सुश्री इन्दिरा किसलय
☆ कविता ☆ ज़िंदगी और दरख़्त… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆
☆
किसी दरख़्त के
पीले पत्तों की तरह
झर रहे हैं
दिन
जिन्दगी की शाख से
बेआवाज़
दर्द तो होता होगा
ऐसा ही कानून है
कुदरत का
हर वक्त शोर
जरूरी तो नहीं
नवांकुर
रक्तिम, कुछ तांबई टूसे
कोमल, कच्चे हरे रंग के
नव पल्लव
पल पल रंग बदलते हैं
न कोई आहट
न सूचना
सुबहें चुपचाप
दोपहर से
सांझ में ढलकर
स्याह रात में खो जाती हैं
पीले सूखे पत्तों को
हाँकती है हवा
जाने कहाँ कहाँ
समेट लेती है
धरती अपने
आँचल में
न दरख्त कुछ कह पाता है
न जिन्दगी
एक अचीन्हा दर्द
अछोर
बिखर जाता है
चहुँ ओर।
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© सुश्री इंदिरा किसलय
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈