मानवीय एवं राष्ट्रीय हित में रचित रचना

 

श्री सदानंद आंबेकर 

 

 

 

 

 

(  श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है।  गायत्री तीर्थ  शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से  निरंतर प्रवास श्री सदानंद आंबेकर  जी  द्वारा रचित  यह समसामयिक कहानी  ‘जानवर’ हमें जीवन के कटु सत्य से रूबरू कराती है । यह वास्तव में  यह विचारणीय प्रश्न है कि – वसुधैव कुटुम्बकम  एवं वैश्विक ग्राम की परिकल्पना करने वाले हम  मानवों की मानसिकता कहाँ जा रही है।  जो जंगल में रह रहे हैं वे जानवर हैं या कि हम ? बंधुवर  श्री सदानंद जी  की यह कहानी पढ़िए और स्वयं तय करिये। इस अतिसुन्दर रचना के लिए श्री सदानंद जी की लेखनी को नमन ।

 लघुकथा  – जानवर

नंदनवन में सभी पेड़ उदास भाव से अपनी पत्तियां हिला रहे थे, दूधिया झरना भी मंदगति से बह रहा था। मुख्य वन में दो सौ साल पुराने बरगद के नीचे जंगल के सभी जानवर एकत्रित होकर चिंतित भाव से बैठे दिख रहे थे।

एक लंबी उसांस भर कर चीकू खरगोश  ने पूछा – भूरे दादा, आदमियों की इस बस्ती में इतना सन्नाटा क्यों पसरा है ? परसों, वहां से मेरे  दूर के भाई कबरा को उसके मालिक ने छोड दिया तो उसने आकर बताया कि सारे लोग अपने-अपने घरों में बंद होकर बैठे हैं। उसने कहा कि बाहर हवा इतनी साफ और नदी इतनी चमचम कि मुझे लगा मैं नंदनवन में आ गया हूं।

सरकू सांप ने बीच में ही बात छेडी कि अरे मैं भी कल चूहे खाने शहर की सीमा में गया तो मुझे देखकर कोई डरा नहीं और किसी ने भी मुझे मारने की कोशिश नहीं की।

चूहे का नाम आते ही जानवरों में शोर-शराबा शुरू  हो गया। चूहा, चमगादड़ और बंदर एक साथ बोल पड़े हां, हां शहरों में रहने वाले हमारे रिश्तेदारों ने भी हमें बताया है कि एक अत्यंत घृणित देश  में भी हमें खाने की परंपरा एकदम बंद हो गई है, इस पर उन्हें बड़ा आश्चर्य हो रहा है।

इस चख-चख के चलते बूढे़ बरगद दादा ने भी बहुत धीमी आवाज में कहा- हां. . . . . . . . . . . . मैं भी देख रहा हूं कि पिछले कुछ दिनों से इस जंगल में भी पेड काटने कोई नहीं आया है।

उनकी बात सुनकर जंबो हाथी चाचा ने जोर जोर से सिर हिलाकर सूंड उठाकर कहा- अरे वहां तो इतना सन्नाटा है कि अब तो हमारी पत्नी और बच्चे, मेरे अड़ोसी-पड़ोसी, रोज हर की पैडी पर गंगा में नहाने जा रहे हैं। एक दिन तो हम हरिद्वार के बाजार में भी घूम आये पर हमें भगाने के लिये कोई भी आगे नहीं आया ।

यह सब सुनते हुये भूरे भालू दादा ने बडे गंभीर स्वर में कहा- सुनो-  मैं बताता हूं तुम्हें, इन सबके पीछे क्या कारण है। मनुष्यों  में इन दिनों कोई बहुत गंभीर बीमारी फैल रही है, असल में मनुष्य  भी बहुत ही गलत आदतों में डूब गया था, पर मुझे ये बिलकुल ठीक नहीं लग रहा है। मनुष्य  और हम जानवर  इस धरती पर ख़ुशी-ख़ुशी  रहने के लिये बनाये गये हैं, अगर वे हमें मारते-परेशान करते हैं तो क्या, उन्हें यह बात अब समझ आ गई है। इसलिये आओ- हम सब मिल कर वनदेवी से प्रार्थना करते हैं कि इन मनुष्यों  को इस मुसीबत से छुटकारा दिलवा दे। बेचारे बहुत ही कष्ट में हैं, इनके लिये अब  इतनी सजा ही काफी है।

भूरे दादा की बात सबको समझ आ गई और प्रार्थना करने के लिये हाथी चाचा ने सूंड लंबी कर के ऐसी जोरदार चिंघाड लगाई कि पूरा जंगल हिल गया और मैं भी पलंग से नीचे गिर पड़ा और मेरी नींद खुल गई।

थोड़ा सचेत होते ही इस सपने को याद कर के मैं यह सोचने लगा कि जंगली जानवर वे हैं या हम मनुष्य  ??

 

©  सदानंद आंबेकर

शान्ति कुञ्ज, हरिद्वार ( उत्तराखंड )

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