श्री सुरेश पटवा 

 

 

 

 

((श्री सुरेश पटवा जी  भारतीय स्टेट बैंक से  सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। आपकी पुस्तकों  स्त्री-पुरुष “गुलामी की कहानी, पंचमढ़ी की कहानी, नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की  (नर्मदा घाटी का इतिहास) एवं  तलवार की धार को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व  प्रतिसाद मिला है। 

ई- अभिव्यक्ति के प्रबुद्ध पाठकों के लिए श्री सुरेश पटवा जी  जी ने अपनी शीघ्र प्रकाश्य कथा संग्रह  “प्रेमार्थ “ की कहानियां साझा करने के हमारे आग्रह को स्वीकार किया है। इसके लिए श्री सुरेश पटवा जी  का हृदयतल से आभार। प्रत्येक सप्ताह आप प्रेमार्थ  पुस्तक की एक कहानी पढ़ सकेंगे। इस श्रृंखला में आज प्रस्तुत है   – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे  )

 ☆ कथा-कहानी ☆ प्रेमार्थ #5 – अंग्रेज़ी बाबा से देसी बाबा – बाबा आमटे ☆ श्री सुरेश पटवा ☆

एक हिंदू ब्राह्मण परिवार में 26 दिसंबर 1914 को हिंगनघाट, वर्धा में देवीदास के घर एक बच्चे का जन्म हुआ। उसका नाम मुरलीधर रखा गया। देवीदास ब्रिटिश सरकार के जिला प्रशासन और राजस्व विभाग में अधिकारी थे। मुरलीधर को अंग्रेज़ी तौर तरीक़ों की तर्ज़ पर बचपन में बाबा करके पुकारा जाता था। वह आठ बच्चों में सबसे बड़ा था। उसका बचपन एक अच्छी हैसियत के ब्रिटिश नौकरशाह के सबसे बड़े बेटे के रूप में शिकार और खेलों की रोमांचक  घटनाओं के बीच बीता था। वह चौदह वर्ष की उम्र में बंदूक लेकर भालू और हिरण का शिकार करता था। जब वह गाड़ी चलाने योग्य हुआ तो पिता ने उसे पैंथर की खाल से बनी कुशन की गद्दियों वाली स्पोर्ट्स कार भेंट की थी। यद्यपि वह एक धनी परिवार में पैदा हुआ था, लेकिन हमेशा भारतीय समाज में व्याप्त  असमानता के बारे में सोचता रहता था। वह अपने पिता की नाराज़गी के बावजूद नौकरों के बच्चों के साथ नियमित रूप से खेलता था। दीवाली के दिन जब पूरा शहर जगमगा रहा था तब दोस्तों के साथ बाज़ार में मटरगश्ती करते हुए उसका एक अंधे भिखारी से सामना हुआ। उसने मौज में आकर अपनी सिक्कों से भरी जेब को भिखारी के कटोरे में खाली कर दिया। भिखारी को बहुत सारे सिक्कों की खनक से और कटोरे के भार से महसूस हुआ कि उसे मूर्ख बनाया जा रहा है। वह बोला- “मै एक मजबूर भिखारी  हूँ। मेरे कटोरे में पत्थर मत डालो, बाबा।”, लड़के ने जवाब दिया “ये चोखे सिक्के हैं, पत्थर नहीं। आप चाहें तो कुछ ख़रीद कर इन्हें परख लें।”

इस घटना ने लड़के के मस्तिष्क पर गहरा प्रभाव छोड़ा कि इस तरह के दुःखी इंसान  उसकी ज़िंदगी के बिलकुल करीब मौजूद हैं, जिनकी जिंदगियों में आशा और विश्वास सिरे से नदारद हो चुके हैं। उसे अपने पिता की विलासिता से भरी दुनिया में ग़रीबों के प्रति मौजूद उपेक्षापूर्ण निर्दयता से चिढ़ होती थी। लोग इतने बेरहम कैसे हो सकते हैं कि आसपास बजबजाती ग़रीबी और भूखमरी से अनजान बने रहकर गुलछर्रे उड़ाते रहते हैं। 

मुरलीधर एक डॉक्टर बनने की इच्छा रखता था, लेकिन उसके पिता ने उसे वकील बनने के लिए मजबूर किया। वह चाहते थे कि उनका बेटा बड़ा वकील बनकर परिवार की मिल्कियत को संभाले। लड़के ने धनाढ्य वातावरण के जीवन को बहुत अच्छी तरह से अपना लिया। अपने दिन घुड़सवारी, शिकार, क्लब में ताश के पत्तों और टेनिस खेलने में बिताता था। वह अमीरों का एक समृद्ध जीवन जी रहा था जो मानते हैं कि पैतृक विशेषाधिकार केवल भाग्यशाली को जीने का मौका देते हैं और उनका ग़रीबों के भाग्य के प्रति कोई दायित्व नहीं है। इस विलासिता पूर्ण जीवन के बीच वह बेचैन रहता था। एक दिन उसे लगा जैसे उसे दुनिया में एक बड़ा उद्देश्य पूरा करना है।

मुरलीधर कानून में प्रशिक्षित होकर वर्धा में वकालत शुरू करके एक सफल वकील बन गया। वह महात्मा गांधी और बिनोवा भावे से प्रभावित होकर भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में शामिल हो गया। 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के कारण अंग्रेज सरकर द्वारा कैद में डाला गया। उन्होंने भारतीय नेताओं के लिए एक बचाव वकील के रूप में काम करना शुरू किया। महात्मा गांधी द्वारा शुरू किए गए सेवाग्राम आश्रम में कुछ समय बिताया और गांधीजी के अनुयायी बन गए। उन्होंने चरखे से बनाई खादी पहनकर गांधीजी  के विचारों प्रचार किया। जब गांधीजी को पता चला कि मुरलीधर ने एक ब्रिटिश अफ़सर के अत्याचार व उत्पीड़न  से एक भारतीय लड़की को बचाया है, तब उन्होने उसे “सत्य का निडर साधक” नाम दिया था।

उन दिनों कुष्ठ रोग से पीड़ित लोगों को एक सामाजिक कलंक माना जाता था। ऐसे रोगी समाज की मुख्य धारा से कटकर उपेक्षित जीवन जीने को अभिशप्त थे। मुरलीधर ने इस विचारधारा को, कि कोढ़ एक संक्रामक छुआछूत रोग है, को दूर करने का प्रयास किया। यहां तक कि उन्होंने एक कोढ़ी को साथ रहने की अनुमति दी। यह साबित करने के उद्देश्य से एक प्रयोग के हिस्से के रूप में उन्हें इंजेक्शन भी लेने पड़े थे। तुलसीराम नाम के कुष्ठ पीड़ित व्यक्ति के साथ मुलाक़ात ने उनकी आत्म-छवि को चकनाचूर कर दिया। उसने देखा तुलसीराम कुष्ठ रोग के अंतिम चरण में वह एक मांस के टुकड़ों के साथ हाथ-पैर की उंगलियों के बिना कीड़े और घावों के साथ वास्तव में एक जीवित लाश था। वह संक्रमण से घबरा गया। उसने खुद को निडर बनाने के बारे में सोचा। अगले 6 महीनों के लिए वह इस संकट की बेदर्द पीड़ा में रहा। उसने सोचा “जहाँ भय है वहाँ प्रेम नहीं है, और जहाँ प्रेम नहीं वहाँ कोई भगवान नहीं है।” भय और घृणा से घिरे कोढ़ियों की इस समस्या पर काबू पाने का उसे केवल एक ही तरीका लग रहा था कि उसे कुष्ठ पीड़ित लोगों के साथ रहना और काम करना होगा। उन्होंने सोचा और संकल्प किया “मुझे किसी भी चीज़ से कभी डर नहीं लगा जब मैंने एक भारतीय महिला का सम्मान बचाने के लिए ब्रिटिश ठोकरों से लड़ाई लड़ी, गांधी जी ने मुझे ‘अभय साधक’ कहा, जो सत्य का निर्भीक साधक था। जब वरोरा के सफाईकर्मियों ने मुझे नाले की सफाई के लिए चुनौती दी, तो मैंने ऐसा किया, लेकिन जब मैंने तुलसीराम की जीवित लाश देखी, मैं डर गया। मुझे इस डर पर क़ाबू पाकर कुष्ठ पीड़ितों के प्रति प्रेम में बदलना होगा।”

मुरलीधर ने कुष्ठ रोगियों की सेवा करने का निर्णय इस कारण लिया कि उन्हें एक ऐसे समाज का हिस्सा बनने में घृणा महसूस होती थी जो ऐसे दलित मनुष्यों की दुर्दशा के प्रति बहुत ही उदासीन था। उन्होंने इस उदासीनता को ‘मानसिक कुष्ठ’ के रूप में माना, जो कि सबसे भयावह बीमारी है जो किसी के अंगों को ही नहीं गला रही है, लेकिन अन्य मनुष्यों के लिए दया और करुणा महसूस करने के लिए प्रेम की  ताकत खो रही है।

उन्होंने लिखा:- “मैंने भगवान से अपनी आत्मा मांगी, लेकिन मेरी आत्मा नदारत थी। मैंने अपने में भगवान की तलाश की, लेकिन मेरे भीतर भगवान भी नदारत था, तब मैंने सेवा हेतु भाई-बहनों की मांग की, मुझे उनमें आत्मा, भगवान और जीवन लक्ष्य मिल गया।”

उन्होंने 1949 में 4 रुपये, 6 कुष्ठ रोगियों और एक लंगड़ी गाय के साथ वरोरा में आश्रम स्थापित करके पूरे महाराष्ट्र में अपना काम फैलाया है। अब वे बाबा कहलाने लगे थे। कई संगठनों ने बाबा के कार्यों से प्रेरणा ली है और देश भर में और यहां तक कि पूरी दुनिया में काम करते रहे हैं। दुनिया भर में मुरलीधर ने जो प्रभाव डाला, वह अचूक है और उनकी आत्मा एक दुर्लभ रत्न है जिसे दुनिया भाग्यशाली मानती थी।

 

© श्री सुरेश पटवा

भोपाल, मध्य प्रदेश

≈ सम्पादक श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈

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