सुरेश पटवा
((श्री सुरेश पटवा जी भारतीय स्टेट बैंक से सहायक महाप्रबंधक पद से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं और स्वतंत्र लेखन में व्यस्त हैं। आपकी प्रिय विधा साहित्य, दर्शन, इतिहास, पर्यटन आदि हैं। अभी हाल ही में नोशन प्रेस द्वारा आपकी पुस्तक नर्मदा : सौंदर्य, समृद्धि और वैराग्य की (नर्मदा घाटी का इतिहास) प्रकाशित हुई है। इसके पूर्व आपकी तीन पुस्तकों स्त्री-पुरुष “, गुलामी की कहानी एवं पंचमढ़ी की कहानी को सारे विश्व में पाठकों से अपार स्नेह व प्रतिसाद मिला है। आजकल वे हिंदी फिल्मों के स्वर्णिम युग की फिल्मों एवं कलाकारों पर शोधपूर्ण पुस्तक लिख रहे हैं जो निश्चित ही भविष्य में एक महत्वपूर्ण दस्तावेज साबित होगा। हमारे आग्रह पर उन्होंने साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्मोंके स्वर्णिम युग के कलाकार के माध्यम से उन कलाकारों की जानकारी हमारे प्रबुद्ध पाठकों से साझा करना स्वीकार किया है जो आज भी सिनेमा के रुपहले परदे पर हमारा मनोरंजन कर रहे हैं । आज प्रस्तुत है हिंदी फ़िल्मों के स्वर्ण युग का मसखरा : ज़ानी वॉकर पर आलेख ।)
☆ साप्ताहिक स्तम्भ – हिंदी फिल्म के स्वर्णिम युग के कलाकार # 1 ☆
☆ हिंदी फ़िल्मों के स्वर्ण युग का मसखरा : ज़ानी वॉकर ☆
बडवानी जिले से जानी वाकर का परिवार इन्दौर आया यहां उनके वालिद कपडा मिल मे नौकरी करने लगे, यहीं उनके साथ वह हादसा हुआ और वे घर बैठ गये, अब परिवार को पालने की जिम्मेदारी जानीवाकर पर आ गई, इन्दौर मे भी बस कन्डक्टरी करी, ठेले पर सामान बेचा, छावनी इन्दौर मे क्रिकेटर मुशताक अली उनके पडोसी व मित्र हुआ करते थे।
दुर्घटना ने उनके पिता को पंगु करके निरर्थक बना दिया और वे रोज़ीरोटी की तलाश में सपरिवार बंबई चले आए। काजी ने परिवार के लिए एकमात्र कमाऊ सदस्य के रूप में विभिन्न नौकरियां कीं, अंततः वे बृहन्मुंबई इलेक्ट्रिक सप्लाई एंड ट्रांसपोर्ट (BEST) में बस कंडक्टर बन गए। परिवार के एकमात्र कमाऊ जानी दिन भर कई मील की बसयात्रा के बाद कैंडी, फल, सब्जियां, स्टेशनरी और अन्य सामान फेरी लगाकर बेचते थे।
जॉनी वॉकर बसों में काम करते हुए यात्रियों का मनोरंजन किया करते थे। उन दिनों वामपंथी नाटक संगठन इपटा से जुड़े कलाकार एक कमरे के कम्यून में रहते और बसों से यात्रा करते थे। अभिनेता बलराज साहनी ने उन्हें बस यात्रा के दौरान एक दिन भिन्न-भिन्न भावभंगिमाओं से चुटकुले बाज़ी और चुहल करते देख गुरुदत्त का पता देकर उनसे मिलने की सलाह दी। बलराज साहनी और गुरुदत्त उस समय मिलकर बाजी (1951) की पटकथा लिख रहे थे। गुरुदत्त बतौर निर्देशक देवनांद, गीताबाली, कलप्ना कार्तिक और के एन सिंग को लेकर बाज़ी के लिए कलाकारों को ले रहे थे उसमें एक शराबी की भी भूमिका थी। गुरुदत्त ने काजी को शराब पीकर शराबी का अभिनय करने को कहा। काजी ने बिना शराब पिए बड़े बढ़िया अन्दाज़ में शराबी का अभिनय कर दिखाया, उन्हें बाज़ी में एक भूमिका मिली।
उस दौर में साम्प्रदायिक माहौल बिगड़ा होने से मुस्लिम कलाकारों को हिंदू नाम देने का चलन चल पड़ा था जैसे देविका रानी ने यूसुफ़ खान को दिलीप कुमार नाम दिया था वैसे ही मुस्लिम कलाकारों को मीना कुमारी, मधुबाला, नरगिस इत्यादि नाम मिले थे। गुरुदत्त जब उसी दिन शाम को के एन सिंग के साथ जॉनीवाकर ब्रांड की स्कॉच व्हिस्की का ज़ाम चढ़ा रहे थे, उन्होंने दो पेग चढ़ाने के बाद पहले सुरूर में ही के एन सिंग के मशवरे पर क़ाज़ी को जॉनीवाकर नाम दे दिया था। इस प्रकार फ़िल्मी पर्दे पर जॉनीवाकर नामक मसखरे का आगमन हुआ।
उसके बाद ज़ानी वाकर गुरुदत्त की सभी फ़िल्मों में दिखाई दिए। वे मुख्य रूप से हास्य भूमिकाओं के अभिनेता थे लेकिन पटकथा में उनकी भूमिका कथानक को आगे बढ़ाने वाली होती थी न कि ज़बरजस्ती ठूँसने वाले बेहूदा हँसोडियों जैसी। राजेंद्र कुमार के साथ मेरे महबूब, देवानंद के साथ सीआईडी, गुरुदत्त के साथ प्यासा, दिलीप कुमार के साथ मधुमती और राजकपूर के साथ चोरी-चोरी जैसी फिल्मों ने उन्हें स्टार बना दिया। वे 1950 और 1960 के दशक में नायक के साथ फ़िल्म सुपर हिट होने की गारंटी हुआ करते थे। 1964 में गुरुदत्त की मृत्यु से उनका केरियर प्रभावित हुआ। फिर उन्होंने बिमल रॉय और विजय आनंद जैसे निर्देशकों के साथ काम किया लेकिन 1980 के दशक में उनका करियर फीका पड़ने लगा। वे कहते थे कि “उन दिनों हम साफ-सुथरी कॉमेडी करते थे। हम जानते थे कि जो व्यक्ति सिनेमा में आया है, वह अपनी पत्नी और बच्चों के साथ आया है … कहानी सबसे महत्वपूर्ण हुआ करती थी। कहानी चुनने के बाद ही अबरार अल्वी और गुरुदत्त उपयुक्त अदाकार ढूंढते थे, अब यह सब उल्टा हो गया है … वे एक बड़े नायक के लिए एक कहानी लिखाते हैं जिसमें फिट होने के लिए हास्य अभिनेता एक चरित्र बनना बंद कर दिया है, वह दृश्यों के बीच फिट होने के लिए कुछ बन गया है। कॉमेडी अश्लीलता की बंधक बन गई थी। मैंने 300 फिल्मों में अभिनय किया और सेंसर बोर्ड ने कभी भी एक लाइन भी नहीं काटी।”
© श्री सुरेश पटवा
भोपाल मध्य प्रदेश