श्री दिनेश अवस्थी

(वरिष्ठ साहित्यकार श्री दिनेश अवस्थी जी का ई-अभिव्यक्ति में हार्दिक स्वागत। आदरणीय श्री दिनेश जी, परसाई की नगरी जबलपुर से हैं । उन्हें परसाई साहित्य से अगाध प्रेम है । उन्होंने परसाई रचनावली के समस्त 6 खंडों की रचनाओं की एकीकृत सूची बनाई है। वे स्वयं भी व्यंग्य, कहानी आदि लिखा करते हैं। आज प्रस्तुत है आपकी एक विचारणीय कहानी ममता।)

☆ कथा कहानी ☆ ममता ☆ श्री दिनेश अवस्थी ☆

एक परिवार की कहानी है। वैसे तो यह कहानी सैकड़ों परिवार की है। पति-पत्नी के चार बेटे थे। बेटी नहीं थी। मध्यमवर्गीय सामान्य परिवारों की तरह पति-पत्नी बेटी न होने का रोना रोते और बेटी न होने पर भीतर ही भीतर खुश होते। तीन बेटे पूर्णतः स्वस्थ थे। सबसे छोटा चौथा बेटा, शरीर से स्वस्थ किन्तु मंद-बुद्धि था। तीनों बेटे पढ़-लिख गए पर मंदबुद्धि नहीं पढ़ पाया। तीनों स्वस्थ बेटे इतने भी योग्य नहीं थे कि कोई बड़ी आर्थिक-क्षमता धारण करते। पिता की पेंशन तीनों की आय से अधिक थी। अपने मित्र के यहां ऑफिस कार्य कर वे अतिरिक्त आय पा लेते थे । पिता की अधिक आय ने तीनों स्वस्थ बेटों को रोक रखा था वरना बेटों की अधिक आय पिता की उपेक्षा और बदतमीजी का कारण बनती ही है।

सामान्यतः पेंशन यानि आधा वेतन पूरी अवहेलना और तिरस्कार लेकर आता है। पिता इस मामले में भाग्यशाली थे। कमजोर आर्थिक स्थिति के कारण तीनों बेटे पिता के प्रति आज्ञाकारी और विनम्र थे। पेंशन तथा अतिरिक्त आय के साथ अपनी कमाई मिलाकर वे किसी तरह पिता के घर के भीतर ‘अपना घर’ चला रहे थे।

मंद बुद्धि बेटा घर पर ही बैठा रहता था। जिस घर में पर्याप्त अर्थ नहीं होता वहां बहुत सी बातें दिखने और घटने लगती हैं। बचपन में बड़े भाई छोटे को घोड़ा बनकर पीठ पर बैठाते थे अब पीठ पर चढ़े बिना ही वह उन्हें भारी दिखने लगा। दिन प्रतिदिन वह और भारी लगने लगा था। मंद बुद्धि छोटा भाई उन्हें मुफ्त की रोटी तोड़ने वाला दिखने लगा। बड़ी भाभी द्वारा कभी दिया गया संबोधन बैल अब सबकी जुबान पर था। बात होने लगी थी कि बैल जैसा है, कुछ न करे तो मजदूरी ही करे। चारों में तीसरा बेटा मुंह फट और उद्दंड प्रवृत्ति का था, बोला- इन कलेक्टर साहब को पिता जी की शह है।

कहते हैं कि बेटा मजदूरी नहीं करेगा, मेरी इज्जत का सवाल है। अब कौन बताए कि रिटायर हेड क्लर्क की ऐसी कौन-सी इज्जत होती है जो इन साहब के मजदूरी करने से चली जाएगी। घर में सर्वाधिक आय वाली पेंशन का दबाव काम कर जाता। स्वस्थ बेटे मन मसोस कर रह जाते।

बैल के मजदूरी करने के प्रस्ताव ने प्रारंभ में पिता और मां दोनों को ही चोट पहुंचायी। ताजा रिटायर हो चुके किंतु पूरे वेतन के प्रभाव से मुक्त न हो सके पिता अधिक आहत हुए थे। मंद बुद्धि बेटे के लिए बैल शब्द से आहत उनका अहंकार बोला- मैं अभी जिंदा हूं। अपनी पेंशन से इसे खिला सकता हूं। मेरे बाद इसकी मां को पेंशन मिलेगी वो इसे खिलाएगी। मां के बाद भी तो मंद बुद्धि बेटे को जीवित रहना है तब उसे कौन खिलाएगा? पेंशन तब बंद हो जायेगी। इसका उत्तर न तो पिता के पास था और न ही मां के पास। पिता को लगता था कि मृत्यु उपरांत शरीर रहित होकर भी वे परिवार को वैसे ही नियंत्रित करेंगे जैसे अभी कर रहे हैं। पारिवारिक सदस्य उन्हें तब भी मानेंगे जैसा कि अभी मानते हैं। वे यह भूल जाते थे कि उन्हें माने जाने का कारण पेंशन तो तब नहीं रहेगी। तब क्या? अभी ही अगर उनकी पेंशन नहीं होती और बेटों की आय से अधिक नहीं होती, तब इसी लोक में उनकी दुर्गत होती। वे यह नहीं सोच पाए कि मृत्यु उपरांत न तो उनकी चेतना रहेगी, न स्मरण शक्ति और न ही अनुभूति होगी। तब मंद बुद्धि बेटा खाता है या नहीं उसकी मुझे क्या फिक्र करना? मृत्यु उपरांत मैंने किसी अन्य परिवार में जन्म ले लिया तब क्या होगा? इस परिवार की परिचय पुस्तिका के दहन उपरांत ही तो मुझे किसी दूसरे परिवार में स्थान मिलेगा।

यह भी हो सकता है कि उस पार का जीवन, इस पार के जीवन से सरल न हो। उस पार कया होगा ? प्रतिकूल होगा या अनुकूल होगा ? इस पार की चिंताओं को रखने की जगह, उस पार मिलेगी कि नहीं ? इस पार की जिंदगी का अभ्यस्त व्यक्ति यही समझकर अनुमान लगाता है कि उस पार भी, इस जीवन से भिन्नता नहीं होगी। इस कहानी के परिवार का मुखिया भी ‘इस पार की चिंता’ से ग्रस्त रहता था। उस पार तो शरीर नहीं जाता, आत्मा जाती है। आत्मा को भूख नहीं लगती, उसे छत की आवश्यकता नहीं होती, वह कभी बीमार नहीं पड़ती, वह कभी बालक और वृद्ध नहीं होती फिर चिंता से उसका क्या संबंध ?

मंद बुद्धि बेटा कहां जानता था कि वह मुफ्त की नही खा रहा है। उपेक्षा के कटु वचनों और तिरस्कार को ग्रहण कर रोटी की कीमत अदा कर रहा है। संतोष-असंतोष, तटस्थता, आनंद, प्रसन्नता, दुख, चिंता, उपेक्षा और तिरस्कार में से किसी एक का साथ रोटी को चाहिए। बगैर किसी साथ के रोटी पेट में नहीं जाती।

रिटायरमेंट के दो वर्ष बाद पिता को भी छोटा बेटा मुफ्त की रोटी तोड़ने वाला लगने लगा। अब तक वे पूरे वेतन के प्रभाव से मुक्त हो चुके थे। मां के भीतर मातृत्व ने दो वर्ष तक मंद बुद्धि बेटे की छवि मुफ्त की रोटी तोड़ने वाली नहीं बनने दी । मां और अकेला मंद बुद्धि बेटा होते तब मां को वह नहीं खटकता। अकेली मां की ममता चार हिस्सों में विभाजित थी। ममता के तीन हिस्सों, मंद बुद्धि बेटे के चौथे हिस्से पर भारी पड़ने लगे। आखिर कब तक वह तीन गुने भारी हिस्सा का बोझ उठाती? उसे भी लगने लगा कि मंद बुद्धि बेटे की उपेक्षा और तिरस्कार ‘अधिक अनुचित’ नहीं है। उपेक्षा और तिरस्कार जब पाला बदलते हैं तब उनका कसैलापन, मीठे पन में बदल जाता है। ममता के चौथे हिस्से ने मां को बेटे का बैल होना नहीं दिखाया पर शेष तीन हिस्सों की तिगुनी ममता ने दूसरों के द्वारा ‘बैल’ तथा “मुफ्त की रोटी’ शब्दों के उच्चारण के प्रति उसके विरोध और आपत्ति को समाप्त कर दिया।

गाली, अपमान, तिरस्कार और घृणा को जीवन का सहज अंग स्वीकार कर लेने पर उनकी क्षमता का दंश कुंठित हो जाता है। भारतीयों ने गुलामी को इसी तरह से घातक की श्रेणी से उठाकर सहज जीवन-शैली में ढाल लिया था।

धीरे-धीरे मंद बुद्धि बेटे के प्रति मां की आंखों पर पड़ा ममता का परदा खिसकने लगा। बैठे-बैठे मुफ्त की रोटी तोड़ने वाले बेटे के प्रति पारिवारिक सदस्यों की उपेक्षा अब उसे अनुचित तो लगती थी पर आहत नहीं करती थी। आहत न करने वाली उपेक्षा और तिरस्कार बड़ी आसानी से सहन हो जाते हैं। सैकड़ों वर्षों तक अछूत और दलितों द्वारा आपत्तिविहीन जीवन यापन के पीछे का यही रहस्य है।

बच्चे जब छोटे थे तब अन्य कोई विकल्प न होने पर मां, घरों में बर्तन, झाड़ू-पोंछा कर चारों बच्चों का पेट पाल लेती। बच्चों और उसकी ममता के बीच अब समय आ खड़ा हुआ था। घरों में बर्तन मांज कर मंद बुद्धि बेटे को ‘पाल’ लेने की बात अब उसके दिमाग में आ ही नहीं सकती थी। प्रेम व्यक्तिगत और सार्वभौमिक गुण है। करुणा और त्याग भी सार्वभौमिक और व्यक्तिगत मूल्य है। सभ्यता के विकास में यह तय हुआ कि मानवीय-मूल्य तभी शिखर पाएँगे जब वे सार्वभौमिक होंगे। ममता सार्वभौमिक गुण नहीं है। ममता को चाहे जितना बड़ा, विराट कर देखा जाए पर है वह व्यक्तिगत मूल्य ही। व्यक्तिगत मूल्यों के बीच ममता का आकार अत्यंत संकुचित घेरे जैसा है। काश महिलाओं की ममता सार्वभौमिक होती जिसे उन्होंने पेटजायी संतान तक संकीर्ण घेरे म॑ं सीमित कर रखा है।

ममता यदि सार्वभौमिक होती तब यह दिव्य, आलौकिक गुण होता। तब आकाश गंगा में पृथ्वी की महिमा-गान के लिए खरबों-खबर पृष्ठ भी कम होते। सैकड़ों साल बाद जहाँ पहुँचने का सपना आज मनुष्य देख रहा है, वहां आज से पाँच सौ साल पहले पहुँच चुका होता।

बहुत सी ऊर्जाएं व्यर्थ हो जाती हैं । भाप के इंजन की भाप ऊर्जा का बहुत बड़ा भाग व्यर्थ चला जाता है। घरों में पहुंच रही विद्युत-ऊर्जा का बहुत बड़ा हिस्सा व्यर्थ हो जाता है। प्रसव-जन्य दर्द से उत्पन्न ममता का एक बड़ा हिस्सा, समय के साथ आगे जाकर व्यर्थ होता जाता है। चौबीसों घंटे छाती से चिपकाई गई नवजात बच्ची, बारह-तेरह बरस की होने पर पैसे लेकर लेकर मां द्वारा ही वेश्यालय के सुपुर्द कर दी जाती है।

छाती से चिपके नवजात शिशु सात-आठ बरस की उम्र में होटलों की झूठी प्लेटें साफ करने हेतु भेज दिए जाते हैं। गीतों और कहानियों में प्रतिष्ठा के ढेर पर बैठी ममता इतनी कमजोर होती है कि आठ साल के बच्चे को ठेकेदार द्वारा मां बहन की गालियों सहित अमानवीय तरीके से पीटे जाने पर कुछ नहीं कर सकती। विरोध तक नहीं कर सकती।

ममता तभी तक ममता है जब तक उसके समक्ष अर्थ और समय न खड़े हों। समय और अर्थ के आगे कैसी ममता? कहां का ममत्व ? समय और अर्थ के आगे कैसा प्रेम और कहां का स्नेह ?

 ♡ ♡ ♡ ♡ ♡

©  श्री दिनेश अवस्थी

जबलपुर, मध्यप्रदेश 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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