डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी
(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो हिंदी तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद हो चुकाहै। आप ‘कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।)
☆ कथा-कहानी ☆ यामिनी विश्वासघातिनी ! ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी ☆
काम काम और काम। मगर कोई न देता दाम। कई दिनों से सुबह से शाम तक खटते खटते कुमुद यानी कुमुदिनी का अस्थि पंजर ही मानो ढीला हो गया है। कूटभाषा में जिसे कहा जाता है खटिआ खड़ी हो जाना!
तिस पर हैं उसका अलि यानी पति यानी मधुकर। इधर कई दिनों से कुमुदिनी का मधु न पाकर मधुकर तिलमिलाये बैठे हैं। हर समय डसने को तैयार। यह तो भाग्य की विडंबना या किस्मत का विद्रूप ही कहिए कि शब्दकोष में ‘अलि’ का अर्थ अगर भौंरा है तो ‘अली’ का अर्थ है सखी।
वैसे मधुकर अब फिफटी प्लस हैं। बिटिया का ब्याह निपटा कर ससुर भी बन गये हैं। हफ्ता भर हुआ बेटी झिलमिल मायके आयी हुई है। इस खानदान के बच्चों में तो झिलमिल सबसे बड़ी है ही, उधर ननिहाल में भी वही सबसे बड़ी नातिन और भानजी। तो दीदी को चिढ़ाने और उसके साथ जमकर मजा लूटने सभी चचेरे और ममेरे भाई बहन भी हाजिर हो गये। इन्दौर से आये हैं चाचा चाची और उनके बच्चे। तो छोटी मौसी और मौसा शक्तिगढ़ से यहाँ पधारे हैं। सपरिवार। और सबकी आव भगत करते करते कुमुद का शहद बिलकुल करेला हो गया है। बड़ों में कोई अपनी डायबिटीज से पंजा लड़ाने बिना चीनी की चाय की माँग करता है तो किसी को चाहिए खड़ी चम्मच की चाय! (अमां यार, चीनी की कीमत जाए चूल्हे भांड़ में!) फिर सलीम को अगर गोभी के पराठे पसंद हैं, तो अकबर को चाहिए आलू के पराठे। और कई छोटे मियां तो जबतब हुक्म दे देते हैं, ‘मौसी! ताई! जरा मैगी बना दो न। बस दो मिनट तो लगेंगे। ’ दो मिनट न हुआ मानो किसी परकोटे से तोप दागी गयी…!
रामायण यहीं खतम नहीं होती ……
झिलमिल की चाची सरकारी अफसर हैं। जेठ के घर आते ही उनका सारा कलपुरजा ढीला पड़ जाता है। कहती हैं, ‘भई, यह तो ठहरा मेरा मायका। मैं तो बस यहाँ रेस्ट लेने ही आती हूँ। ’ अंततः देवर की शर्ट गंजी इत्यादि भी भाभी को ही ढूँढ कर देना पड़ता है।
उधर मौसी की अपनी दीदी से प्यार भरी माँग, ‘वो तो कहते हैं कि तेरे हाथ के बने छोले भठूरे में जो स्वाद है वो तो खाना खजाना रेस्टोरेंट के छोले भठूरे में भी नहीं। और हाँ, वो जो तेरी बंगालिन सहेली से तूने भापा दही सीखा है, वो जरूर बनाना। पिछली बार तो वो जीभ चाटते रह गये थे। ’
तो दिन भर सबकी खिदमत करते करते कुमुदिनी मानो मूर्तिमान पतझड़ हो गयी है। हाड़ कँपाती ठंड में भी पसीने से लथपथ। देखसुन कर मौका मिलते ही मधुकर ने ए.के. फिफटी सेवेन चला दिया, ‘जरा ठंग से साड़ी भी नहीं पहन सकती? घर में दामाद आनेवाला है …’
‘ज्यादा बकिए मत। कितनी हाथ बँटानेवालीवालिओं को आपने मेरी मदद के लिए रखा है? इसीलिए तो कहती हूँ कि मैक्सी ही पहना करूँगी। ’
‘अरे यार, तुमसे तो कुछ कहना भी गुनाह है। अरे जरा ठीकठाक दिखो इसीलिए तो …’
‘अब मुझको क्या देखिएगा? देखने के लिए तो समधिन भी ला दी है मैंने। ’
सीरियल यहीं खतम नहीं होता। खाने के बाद सबका सोने का इंतजाम करना। सारे भाई बहन तो कम्प्यूटर और टीवी लेकर देर रात तक ऊधम मचाते रहते हैं। उधर अम्मांजी की बगलवाले कमरे में देवर और देवरानी। इनके अपने बिस्तर पर कुमुद की बहन और बहनोई। तो बेचारे मधुकर सोये तो सोये कहाँ? ‘अब सो कर क्या करेंगे जब दिल ही टूट गया’ के अंदाज में किसी अतृप्त रूह की तरह यहाँ से वहाँ भटकते फिरते हैं। इधर कई रातों से पराये धन की तरह पत्नी से दूर दूर रहने के कारण भी मधुकर का पारा चढ़ा हुआ है। मौका मिलते ही डंक मारने से वह पीछे नहीं हटता, ‘मैं हूँ कौन? मेरी औकात ही क्या है? घर का नौकर यानी बैल। सब्जी लाओ, तो रसवंती से मिठाई लाने सुग्गा गली तक दौड़ो। बस, फिर कौन पहचानता है? अब तो किसी दिन यही पूछ बैठोगी – ‘भाई साहब, आप हैं कौन? किससे मिलना है? क्या चहिए? ’’
इधर तो हर रात कुमुद झिलमिल को लेकर ही सोती रही। नतीजा – ड्राइंगरुम का सोफा ही बना मधुकर की विरह शय्या। मगर कल शाम को जमाई राजा आ पहुँचे हैं। अब? खुशकिस्मती से कुमुद के ससुर ने कई कमरे बना रक्खे थे, तभी तो सबका निपटारा हो सका। मगर मधुकर कहाँ जाये? छतवाले कमरे में? वहाँ क्या क्या नहीं है? पतंग परेता से लेकर बेड पैन, पेंट के डिब्बे, टूटी हुई कुर्सी, बिन पेंदे की बाल्टी और माताजी के जमाने की महरी शामपियारी की खटिआ इत्यादि। शामपियारी तो कब की रामप्यारी हो गयी, बस उसका स्मृतिशेष यहीं रह गया।
कुमुद के मातापिता के काफी दिनों से अभिलाष रहा कि वे यहाँ आकर विश्वनाथजी का दर्शन कर लें। दामाद ने कई बार उनलोगों से कहा भी है, ‘बाबूजी, आपलोग तो कभी हमारे यहाँ आते ही नहीं। ’ इतने दिनों बाद मौका मिला। नातिन उसके पति के साथ आ रही है, तो नाना नानी भी उनसे मिलने आ पहुँचे। फिर उन्हें भी तो एक अलग कमरा चाहिए। आते ही कुमुद की माँ ने चारों ओर अपने सामानों को करीने से रख दिया। अल्मारी में ब्लडप्रेशर और थाइरायड की दवाइयाँ, टेबुल पर बजरंगबली का फोटो, बगल में एक छोटा सा सुंदरकांड। आले पर हरिद्वारबाबा का चूरन।
डिनर समाप्त। झिलमिल नाना नानी के कमरे में बैठे बातें कर रही है। छोटे छोटे साले सालियाँ जीजा को लेकर गुलछर्रे उड़ा रहे हैं। मगर वो बेचारा सोने को अकुला रहा है। उस माई के लाल को पता नहीं कि उसके खिलाफ कौन सा शकुनि षडयंत्र रचा जा रहा है। चचेरा साला नन्हा धोनी ने पूछा, ‘जीजू, जब आप पहली बार प्लेन में चढ़े तो डर नहीं लग रहा था? प्लेन की खिड़की से देखने पर नीचे कार वार कितनी बड़ी बड़ी दिखती हैं? ’
जीजा के बिस्तर पर झिलमिल का भाई जय और उसके चचेरे भाई ने मिलकर झिलमिल की जगह दो तकिये को रखकर एक लिहाफ से इस तरह ढक दिया है कि लग रहा है वहाँ कोई सो रहा है। उनलोगों ने नानी को पटा रक्खा है। जय ने नानी को इशारा किया। नानी जाकर जमाई से बोली, ‘झिलमिल की तबियत खराब हौ। तोहे जरा बुलावा थइन। ’
‘क्या हो गया?’ कहते हुए आनंद निरानन्द होकर उधर दौड़ा।
वह कमरे के अंदर घुसा और दरवाजा बाहर से बंद हो गया। ‘क्या हो गया, डार्लिंग?’ कहते हुए उसने ज्यों लिहाफ को झकझोरा तो लो लिहाफ पलंग पर और उसके नीचे – यह क्या? सिर्फ तकिया! आनन्द झुँझलाते हुए दरवाजे की ओर लपका,‘नानी, झिलमिल कहाँ गयी? वह ठीक है न? ’
बाहर सभी खिलखिलाकर हँस रहे थे। अंदर आनन्द खिसिया रहा था। सारे बच्चे चिल्लाने लगे, ‘आज दीदी हमलोगों के साथ सोयेगी। आप अकेले ही सो जाइये। ’
हहा ही ही काफी देर तक चलती रही। आखिर नानी ने समझौता एक्सप्रेस चलाया। और इन घनचक्करों के चलते कुमुद को ख्याल ही न रहा कि उसके पति परमेश्वर ने कहाँ आसन जमाया है। रात गहराती गयी।
कुछ ऐसा ही तो हुआ था छोटे देवर की शादी के समय। नई दुलहन की बिदाई हो गई थी। घर में लोगों का सैलाब। नीचे बैठके में टेंटवाले का गद्दा चादर बिछाकर एकसाथ सबका सोने का इंतजाम किया गया था। कुमुद का हालत पंचर। बस, कहीं जगह मिले और आँखें बंद कर ले। उसने छोटी ननद ननकी के हाथों एक जयपुरी रजाई देकर कहा,‘इसे लेकर नीचे जा। मैं ऊपर से सब निपटा कर पहुँच रही हूँ। तेरी बगल में मेरी जगह रखना। ’
सीढ़ी से ननकी नीचे उतरी ही थी कि उसका रास्ता रोककर उसका रखवाला खड़ा हो गया, ‘मायके आकर तो मुझे जैसे पहचानती ही नहीं। ’
‘क्या कर रहे हैं जी, हाथ छोड़िये। भाभी वाभी कोई देख लेगी तो क्या कहेगी?’
‘क्या कहेगी – मेरी बला से। मैं तुम्हारी भाभिओं का हाथ थोड़े न थाम रहा हूँ! साक्षात अग्नि को साक्षी मानकर तुम्हारा हाथ थामा है मैं ने। खुद तो इतनी मुलायम जयपुरी रजाई के नीचे सोवोगी। और मैं? बनारसी भैया के पास कौन माई का लाल सो सकता है? ऐसे नाक बज रहे हैं कि पूछो मत। अरे बापरे! बार्डर में भेज दिया जाए तो पाकिस्तानी फौज ऐसे ही भाग खड़ी होगी। ’ कहते कहते अद्र्धांगिनी के हाथ से रजाई लेकर वे एक किनारे सीधे हो गये। ननकी जाकर द्विजा बुआ की रजाई के अंदर घुस गयी। करीब आधे घंटे बाद कुमुद जब सोने के लिए नीचे आई तो वहाँ सुर संग्राम छिड़ा हुआ था। फुर्र फुर्र ….घर्र घर्र….फच्च्…तरह तरह की नासिका ध्वनि से कमरा गुंजायमान् हो रहा था….
मद्धिम रोशनी में कुमुद ने वह रजाई तो पहचान ली। जैसे थका हारा बैल घर लौटकर सीधे सानी भूसा से भरी अपनी नाँद में मुँह घुसा देता है ,उसी तरह वह भी उस रजाई के अंदर घुस गई। और अंदर जाते ही,‘हाय राम! आप? नन्दोईजी ,आप यहाँ कैसे? ननकी कलमुँही कहाँ मर गयी? छि छि!’
फिर उतनी रात गये तहलका मच गया। मानो सोते हुए लोगों के ऊपर से कोई बिल्ला दौड़ गया है। या पुण्यभूमि काशी की किसी टीन की छत पर बंदरों का झुंड उतर आया है और भरतनाट्यम् कर रहा है!
ननकी तो हँस हस कर लोटपोट हो रही थी, ‘भाभी, तुम्हारा इरादा क्या है? ’
‘चुप बेशर्म! तुझसे मैं ने कहा था न कि तेरी बगल में मेरे लिए जगह रखना। बड़ी आयी प्रीतम प्यारी। वो रजाई उनको क्यों देने गई? चुड़ैल कहीं की। ’
खैर वो कहानी तो अब ब्लैक एंड व्हाइट जमाने की हो चुकी है। मगर आज की रात …..
कमरों के बीच डाइनिंगटेबुल के पास दो कुर्सिओं को हटाकर कुमुद वहीं कमल के पत्ते की तरह फैल गयी। उधर मारे ठंड के एवं गुस्से से भी मधुकर काँप रहा था। क्योंकि सबको लिहाफ और कंबल देते देते जाने किसके पास उसकी रजाई पहुँच गयी है। कुमुद ने भी ध्यान नहीं दिया। बलमवा बेदरदी! तो मधुकर ही क्यों माँगने जाये? मगर इतने जाड़े में बदन पर सिर्फ सोयेटर चढ़ा लेने से क्या नींद आती है? गयी कहाँ रानी? इधर मेरी हैरानी! पिंजरे में बंद षेर की तरह मन ही मन गुर्राते हुए वह ऊपर चला आया। डाइनिंग स्पेस की ओर झाँकते ही उसने मन ही मन यूनानी दार्शनिक आर्किमेडीज की तरह कह उठा, ‘इउरेका! मिल गैल, रजा! ’ स्वाधिकार बोध से सिकन्दर की तरह वह रजाई के अंदर घुसने का प्रयास करता है….. और तभी ……
उधर कुमुद गहरी नींद में गोते लगाते लगाते एक ख्वाब देख रही थी। मानो घर में किसी की शादी का तामझाम चल रहा है। मेहमान भोजन कर चुके हैं। इतने में – अरे ओ मईया! – छत से पाइप के सहारे एक बंदर नीचे उतर आया है। और वो कलमुँहा कुमुद के तकिया के नीचे से चाभी निकाल रहा है। मिठाईवाले कमरे का ताला खोलने? हे बजरंबली, यह तुम्हारी कैसी लीला? कुमुद अपनी पलकें खोले बिना ही चिल्लाने लगी,‘बंदर! बंदर! चोर -! बचाओ! ’
तुरंत मधुकर ने पुरानी फिल्मों के विलेन की तरह उसका मुँह दाब लिया,‘ऐ चुप!चुप! मैं हूँ। चिल्ला क्या रही हो? ’
शोरगुल – धूम धड़ाका! देखते देखते तीनों कमरों के दरवाजे खुल जाते हैं। देवर की जिज्ञासा,‘क्या हुआ भाभी? इतना शोरगुल किस बात का? ’
दूसरे दरवाजे से झिलमिल की मौसी जॅभाई लेते हुए तिरछी नजर से इधर देख रही थी, ‘दीदी, यहाँ तो सिर्फ जीजू ही हैं। क्यों बेकार का चिल्ला रही है? सबकी नींद खराब कर रही है। ’
झिलमिल और जय की नानी भी तीसरे दरवाजे पर,‘बचपन से तोर यही बुरी आदत नाहीं गैल, कुमुद। सपना देखे क इ भी कोई टेम भैल? चल भूतभावन शिवव का नाम ले आउर सुत जा। ’
इतने में फतेहपुर सीकड़ी के बुलन्द दरवाजे की तरह चौथा दरवाजा खुल गया और वहाँ जमाईराजा आनन्द स्वयम् आ बिराजमान हो गया। दामाद भी अपने सास ससुर की ओर देख रहा है। निगाह में कार्ल माक्र्स की ‘क्रिटिकल क्रिटिसिज्म’……
उधर फर्श पर लेटे मधुकर और कुमुद को काटो तो खून नहीं। आधुनिक नाटकों के फ्रिज शॉट की तरह दोनों प्रस्तरवत जकड़ गये हैं। न हिलना, न डुलना। और दृष्य कुछ ऐसा है – कुमुद के ऊपर मधुकर ऐसे झांक रहा है मानो कमल के फूल के ऊपर भौंरा। एक अद्भुत स्टिल फोटोग्राफी! मानो किसी पुरानी ईस्टमैनकलर हिन्दी फिल्म का पोस्टर दीवार पर चस्पा है। एक हॉट सीन!
बेचारा मधुकर करे तो क्या करे? सेल्फ डिफेन्स में कहना ही पड़ा,‘मेरी रजाई तो जाने किसको दे दी है। इतनी ठंड में मैं कैसे सोऊँ? यहाँ सोने आया तो ऐसे चिल्लाने लगी मानो डाकू मानसिंह घर के अंदर घुस आया है। ’
‘अच्छा तो यह बात है! हम लोग तो पता नहीं क्या क्या सोच रहे थे। ’ भाई एवं साढ़ूभाई ने कोरस में कहा।
दामाद के होठों पर शरारतभरी मुस्कान,‘तो मम्मीजी, अब हम सोने चलें? ’
सूरज के ढलते ही जैसे पंकज की पंखड़ियाँ बंद होने लगती हैं उसी तरह कुमुद ने भी आँखें बंद कर लीं। ऐसी हालात में दामाद से वह कैसे नजर मिलाती? मन ही मन वह सीता मैया की तरह कहने लगी,‘हे धरती मैया, मुझे अपनी गोद में समा जाने दो! इस लाज हया से बचा लो!’
तो दृष्यांत के बाद…..
वे सभी अपने अपने कमरे में जा चुके हैं। मधुकर अब क्या करता? जो होना था हो गया। वह अपना सा मुँह बनाकर अपनी अर्धांगिनी के पास उसी रजाई के अंदर लुढ़क गया ….. बस्स् …….
♦♦♦
© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी
नया पता: द्वारा, डा. अलोक कुमार मुखर्जी, 104/93, विजय पथ, मानसरोवर। जयपुर। राजस्थान। 302020
मो: 9455168359, 9140214489
ईमेल: [email protected]
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈