी)। मामूली निवेशकों को 6.6 लाख करोड़ (यह होता कितना है, जनाब?) का चूना लगाया गया, (दैनिक जागरण : 22.01.08.)। यूँ लक्ष्मी की आरती उतारने के चक्कर में आपके (कमाऊ) पूत का जीवन ही अंधकारमय न हो जाए, इसलिए जरूरी है इस ‘वैश्वीकरण एवं बड़बोलेपन की धुरी’ को भी वह ज़रा समझ ले। ‘रेतीली’ कहानी (झिलमिल जुगनूः जु-03) में इराक में भेजे गये अभागे अमरीकी सैनिक की नज़र से ही उस युद्ध का मुआयना कर सकते हैं।

ऐसे ही जीने के लिए एक कबाड़ी बच्चे को दुनियादारी की ‘टिप्स’ मिलती है,‘मैं ने (कबाड़ी लड़के ने) उसके नौकर से कहा,‘तुम कम तौल रहे हो,’ तो मालिक ने मेरा सारा प्लास्टिक उठाकर फेंक दिया। – ‘ले जाओ अपना कूड़ा कचरा -’

(कूड़ा – डा0 श्रीप्रसाद)

परिवार / समाज/ जिम्मेदारी और पैसा :

गांव से लेकर शहर की गलिओं में जो बच्चे घूम रहे हैं, पढ़-खेल रहे हैं, बरतन धोने, कालीन बुनने से लेकर कूड़ा बिनने का काम कर रहे हैं – हर एक के जीवन में कहानी की भूमिका है। गोर्की की आत्मकथा (मेरा बचपन, जनता के बीच, मेरा विष्वविद्यालय ) पढ़ने से पता चलता है – एक कबाड़ी से लेकर गोदी मज़दूर तक की भूमिका में – उसने क्या काम नहीं किया ? फिर भी लोगों के जीवन रोशन करनेवाला उपन्यास ‘माँ’ लिख डाला।

प्रेमचन्द के शंकर ने ‘सवा सेर गेहूँ’ उधार क्या लिया, केवल व्याज चुकाते चुकाते उसका जीवन दीप ही बुझ गया। तभी तो आज भी ‘हमके ओढ़ा दऽ चदरिया’ का कीर्तन गाना पड़ता है।

(न. ज्ञानोदयः नवं :07ः उषाकिरन खान)

‘अल्ग्योझा’ (प्रेमचन्द) पढ़ने से यह फायदा हो सकता है कि आज की मूलिया भाई भाई में बँटवारा न करवाये। आज के रघु को शायद पेंशन  मिल जाए …

अंततः

शुद्ध आर्थिक फायदे की ऐनक से साहित्य की लाख पैरवी की जाए, सच्चाई यह है कि कहानी-कविता में चाँदी की चमक नहीं होती। वह तो उस सूर्य-प्रकाश की तरह है जिसमें तम को मिटाने की ताकत है। जिससे अन्न के बीज अंकुरित होते हैं, जाड़े में जिसमें अवगाहन करके इन्सान एकाएक कह उठता है – आह! उसी तरह किसी भी रचनाकार की मेहनत तब सफल हो जाती है जब उसकी कहानी/कविता को पढ़ कर पाठक के मुँह से अनायास निकल पड़ता है – वाह!

यह भी जरूरी नहीं कि हर एक को कहानी- कविता अच्छी ही लगे। नौशाद को दुख है कि उनके पोतों का लगाव शास्त्रीय संगीत के प्रति नहीं, बल्कि ‘झमाझम म्युजिक’ के प्रति ही अधिक है। कबीर का बेटा कमाल अगर ‘राम नाम को छाड़ि के’ घर में सिर्फ ‘माल’ ले आता है, तो किया क्या जाए ?

‘सुसाहित्य’  बच्चों के मन की खिड़किओं को खोल सकता है। फिर चाहे वह किसी खिड़की से स्वाती या ध्रुव नक्षत्र को देखे, या अन्य खिड़की से सावन की जलधारा को …। मगर इसके लिए बाल साहित्यकारों के सामने भी खड़ी चुनौती हैः- अनुभूति, हास्य, रहस्य-रोमांच, विज्ञान (केवल रोबॉट और अंतरिक्षयान नहीं ), प्रकृति, जीवन के सुखदुख, संघर्ष, एडवेंचर, या भूतकथा (चौंकिए मत। कोई ‘कुसंस्कार नहीं पनपेगा।’ देः आजकलः नवं/07) आदि विषयों पर मन को छू लेने वाले संवेदात्मक साहित्य रूपी इन्द्रधनुष का निर्माण करें। तभी तो…

अदिति सीरीज (अं ) की लेखिका सुनीति नामजोशी के शब्दों में -‘मैं (बच्चों को ) सोचने के लिए कहती हूँ। मैं कहती हूँ – यही तुम्हारा सबसे बड़ा हथियार है!’

(हिन्दूः 03.02.08)

‘शिशु का जीवन’ कविता में रवीन्द्रनाथ ने ऐसा ही सवाल उठाया है :

‘किसमें हिम्मत बनने की है

             नन्हा बच्चा छोटा ?

                    जीते हैं बस बूढ़े ही बनकर ।

तिनका तिनका जोड़ चले हैं

             बक्सा भारी मोटा ,

                     पल पल केवल लेते हैं बस भर !’  

तो अच्छी कहानी- कविता पढ़ने की हिम्मत या फुर्सत  है?

♥ ♥ ♥ ♥ ♥

© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी

नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020

मो: 9455168359, 9140214489

ईमेल: [email protected]

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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