श्री आशीष गौड़

सुप्रसिद्ध साहित्यकार श्री आशीष गौड़ जी का साहित्यिक परिचय श्री आशीष जी के  ही शब्दों में “मुझे हिंदी साहित्य, हिंदी कविता और अंग्रेजी साहित्य पढ़ने का शौक है। मेरी पढ़ने की रुचि भारतीय और वैश्विक इतिहास, साहित्य और सिनेमा में है। मैं हिंदी कविता और हिंदी लघु कथाएँ लिखता हूँ। मैं अपने ब्लॉग से जुड़ा हुआ हूँ जहाँ मैं विभिन्न विषयों पर अपने हिंदी और अंग्रेजी निबंध और कविताएं रिकॉर्ड करता हूँ। मैंने 2019 में हिंदी कविता पर अपनी पहली और एकमात्र पुस्तक सर्द शब सुलगते  ख़्वाब प्रकाशित की है। आप मुझे प्रतिलिपि और कविशाला की वेबसाइट पर पढ़ सकते हैं। मैंने हाल ही में पॉडकास्ट करना भी शुरू किया है। आप मुझे मेरे इंस्टाग्राम हैंडल पर भी फॉलो कर सकते हैं।”

आज प्रस्तुत है एक विचारणीय एवं हृदयस्पर्शी कविता  साहित्य के बदलते “आयाम”!… जन जन तक पहुँचती “कलम”!

आईसीयू की खिड़की !! ☆ श्री आशीष गौड़ ☆

[1]

आईसीयू में बीमार को बिस्तर पर लिटा के ।

दीवार की दूसरी और , सिरहाने दुख रहते हैं॥

 

अस्पताल जीवन का आख़िरी घर है ।

यहाँ आख़िरी कमरे को आईसीयू कहते हैं॥

 

सारी ज़िंदगी का निचोड़ , हरपल याद आता है ।

रिश्ते का जोड़ , एक महीन धागे सा लहराता है॥

 

पिता आख़िर बार बाबूजी , माँ सिर्फ़ एक और बार माँ सुनना चाहती है ।

दिन का पहर , घड़ी का घंटा , पूरी कहानी दोहरा जाती है ॥

 

पहले पल का दुख , तीसरे और पाँचवे पहर के दुख से अलग लगता है ।

विडंबना देखो, आख़िरी सा प्रतीत होता , वह लम्हा ख़ुद को दोहराने लगता है ॥

 

दिन बदलते , बाहर सिरहाने का दुख , अब अपने से बड़ा दुख खोजने लगता है।

आँखें पोछ , गलियारे में एक चिथड़े सुख की भी आस रखता है ॥

 

[२]

 

दुख के आँसू हिसाब से बहते हैं।

पहले कैंटीन , फिर आसपास के भी सभी ठिकाने खंगाले जाते हैं॥

 

अंत आते , अंत की बात रहती है ।

कई तरहाँ बदलते , इन दुखों में अजीब सी बेचैनी दिखती है ॥

 

“ यह सब कैसे शुरू हुआ “ हरबार दोहराया जाता है ।

आख़िरी समय में हर रिश्ता धुंधला जाता है ॥

 

मुझे हमेशा से लगता है ,

पहले दिन हुई मौत , कई दिनों तक झूलते अस्तित्व वाली मौत से अलग दिखती है ।

मातम और वियोग , यहाँ अपेक्षाओं और रिश्तों के फ़ासलों से नापे जाते हैं॥

 

चुप खड़ी खिड़कियों से गर्दन हिलाते कबूतर सुनाई देते हैं।

उन्हीं खिड़कियों से ही , उनके गिरते पंख ही दिखाई देते हैं॥

 

आख़िरी सांस के समय , मृत्यु की अपेक्षा अब वियोग और विरह को प्राथमिकता देते हैं।

कुछ जल्दी , कुछ देर में , सभी रोना रोक देते हैं॥

 

[३]

मेरी जिज्ञासा और दिलचस्पी , ना ही मृत्यु और ना ही वियोग समझने में है।

मुझे समझना है , आँख का पहला आँसू किस आँख से आता है ?

क्यों , बड़े दुख के सामने छोटे दुख अपना वेग खो देते हैं,?

कैसे , एक चिथड़ा सुख उस गहन दुख में आस देता है?

 

और क्यो ही , कुछ समय बाद मृत्यु से पैदा हुआ दुख धुँधलाने लगता है !?

कुछ सालों बाद , अस्पताल का वही आख़िरी कमरा भी भूला दिया जाता है ?

दिन याद रहता है , पहर भुला दिया जाता है ?

 

मौत की क्रिया , उसके समय होती बेचैनी , बेबसी , लाचारी  क्यों भुला दी जाती है ?

 

सिर्फ़ अस्पताल याद रहता है ।

आईसीयू की वह खिड़की भुलाई जाती है ॥

 

आख़िर में मृत्यु की अहमियत , उसका वियोग उतनी ही देर रहती है ।

जितनी आईसीयू की खिड़की की अहमियत रहती है !!

 

विराम!!

 

©  श्री आशीष गौड़

वर्डप्रेसब्लॉग : https://ashishinkblog.wordpress.com

पॉडकास्ट हैंडल :  https://open.spotify.com/show/6lgLeVQ995MoLPbvT8SvCE

https://www.instagram.com/rockfordashish/

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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