डॉ.वन्दना मिश्रा
(शिक्षाविद, कवि, लेखक, समीक्षक)
☆ पुस्तक चर्चा ☆ सुरमयी लता – भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका – श्री सुरेश पटवा ☆ डॉ.वन्दना मिश्रा ☆
(संयोगवश श्री सुरेश पटवा जी की पुस्तक“सुरमयी लता” की समीक्षा श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ द्वारा भी प्राप्त हुई थी जिसे निम्न लिंक पर क्लिक कर पढ़ा जा सकता है। )
पुस्तक : सुरमयी लता
भारतीय सिनेमा के स्वर्ण युग की सुर साधिका
लेखक : सुरेश पटवा
प्रकाशक : मंजुल प्रकाशन
मूल्य : 195.00 रुपए
समीक्षक : डॉ.वन्दना मिश्र
सुरमयी लता चरित्र प्रधान कृति अत्यंत मार्मिक और प्रेरक है। इस कृति में लता जी के जीवन के सुरमय गेय पक्ष के वर्णित प्रसंग बहुत प्रभावित करते हैं। लता जी द्वारा गाई गयी लोरियाँ सुनकर बढ़ती हुई पीढ़ी किशोरावस्था में उन्हीं के मधुर कंठ से प्रणय गीतों का आस्वादन कर बड़ी हुई है। उनका भारतीय पारिवारिक मूल्यों, संयमित जीवन शैली का आचरण करोड़ों लोगों की प्रेरणा बना। श्री पटवा भी लता जी के मधुर गायन से आरंभ से अभी तक प्रभावित हैं इसी प्रभाव की परिणति सच्ची श्रद्धांजलि यह कृति सुरमयी लता है। गद्य -पद्य दोनों में अभिव्यक्ति का माध्यम बन सुरेश पटवा अपनी वाग़मयी प्रज्ञा का परिचय भी देते हैं।
(गम्भीर संयत साहित्यकार डॉक्टर वंदना मिश्रा जी ने मेरी पुस्तक की समीक्षा लिखी है। उनको साधुवाद सहित आज आपके समक्ष प्रस्तुत है। – श्री सुरेश पटवा)
सुरमयी लता शीर्षक से अभिव्यक्त यह कृति लता जी के जीवन संघर्ष की गाथा के साथ उनकी मधुर यादें,स्मरणीय तथ्य,विवाद ,रोचक किस्से और उनके प्रसिद्ध गीतों को आत्मीयता के साथ पटवा जी ने पिरोया है। छह अध्याय में विभक्त इस कृति में सुर भी है साज भी है लय भी है, ताल भी है,गीत तैर रहे हैं …गजल भी उदास है”
(चिड़िया फुर्र..पृष्ठ15) यह पंक्तियाँ सब कुछ कह जाती हैं।
चित्रपट संगीत का पर्याय बन चुकी लता जी के पवित्र मन की निर्मलता उनके गीतों में झलकती उनका विलक्षण गायन श्रोताओं को मंत्रमुग्ध कर देता है…स्पष्ट उच्चारित शब्द कानों में अमृत- सा उँडे़ल देते…नाद ब्रह्म है…सच है लता जी की आवाज़ ब्रह्मांड में गूँज रही है…”हिमालय से हिन्द महासागर तक ,नेपाल से श्रीलंका तक,बंगाल की खाड़ी से अरब सागर तक अटक से कटक तक..(.पृष्ठ 23)”जिस दिन लता जी नहीं रही…आवाज गूँज रही थी…
“रहे न रहे हम,महका करेंगें..
चलते चलते वहीं पे कहीं हम तुमसे मिलेंगे ,
बन के कली..”
और.वे रोता छोड़ गईं
“महका करेंगे
बन के सबा बाग़ -ए-वफा़ में हम” (पृष्ठ 23-26)
लता जी की जीवन शैली और विराट व्यक्तित्व भारतीय सिनेमा ही नहीं अपितु हमारी सांस्कृतिक और राष्ट्रीय अस्मिता की पहचान है,जो कि अनुकरणीय है।पटवा जी कहते हैं कि यह एक ऐसी आवाज है जो सदियों में कभी एक बार ही गूँजती है..ऐसी आवाज जो मंदिर की घंटियों गिरिजाघर की खामोशी, गुरूद्वारे की तान,और मस्जिद की अजान- सी पाकीजगी देती है।
अपनी शालीन नाजुक गहरी और रूहानी आवाज से लता जी ने सात दशकों तक भारतीय जीवन की साँसों में खुशियों, उमगों,शरारतों,उदासियों, दु:ख-सुख, हताशा, अकेलेपन व उत्सवों में भागीदारी की है।उन्होंने प्रणय को सुर,व्यथा को कंधा और आँसुओं को तकिया देकर तीस से ज्यादा भाषाओं में तीस हजार से अधिक गीत गाकर मानवीय भावनाओं के सुर को पकड़ा और अन्तर्गत को सहलाया और दिलों पर राज किया है। लता जी के गायन में अभिनय का अद्भुत मिश्रण देकर कला को सहज ऊँचाई दी।
पटवा जी लिखते हैं-” जीवन भर गीता के कुछ पदों का पाठ करने वाली- गालिब, मीर, मोमिन, ज़ौक़ और दाग को सही-सही उच्चारण में पढ़ने वाली महान गायिका अपने संगीत के विस्तार से गीत गजलों की आत्मा की गहराइयों तक शताब्दियों के आर-पार जाने वाला उजाला फैलाना शुरूकर चुकी थीं (पृष्ठ35)”
गीत संगीत की लंबी पारी खेलने वाली महान कलाकार का जीवन भी आम आदमियों की संघर्ष गाथा भी है और कुछ हद तक विवादित भी पर उससे अहम उनका उजला पक्ष है जो उन्हें सराहना के सर्वोच्च शिखर तक ले जाता है। गायन की यह अलंघ्य ऊँचाई हर मन तक बात पहुँचाती है..उनकी आवाज सुनकर हर दिल गा उठता है…भौतिक रुप से ढेरों पुरस्कार पाने वाली लता जी हर दिल से सम्मानित हैं।
पार्श्वगायन इतिहास का रोचक दस्तावेज इस कृति के रुप में तेजी से रचनाकर्म से चमत्कृत करने वाले साहित्यकार सुरेश पटवा के लेखन का सफल आयाम है।
डॉ. वन्दना मिश्रा
शिक्षाविद, कवि, लेखक, समीक्षक
भोपाल, मध्यप्रदेश।
≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय ≈