सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ कविता ☆ ऐंठन ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

अंधेरा

लील लेता है

सारे रंग

रूप पर कालिख पोतकर

गगनभेदी

अट्टहास करता है

*

अचरज है

लोग

अंधेरे पर इल्जाम

देने की बजाय

अपनी आँखों पर

शक करने लगते हैं

*

बावजूद इसके कि

सुबह के सप्ताश्वरथ को

रोकना

नामुमकिन है

यहां किसी दुर्धर्ष योद्धा की भी

दाल नहीं गलती

*

एक रात की

बादशाहत पर

ऐंठता है

अंधेरा

सब कुछ जानता है

पर मानता नहीं।।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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