सुश्री इन्दिरा किसलय
☆ हिन्दी के उन्नयन में महिलाओं की भूमिका ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆
भाषा, मानव ने ईजाद की, पशुओं ने नहीं। प्रकृति की ध्वनियों को आत्मसात कर उसने शब्द रचे। लिपि का अविष्कार कर विकास के कई सोपान पार किये।
सभ्यता और संस्कृति का संवहन भाषा ने किया और करती रहेगी। हिन्दी की बात करें तो वह शताधिक भाषा बोलियों का समूह है। विश्व में इंग्लिश और मैंडारिन के बाद सर्वाधिक बोली जाने वाली भाषा। जो अद्यावधि राजभाषा और संपर्क भाषा का स्थान पा गई, पर राष्ट्रभाषा का दर्जा उससे दूर है।
बेशक राष्ट्रभाषा का मुद्दा सरकार के अधीन है पर हिन्दी और तमाम बोलियों के सम्मान का मुद्दा तो हमारे वश में है। विशेषतः महिलाओं के।
जाहिर सी बात है 2–3 वर्ष का बच्चा तेजी से सीखना चाहता है। पाँच वर्ष की उम्र तक वह माँ के संस्कार और परिवेश से जो भी सीखता है, आजीवन नहीं भूल पाता।
कान्वेंट कल्चर के भीषण प्रसार के साथ, पिता ही नहीं मांएं भी “अंग्रेजी” को स्टेट्स सिंबल बनाकर पेश करती हैं। कामवाली बाई तक शान से बखानती है, कि उसका बच्चा हिन्दी नहीं इंग्लिश मीडियम स्कूल में पढ़ता है। नर्सरी से पी. जी. तक हिन्दी उपेक्षित है। कितने ही स्कूलों में हिन्दी बोलने पर सजा दी जाती है।
हर भाषा बोली की एक संस्कृति होती है। जिसमें खान पान, परिधान, पूजा प्रणाली, साहित्य, संगीत, और अन्यान्य प्रथा परंपराओं का समावेश होता है।
अंग्रेजी पढ़नेवाले में उसी भाषा के संस्कार उपजेंगे ना। फिर खाली पीली टसुए बहाने से क्या फायदा कि हमारा बच्चा भारतीय आचार विचार, धर्म, व्यवहार, और नीतिगत बातें नहीं जानता।
“माँ बच्चे की प्रथम गुरु है। “मित्रमण्डल एवं गुरुजन, नाते रिश्तेदार, सभी बाद हें आते हैं।
माँ- वर्किंग वुमन हो या होम मैनेजर, कितनी ही आधुनिका क्यों न हो, यथा संभव समय निकालकर बच्चे के कोमल मन की गीली मिट्टी को सही आकार देने का प्रयत्न करे।
हिन्दी दिवस पर सोशल मीडिया में हिन्दी का इतना कसीदा पढ़ा गया कि बाढ़ आ गई। पर कुछ जायज शिकायतें भी मिलीं। हैरानी है कि हम ही बच्चों को हिन्दी से दूर करें और हम ही रोये गायें कि बच्चा हिन्दी की वर्णमाला, हिन्दी के अंक, पहाड़े, हिन्दी माह के नाम तक नहीं जानता।
“ट्विंकल ट्विंकल लिटिल स्टार” बुलाकर हम बच्चों को विश्व विजेता की मुद्रा में पेश करते हैं। ऐसे में बच्चों का क्या कसूर।
आज भी बाजार, मनोरंजन, धर्म, पर्यटन, और संपर्क की भाषा हिन्दी है। कारीगर श्रेणी के लोगों से जैसे कार्पेंटर, प्लंबर, इलेक्ट्रीशियन, सिलेंडर लानेवाला, सफाईकर्मी सभी से व्यवहार की भाषा सिखाना माँओं का कर्तव्य है। ये कि वे भी सम्मान के हकदार हैं।
अकादमिक शिक्षा के अलावा यह भी बहुत जरूरी है।
इन दिनों आदरसूचक संबोधन, परस्पर सहयोग, और नैतिकता का पर्याप्त अभाव पाया जा रहा है। इन गुणों का विकास बाल्यावस्था से शुरू होता है। बेशक बड़ों के पाँव न छुएं पर मित्रों की तरह” हाय हैलो” कहने की बजाय “नमस्कार प्रणाम “तो हिन्दी में करें।
माताओं — आदरसूचक संबोधन तेजी से खो रहे हैं। ध्यान दीजिए।
सोशल मीडिया विशाल स्तर पर बच्चों को प्रभावित कर रहा है। यू ट्यूब पर 60% कंटेंट हिन्दी का है। सामान्य जीवन में हमेशा हिन्दी चलती है, इंग्लिश नहीं। भारत, भारत है ब्रिटेन नहीं।
किसी भी भाषा के प्रति प्रेम और सम्मान का उदय, बचपन से होता है। अगर महिलाएं बच्चे के मन में हिन्दी के प्रति हीनता- बोध और दोयम दर्जे को जन्म देंगी तो वह आगे चलकर हिन्दी बोलनेवालों के प्रति सम्मान का भाव नहीं रख पायेगा। उन्हें कमतर समझेगा।
हिन्दी हमारी धरोहर है। वह उस स्थान पर प्रतिष्ठित नहीं है जिस स्थान पर होनी चाहिए। यह दुर्भाग्यपूर्ण है। भारत में गलत इंग्लिश बोलनेवाले वंदनीय हैं पर शुद्ध हिन्दी, मराठी, बांग्ला, पंजाबी, आदि भाषाएं बोलनेवाले नहीं। औपनिवेशिक दासत्व के अवशेष मुख्यधारा का सच बन गये हैं।
अगर दृष्टान्त ही चाहिए— तो चीन, जापान, जर्मनी, फ्रांस, ईरान, इराक, द कोरिया आदि कितने ही देश अपनी भाषायी अस्मिता का परचम लहरा रहे हैं, –उनसे लेना होगा। ।
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© सुश्री इंदिरा किसलय
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈