श्री संजय आरजू “बड़ौतवी”
☆ आलेख ☆ बढ़ती आत्महत्याएं करती आत्मविश्लेष की गुहार… ☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆
मध्य प्रदेश के सागर जिले के कस्बा बरीना (पर्वर्तित नाम) में डा.दंपति की कर्ज के दबाव में आत्महत्या की घटना मेरे लिए एक आश्चर्यचकित करने वाली घटना थी। ये आश्चर्य उस समय और बढ़ गया है जब पता चला, दोनों दंपति डा. होने के साथ-साथ राज्य सरकार में पदस्थ है। जहां उनकी अच्छी खासी नियमित तनख्वाह भी है।
आंखें तब विस्मित रह गई जब मालूम हुआ उनका बेटा पहले ही पटना से एम. बी. बी.एस. की पढ़ाई भी कर रहा है।
सामाजिक सरोकार की दृष्टि से देखा जाए तो डा.दंपति (कपूरिया परिवार नाम परिवर्तित) देश के एक प्रतिशत से भी कम भाग्यशालीधनी परिवारों में से एक है।
भाग्यशाली और धनी इसलिए कि घर के तीन लोग, में से दो की अच्छी तनख्वाह, शहर में खुद का घर जमीन, जायदाद सबकुछ होने के साथ साथ घर का एक मात्र शेष सदस्य उनका इकलौता बेटा भी सफलता की राह पर उम्र का इंतजार करता हुआ दिखाई पड़ता है।
मगर फिर भी डा. दंपती द्वारा आत्महत्या कर ली गई हालांकि अभी विस्तृत अन्वेषण बाकी है, परंतु फिर भी यदि आरंभिक जानकारियों एवम छपी रिपोर्ट का विश्लेषण किया जाए तो आधुनिक समाज की बढ़ती महत्वाकांक्षाओं एवं एकल परिवार होने के चलते विचारों के प्रवाह में किसी प्रकार के समायोजन की कमी के साथ ही, एक पीढ़ी द्वारा सब कुछ अगली पीढ़ी के लिए तैयार करके देने की अंतहीन प्रवृत्ति बढ़ती हुई दिखाई देती है।
कुछ घटनाएं ऐसी होती है जिनकी क्षति पूर्ति संभव नहीं परंतु इसकी पुनर्वृति तो रोकी जा सकती है। आत्महत्या की इस घटना में जो लोग असमय इस दुनिया से चले गए के प्रति सम्मान सहित परिवार में बचे इकलौते बेटे पर बीत रही मानसिक पीड़ा को समझते हुए ऐसी पुनरावृत्ति को रोकने के लिए शेष समाज को कुछ सीखने की आवश्यकता है।
परिवार में “सुविधाओं को सुख की गारंटी” मानने वालों के लिए यह घटना एक विचारणीय प्रश्न के रूप में होनी चाहिए।
कपूरिया दंपति जैसी सोच रखने वाले समाज में अभी भी अनेक लोगों के लिए एक सबक हो सकता है की अगली पीढ़ी के बारे में स्वयं ही सारे निर्णय लेने से पहले एक बार उनसे भी पूछ लिया जाए कि उन्हें क्या चाहिए और किसी कीमत पर?
अगर आज कपुरिया परिवार के पीछे बचे एकमात्र वारिस उनके बेटे से पूछा जाए की क्या उसने चाहा था इस कीमत पर उसे एक बना हुआ बड़ा हॉस्पिटल या तीन करोड़ का बंगला मिले तो यकीनन वो मना ही करेगा।
ऐसे में वो आत्मघाती महत्वाकांक्षा किसकी थी?
यदि दोनों विवेकशील दंपति ने लोन लेकर अस्पताल बनाने का निर्णय जो लिया था उस समय क्या भविष्य के खतरों एवं विपरीत परिस्थितियों का संपूर्ण आकलन किया था?
यदि किया था तो क्या उसमें अपने वर्तमान जीवन को प्राथमिकता देते हुए अपने लिए कुछ संभावना रखी थी?
मैं माता-पिता को स्वार्थी न होने की सलाह नहीं देना चाहता मगर अगली पीढ़ी के लिए, जो लोग अपनी कीमत पर उनका भविष्य उज्जवल करना चाहते हैं? उन्हे एक बार खुद से भी पूछ लेना चाहिए क्या इसमें उस अगली पीढ़ी की इच्छा भी शामिल है ? यदि हां तो क्या सब संभावित खतरों से उसे अवगत कराया गया है?
संभवत नहीं।
यहां एक पक्ष और उभर कर आता है वह है लोन मिलने की सरलता, विशेष रूप से प्राइवेट बैंकों द्वारा दिए जाने वाले आकर्षक ऑफर एवं लोन लेने के लिए प्रेरित करना। लोन देना, बैंकों का काम है इसके लिए प्रेरणा देना भी उनके कार्य का हिस्सा हो सकता है, मगर जहां बाजारवाद की इस प्रक्रिया में सब अपना अपना रोल निभा रहे है, बैंक व्यवस्था जो की वृहत आर्थिक नीतियों का हिस्सा है, यही बैंक व्यवस्था कई बार तात्कालिक रूप से लोन देने के लिए, छोटे मोटे नियमों का उल्लघंन करने को प्रेरित भी करती है जबकि बाद में उसी वजह से उत्पन जटिलता, इस तरह की घटनाओं का कारण बनती है। ऐसे में नियमों को क्षणिक उल्लंघन कितना दुःशकर हो सकता है ये आकलन भी हमें ही करना है।
यहां यह भी विचारणीय है कि, क्या हमें अपनी सीमा और महत्वाकांक्षाओं को पहचाना नहीं चाहिए?
संभावनाओं के आधार पर बड़े आर्थिक लाभ के लिए वर्तमान में सब कुछ दांव पर लगा देना ही तो जुआ है। क्या ऐसी बुराई की परिणति जो एक युद्ध के रूप में हमारे इतिहास में महाभारत जैसी विध्वंशक घटना के रूप में दर्ज है, से हमने कुछ नहीं सीखा?
शिक्षा का अभिप्राय केवल गणित के हिसाब लगाकर अच्छे भविष्य को देखना मात्र नही है।
शिक्षा महज आर्थिक गणना का नाम भी नहीं है। शिक्षा एक सार्वभौमिक सत्य की तरह है जो आदमी के सामाजिक, पारिवारिक, एवं वैचारिक मूल्यों के साथ विकसित होती है या यूं कहें कि होनी चाहिए। इन सामाजिक, एवं वैचारिक मूल्य की कमी का ही भयावह परिणाम इस तरह की घटनाएं है, जहां वर्तमान में सब कुछ अच्छा होने के बावजूद, एक और अच्छे कल के लिए, अक्सर अपना सबकुछ दांव पर लगा दिया जाता है।
आज के समय में बढ़ती प्रतिस्पर्धा, एवम येन केन प्रकारेन आगे बढ़ने की मानसिकता के साथ साथ श्रेष्ठ से भी आगे सर्वश्रेष्ठ के लिए दौड़ते रहना ही विकास एवं आर्थिक संबलता का पैमाना बनाता जा रहा है, जिसकी परिणीति यदा-कदा हमारे समाज में होने वाली इस तरह की विभत्स घटनाओं के रूप में सामने आती है।
प्रश्न यह है कि इसका हल क्या है?
कैसे रुकेंगी ये आत्महत्याऐं? क्या एक और घटना के साथ अखबार में एक और खबर छपकर रह जाएगी?
बढ़ती आत्महत्याएं, हमारे लिए सामाजिक सरोकार की आवश्यकता के साथ-साथ व्यक्तिगत मंथन और भविष्य के प्रति जागरूक होने के साथ, अपने सपनों के प्रति थोड़ा और उदार होने की मांग भी कर रही है।
साथ ही एक सोच कि “हम जिम्मेदार मां बाप अपने रहते ही l सबकुछ कर दें, ताकि अगली पीढ़ी को कुछ ना करना पड़े या अगली पीढ़ी खुश रहे, ” ऐसे विचारों के साथ एक विचार और जोड़ने की आवश्यकता है। जो की
एक सर्वविदित सत्य कि तरह हमारे आस पास ही है बस उसे आत्मसात करने की आवश्यकता है जिसके अनुसार “कोई भी जीवन अपने जन्म के साथ ही अनेकों संभावना एवं घटनाओं के एक क्रम के साथ जन्म लेता है जिसमें उस नव जीवन को कुछ सौभाग्य परिवार से, कुछ समाज से, तो कुछ उसके जीवन में “खुद के पुरुषार्थ” से मिलता है। इसमें “खुद का पुरुषार्थ” का हिस्सा उस जीवन विशेष के प्रयास एवं विवेक पर छोड़ना होगा, जिसकी चिंता में हम तथाकथित विचारशील लोग, अपना सबकुछ दांव पर लगा देते हैं, वो भी उस व्यक्ति सहमती – असहमति पूछे बिना।
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© श्री संजय आरजू “बड़ौतवी”
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