डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी
(डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी एक संवेदनशील एवं सुप्रसिद्ध साहित्यकार के अतिरिक्त वरिष्ठ चिकित्सक के रूप में समाज को अपनी सेवाओं दे रहे हैं। अब तक आपकी चार पुस्तकें (दो हिंदी तथा एक अंग्रेजी और एक बांग्ला भाषा में ) प्रकाशित हो चुकी हैं। आपकी रचनाओं का अंग्रेजी, उड़िया, मराठी और गुजराती भाषाओं में अनुवाद हो चुकाहै। आप ‘कथाबिंब ‘ द्वारा ‘कमलेश्वर स्मृति कथा पुरस्कार (2013, 2017 और 2019) से पुरस्कृत हैं एवं महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा द्वारा “हिंदी सेवी सम्मान “ से सम्मानित हैं।
☆ यात्रा-वृत्तांत ☆ धारावाहिक उपन्यास – काशी चली किंगस्टन! – भाग – 16 ☆ डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी☆
(हमें प्रसन्नता है कि हम आदरणीय डॉ अमिताभ शंकर राय चौधरी जी के अत्यंत रोचक यात्रा-वृत्तांत – “काशी चली किंगस्टन !” को धारावाहिक उपन्यास के रूप में अपने प्रबुद्ध पाठकों के साथ साझा करने का प्रयास कर रहे हैं। कृपया आत्मसात कीजिये।)
उतरा भूत मेपल की डाल से
अठारह जुलाई को वहाँ ‘देश’ में ईद और रथ यात्रा दोनों पर्व संपन्न हो गये। अगले दिन सुबह नाश्ते के बाद मैं वाटर कलर और ब्रश वगैरह लेकर निकल पड़ा। आज कनाडियन बत्तख की पेंटिंग बनायेंगे। कल शाम अन्टारिओ झील के किनारे बैठे एक मेपल के पेड़ से प्रार्थना कर रहा था,‘हे महीरूह, हे तरुवर, तुम्हारे रूप का कुछ हिस्सा तो मुझे इस कागज पर उतारने दो।’ दो एक सज्जन मेरा उत्साह वर्धन करने आ गये थे,‘वाह भई! कहाँ से आये है?’ और कोई चुपचाप देखता रहा।
आज भी दो तीन औरतें आ गयीं,‘आप यहाँ बैठे क्या कर रहे हैं, जरा देख सकती हूँ?’
अरे भाई किसने मना किया है? फिर बातचीत। कोई खुद भी आर्टिस्ट है। मगर मैं ने कहा,‘ नहीं भाई, मैं कोई आर्टिस्ट नहीं हूँ। बस रंगों से खेलने का शौक है।’
एक ने अपनी बात को आगे बढ़ाते हुए कहा,‘मगर बच्चों की देखभाल के चक्कर में हाथ से ब्रश तो छूट गया है।’ वाह रे माँ का बलिदान! मैं उनसे क्या कहता कि हमारे देश की मधुबनी पेंटिंग को दुनिया में सम्मान दिलाने वाली डा0 गौरी मिश्रा भी तो एक माँ हैं। जिन्होंने इस आंचलिक शिल्प को विश्व कला दरबार के सिंहासन पर बैठाया। लोगों के लिए तो वो ‘मां जी’ ही हैं।
एक डॉक्टर की कन्या से बात हो रही थी। उसने बताया कि आजकल यहाँ आसानी से काम नहीं मिलते। क्या बेकारी बढ़ रही है ? वैसे यहाँ के नागरिकों को बेकारी भत्ता दिया जाता है।
एकदिन एक आदमी को देखकर लगा कि वे हमारे ही उधर के हैं। दूर से मैं ने आवाज लगायी,‘भाई साहब, नमस्ते। आप इंडियन हैं?’
एक बूढ़े दम्पति जा रहे थे। साथ में एक नौजवान और दो बच्चे। जाहिर है कि वे दोनों इस नौजवान के वालिद वालिदा हैं। और दोनों बच्चे शायद उस नौजवान के। वह नौजवान आगे आ गया,‘हम पाकिस्तान से हैं।’
‘किस शहर से?’ मैं बार्डर क्रास करना चाहता था।
‘रावलपिंडी से। इस्लामाबाद।’ कहते हुए वे आगे बढ़ गये।
समझौता एक्सप्रेस चली नहीं। वहीं थम गयी।
पेंटिंग बनाने के लिए साथ में मैं एक फ्लास्क में चाय और रुपाई का दिया हुआ बैग में जैमवाला बिस्किट ले चला था। बीच बीच में चाय की चुसकी ले ही रहा था कि एक बत्तख आकर बगल में खड़ा हो गया,‘ऐ मिस्टर अकेले अकेले ही खाने का इरादा है? मदर मेरी की कसम, हजम नहीं होगा। बतला देता हूँ।’
‘अरे भाई, कुल दो तो बिस्किट हैं। इनमें से अगर तुझे दे दूँ तो मैं क्या खाऊँगा?’ फिर भी यह सोचकर कि उसी के देश में उससे तकल्लुफ तो निभाना चाहिए, मैं ने एक बिस्किट के टुकड़े करके उसकी ओर फेंक दिया कि इतने में एक महिला हाजिर हो गयीं। साथ में पैराम्बुलेटर में उसकी लाडली। वो भी बात करने लगी तो मैं ने पूछा, ‘आपकी बेटी को यह बिस्किट दे सकता हूँ ? बस यही है मेरे पास। वो भी एक…’
‘अरे अभी तो यह घर जाकर लंच करेगी। -’
मगर तब तक उस गुड़िया ने अपना हाथ बढ़ा दिया। सुरीली आवाज में उस नन्ही ने क्या कहा यह तो वही जाने। माँ ने कहा,‘ले लो बेटी। थैंक्स कहो।’
मेरे नसीब में रही, चाय चाय बस चाय/जैम वाले बिसकिट की, फिर याद क्यों सताए ?
मेपल वृक्ष 33 से 148 फीट लंबे हो सकते हैं। पतझड़ के समय इनके रूप की तो छटा ही अनोखी होती है। इनके नीचे चारों ओर बिखरी पड़ी रहती हैं मेपल की सूखी पत्तियाँ। लगता है धरती पर आग की लाल, पीले और नारंगी रंगो की लपटें उठ रही हैं। जरा गुनगुनाइये कवि वीरेन डंगवाल की पंक्तिओं को (मंगरेश डबराल के स्मृतिचारण या अनुस्मरण से) :- पेड़ों के पास यही एक तरीका है/यह बताने का कि वे भी दुनिया से प्यार करते हैं।
शाम को बूँदा बाँदी होने लगी। मैं ने कहा, ‘पैर गाड़ी की सवारी कर आऊँ। इतवार की रौनक देख कर आता हूँ।’
तुरंत रुपाई ने थ्रू प्रॉपर चैनेल मना कर दिया। यानी झूम से बुदबुदाकर कहा, ‘बाबा से कहो आज थंडर स्ट्रॉम होने का पूर्वाभास है।’
यहाँ के लोग घर से बाहर कदम रखने के पहले नेट से वेदर रिपोर्ट पढ़ लेते हैं। लेकिन आज तो सब टाँय टाँय फिस्स् हो गया। पानी भी नहीं बरसा। और मैं कमरे में ही बैठा रह गया। धरा के धरा रह गया वज्रघोष का उद्घोष / रिमझिम में भींगते मनवा न हो सका मदहोश !
किंग्सटन की सड़कों पर चलते हुए या कनफेडरेशन हॉल के सामने फव्वारे के सामने बैठे हुए हमने कितनी बार यहाँ की इजहारे मोहब्बत की रीति को देखा। कितना निःसंकोच प्रेम निवेदन है ! लड़के लड़की या युवक युवतियां रास्ते पर चलते हुए या झील के किनारे बैठे हुए पब्लिक प्लेस में एक दूसरे के करीब आने में तनिक भी नहीं शर्माते। और दादा दादी नाना नानी की जोड़ियां ? चिरजीवी जोड़ी जुड़ै, क्यों न सनेह गंभीर -?
नाराज न हों, याद है ‘राम की शक्ति पूजा’ में कविवर निराला ने क्या लिखा था ? –
देखते हुए निष्पलक याद आया उपवन
विदेह का प्रथम, स्नेह का लतांतराल मिलन
नयनों का नयनों से गोपन, प्रिय सम्भाषण
पलकों का नव पलकों पर प्रथमोत्थान पतन।
काँपते हुए किसलय, झरते हुए पराग समुदय,
गाते खग नवजीवन परिचय, तरू मलय वलय
ज्योतिः प्रपात स्वर्गीय, ज्ञात छवि प्रथम स्वीय,
जानकी- नयन-कमनीय प्रथम कम्पन तुरीय।
खैर, जहाँ की जो रीति है। यदि राम रोम में करें गमन/ तन मन से बन जायें रोमन !
फिर भी नायाग्रा के ऊपर रेलिंग पर हमने देखा था कितने सारे लव लॉक लगे हुए हैं। यानी मोहब्बत को वे ताला बंद करके रख रहे हैं। अच्छी बात है। हम तुम एक कमरे में बंद हों, और चाबी खो जाए….. बॉबी का गाना याद आया ? उस जमाने में इसे गाने से बुजुर्गों की डाँट सुननी पड़ती थी। समझ में नहीं आता था – अरे बाबा, उन्होंने चाबी खो दी है, तो इसमें मेरा क्या कसूर है? मुझे आपलोग क्यों डाँट रहे हैं ?
फिर भी समझ में नहीं आता कि इतना सब कुछ होने के बावजूद यहाँ क्यों होती है इतनी छुट्टी छुट्टा की घटनायें ? हमारे देश में भी तो अब ‘हाई सोसाईटी’ में ये सब खूब होने लगी हैं। 2013 में नोबेल पुरस्कार से नवाजी गयीं कनाडियन लेखिका एलिस मुनरो ने भी तीन बच्चे होने के बाद भी अपने पति को तलाक दे कर बाद में दूसरा विवाह किया। नेट में वैसी कोई वजह भी तो लिखी नहीं है। आखिर क्यों ? फ्रेडरिख एंगेल्स ने ‘स्टेट फैमिली एंड प्राइवेट प्रॉपर्टी’ में डाइवोर्स के बारे में लिखा है कि यह बुरी चीज होने के बावजूद नारी मुक्ति के लिए एक आवश्यक कदम है। पता नहीं क्या ठीक है। दिमाग पर कोहरा छा जाता है। यह तो जरूर कहूँगा यह कुछ एम्पुटेशन जैसी बात है। पैर में गैंगरीन होने पर पैर को तो काटना ही पड़ता है। वो लाइलाज है, उसे काट दो। जरूरी, मगर दुखद।
रुपाई पुस्तक भंडार से एक किताब लेकर एलिस मुनरो की एक कहानी पढ़ रहा था। वायसेज। एक छोटी बच्ची माँ के साथ एक डान्स पार्टी में जाती है। वहाँ कई वारांगनायें भी थीं। वह बच्ची उन्हें नहीं पहचानती है। कई एअरफोर्स के अफसर या कैडरों के साथ सीढ़ी पर बैठे उनमें से एक लड़की रोये जा रही थी। एक कैडर उसकी जांघ को सहला रहा था, और उस लड़की को समझा रहा था,‘हो जाता है, ऐसा कभी कभी हो जाता है। बुरा मान कर क्या करोगी?’ मगर बेचारी लड़की के आंसू थम नहीं रहे थे। पर कहानी का दरिया आखिर पहुँचा कहाँ? दिमाग के ऊपर से हर बात निकल गयी। भगवान, तू ने मेरे माथे में सिर्फ गोबर ही भर दिया था, क्या? वो भी कामधेनु या नंदिनी के नहीं, काशी के किसी लँगड़ा अपाहिज और खूसट साँड़ के ? मैं क्या इतना गया गुजरा प्राणी हूँ ?
खैर मुझे जाने क्यों लगता है कि लेखन जगत में प्रेम, प्यार और दोस्ती का जो आकर्षण है, वो अनूठा है, अप्रतिम है। यशोदा का वात्सल्य या भरत मिलाप से लेकर हीर रांझा, सोहिनी माहिवाल आदि की कहानियां आज भी आम जनता को बांध कर रखने में समर्थ हैं। ओ हेनरी की कहानी ‘गिफ्ट ऑफ मेजाई’ पढ़ी है आपने ? बाबूजी मुझे मेरी जिंदगी का पहला ‘बायोस्कोप’ दिखाने ले गये थे – वो था – डा0 नीहाररंजन गुप्त की कहानी पर आधारित फिल्म ‘दोस्ती’। एक लँगड़ा और एक अंधे की दोस्ती की दास्तान। जैसे बड़े भैया के लिए भरत का प्यार ! तो राम के वनगमन के पहले क्या हुआ सुनिए -‘चंदु चवै बरु अनल कन सुधा होइ बिशतूल। सपनेहुँ कबहुँ न करहिं किछु भरतु राम प्रतिकूल।।’ भले ही चंद्रमां शीतल किरणों के बदले आग की चिनगारियां बरसाने लगे और अमृत भी चाहे जहर बन जाए, मगर भरतजी तो सपने में भी राम के अहित की बात सोच नहीं सकते। तो यही है भ्रातृप्रेम ! दोस्ती, जुग जुग जीओ ! तो आगे …….
कोई सोच भी सकता है कि कनाडा के किंग्सटन शहर में बैठे हम आम खा रहे हैं ? मगर वही हो रहा है। इसके अलावा चेरी, किवी या हनीड्यू (खरबूजे का मौसेरा भाई) …… मजा आ गया पेटू बंगाली !
कुछ पुरानी बाते याद आ गयीं……
30.6.15 की शाम हम मॉन्ट्रीयल पहुँचे थे। और अगली सुबह किंग्सटन के लिए चल दिये। रास्ते में गैनॉनक के मेट्रो बाजार में ठहरे थे – घर के लिए सब्जी वगैरह लेने।
शीशे का दरवाजा आपको देखते ही खुल जाता है। खुल जा सिमसिम कहने की जरूरत नहीं। अंदर दाखिल हुआ तो झूम सब्जिओं के पास ले गई। अरे बापरे! टमाटर ही देख लीजिए। एक एक गुच्छे में पांच पांच छह छह की संख्या में। और रंग? लाल से लेकर हरे तक। अरुणाचल में बमडीला शहर में भी हमने हरे टमाटर देखे थे। फिर प्याज – क्या साइज है! सफेद, गुलाबी, हिन्दुस्तान की तरह कुछ ललछौहाँ। फिर पीला। सफेद प्याज में उतनी तीक्ष्ण महक नहीं होती। झूम कह रही थी,‘यहाँ रसोई बनाना भी एक टेढ़ी खीर है। ज्यादा भून दिया या तल दिया, या सब्जी में छौंक लगायी, तो तुरन्त फायर अलार्म बजने लगते हैं। यह भी एक मुसीबत है!’
उसने कहा,‘हिन्दुस्तानी क्वीजीन के चक्कर में सिंगापुर में कई मकान मालिक अपने घरों में भारतीयों (प्लस पाकिस्तानियों या बांग्लादेशियों) को किराये पर नहीं ठहराते। क्यांकि वे अपनी रंधन पटुता से उनकी नाकों दम करके रख देते हैं। शाब्दिक अर्थो में।
फिर फलों की सौगात। उन्हें देखने का फल यह मिला कि जामाता की खातिरदारी शुरु हो गई। बार बार क्या नाम गिनाये, जीभ में पानी जो आ जाता है। मगर हाँ, इतना जरूर कहेंगे – यहाँ के केले देखकर समझ में आ गया कि स्वर्ग की एक अप्सरा के नाम पर इसे भी क्यों रंभा कहा जाता है। क्या रंग है। अगली मुलाकात मैक्सिकोवासी आम से। फिर तरह तरह के बिस्किट, पावरोटी, अॅलिव -जिससे अचार वगैरह बनते हैं, और जिसके तेल से खाना भी पकाया जाता है। इटली की दादी नानी तो उससे बड़े लजीज खाना पकाती थीं। हमारे देश के अंग्रेज उससे मालिश करते हैं। हमारे यहाँ के शहद की तरह यहाँ मेपल के रस बिकते हैं। उससे बंगाल के पाटाली गुड़ की तरह गुड़ बनाते हैं। एकबार मार्केट की हाट से हमने उसे खरीदा था। देखने में बिलकुल मेपल की पत्ती जैसा।
सबकुछ है, मगर आटा नहीं। उसके लिए फिर किंग्सटन का एशियन मार्केट चलिए।
कुछ दिनों के उपरान्त …….
झूम और उसकी जननी के साथ बैठे नाश्ता कर रहा था। मेरे बदन पर थी सिर्फ सैंडो गंजी। माँ बेटी दोनों चौंक उठी,‘अरे बापरे ! आपका यह क्या हाल हुआ है? इतना सनबर्न!’
मैं ने भी शीशे में देखा। चेहरे के ऊपर सनबर्न से त्वचा का रंग भूरा हो गया है। मुझे झूम के नाना की याद आ गयी। जब वे लोग केदारनाथ बद्रीनाथ की यात्रा पर गये हुए थे, तो वहाँ से लौटने पर मैं ने देखा कि उनका गोरा रंग मानो बिलकुल जल गया था। वह मई का महीना था। दिवाकर मजे से वहाँ अपना तेज बरसा रहे थे। उत्तरी ध्रुव के नजदीक होने के कारण यहाँ भी अलट्रावायोलेट किरणों का प्रकोप भयंकर है। गुलजार का पहला गीत जो हिट हुआ था, वह था- बंदिनी फिल्म में, एस.डी.बर्मन की धुन पर – मेरा गोरा अंग लइले, तोर श्याम रंग दइदे!’ हे घनश्याम, यहाँ तो बात उल्टी हो गई।
फोन पर साले ने कहा था,‘गोरों के देश में जाकर, आप तो और गोरे हो गये होंगे, क्यों?’
साले पर आज इतना गुस्सा आ रहा था कि क्या कहूँ। लँगड़े से कहना कि ‘तुम तो मैराथन में जरूर फर्स्ट आओगे !’
यहाँ के मौसम का रंग ठंग भी कन्याकुमारी जैसा है। तेज धूप, साथ में ठंडी बयार। पेड़ के नीचे खड़े हो जाओ तो ठंड लग रही है। सड़क पर जाओ तो उफ् उफ् धूप!
मैं ने भार्या से कहा,‘जरा सोचो, तुम्हारी सास तुम्हे कैसी चीज दे गयी थी। पर तुम उसे सँभाल कर रख भी न सकी। लँगड़ा और काला बना कर छोड़ दिया।’
किंग्सटन में इनके एपार्टमेंट में या मॅान्ट्रीयल और नायाग्रा के होटलों में मैं ने देखा कि सभी जगह अग्नि सम्बन्धी चेतावनी खूब लिखी रहती है। लिफ्ट में, तो एंट्रेंस में। अपने जेहन में दिल्ली के उपहार सिनेमा हॉल की दुर्घटना की याद ताजा हो गयी। 1997 का अग्निकांड, जिसमें उनसठ ने जान गँवायी, सौ से अधिक घायल हुए। सुप्रीम कोर्ट ने साठ करोड़ का जुर्माना ठोका। पंद्रह साल बाद। उसी तरह कलकत्ते के आमरी अस्पताल में न जाने कितने मरीज और तीमारदार दम घुट कर मर गये। फिर भी वहाँ कौन इन नियमों का पालन करता है? किसे है परवाह? चाँदी के जूते हैं न हाथ में।
यहाँ प्रत्येक एपार्टमेंट के सामने स्पष्ट अक्षरों में लिखा है – फायर लेन, नो पार्किंग। हमारे यहाँ की तरह नहीं कि गाड़ियों के नम्बर प्लेट भी धुँधली यादों का साकार रूप बनकर रह जाता है। फिर ढेर सारी गाड़ियों में तो वे अदृश्य ही रहते हैं। जान ले ले तो अच्छा, क्योंकि कहानी खतम। मगर अधमरा करके छोड़ गये तो शिकायत किसके खिलाफ होगी? निराकार ब्रह्म के खिलाफ? हेलमेट न पहनने पर बनारस में चालान कटता है।(अमां, खुदकुशी तो अब सुप्रीम कोर्ट की नजर में भी अपराध नहीं।) लेकिन लापरवाह या बेपरवाह ड्राइविंग के लिए, मोबाइल पर बात करते हुए जॉन अब्राहम बनने के लिए या कानफोड़ू हार्न बजाने के लिए उन वाहनचालकां के खिलाफ किस जहाँगीर बादशाह के दरबार में इन्साफ की घंटी टन टनाये ?
कनफेडरेशन हॉल के सामने जेब्रा लाइन तो बनी है, मगर चेतावनी भी है कि यहाँ गाड़ियों के लिए रोकना अनिवार्य नहीं है। यानी नैन लड़ाओ, फिर कदम बढ़ाओ। वैसे हर पेड़ की शाख पर ही शाखामृग रहते हैं। अर्थात हाई स्पीड के कारण यहाँ भी दुर्घटनाएँ होती हैं। हाईवे पर तो कत्तई कार खड़ी न करें। वरना कोई भी आपको उड़ाता हुआ निकल जायेगा। रुपाई कह रहा था,‘सड़क के उस पार पैदल राही का साइन आने पर ही सड़क पार किया करें। आजू बाजू देख भी लें। और हाँ, ध्यान रहे – यहाँ दायें से चलने का कानून है। सारे वेहिक्ल लेफ्ट हैंड ड्राइव हैं।’
हाँ, किंग्सटन के फैशन में एक बात उल्लेखनीय है कि यहाँ भी टैटू का खूब प्रचलन है। मर्द औरत दोनों अपने जिस्म पर तरह तरह के डिजाइन अंकित करवा कर रखते हैं। तंदुरुस्त बॉडीवाले पहलवान अपनी पेशियों पर जाने क्या क्या गुदवा कर रखते हैं। जरा देखिए वो जो चली आ रही है, उसके एक पैर में पैंट है, और दूसरे में नहीं है? यह क्या? पास आने पर दृष्टिभ्रम का समाधान हो गया। वो पहनी हुई है – हाफ पैंट से भी छोटा यानी पावभर का पैंट। एक तरफ गोरी टाँग, दूसरी ओर चितकबरा। पहले तो लगा यह भी कोई पारदर्शी पोशाक है क्या? पर पूरी काया दृष्टिगोचर होने पर सारी माया समझ में आ गयी।
उम्रदराज महिलायें भी इसमें पीछे नहीं रहतीं। ब्यूटी पार्लर के शीशे के दरवाजे के पीछे उनको भी खूब सेवा लेते हम दोनों ने देखा है। का भैल अगर बढ़ी उमरिया, सजनी ओढ़ नइकी चुनरिया।
मेरी दादी की माँ याद आ गयीं। विजया दशमी के बाद जब बाबूजी उनके पास हमें ले जाते थे, तो मुझे लगता था – जब वे पीतल के खरल(खल) पर दस्ते से कूट कूट कर पान खाती रहीं, तो शायद उनके कंठ के बाहर भी लालिमा छिटकती थी। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ के कथामुख में आचार्य ने लिखा है न कि-‘बंगला में दादी के साथ मजाक करने का रिवाज है।’ बंगालियों में दादा दादी नाना नानी के साथ नाती पोतों का एक मजाक का सम्पर्क भी रहता है। नतनी के विवाह वासर में रात्रि जागरण करने में दादी नानी का अग्राधिकार सर्वमान्य है। आर डी बर्मन के समानंतर वे हरि कीर्तन सुनाती हैं। उनके आधुनिक संस्करण यानी आधुनिक दादी नानी शायद टॉलीवुड की चिर बंसती जोड़ी उत्तम सुचित्रा की फिल्म के गाने सुनायें! और यह तो मेरी परदादी ठहरीं।
अरुणाचल के जीरो की याद आ गयी। इतिहास कहता है कि वहाँ की सुंदरियाँ दूसरे कबीलेवालों की नजर से बचने के लिए अपना चेहरा गुदवा लेती रहीं। और नाक पर बांस की नथनी लगाकर उसे भी बेढंगा बना डालती थीं। वहाँ अब एक डाक्टर ने इस परंपरा के खिलाफ जेहाद षुरू किया है। क्योंकि इससे इनफेक्शन फैलने का एवं स्कीन कैंसर होने का खतरा रहता है।
कैटारॅकी नदी जहाँ आकर लेक अॅन्आरिओ को कहती है ‘आदाब!’, वहीं साहिल के पास हरे भरे पार्क के बीच फव्वारे चलते रहते हैं। सामने सड़क के उस पार खड़ा है कॅनफेडरेशन हॉल। दिखने में बड़ा टाउनहॉल जैसा। किनारे कॉनफेडरेशन होटल। वहीं बैठा था। अचानक घंटे की ध्वनि …….
टन् टन् टन्……..मैं चौंक उठा। ऊपर देखा तो बात समझ में आयी। कॉनफेडरेशन हॉल के टॉवर क्लॉक में नौ बज रहे हैं। एकदिन घूमते टहलते मैं फव्वारे के पास बैठा था, तो देखा वहाँ लिक्खा है – यहाँ का पानी पीने के लिए नहीं है। नहाने के लिए भी प्रयोग न करें। साथ साथ यह भी बताते चलें कि भारत में जैसे बिसलेरी वॉटर बोतल में बिकते हैं, उसी तरह यहाँ झरने का पानी बोतल में बिकता है। और हमारी गंगा यमुना गोदावरी? राम, तेरी गंगा मैली हो गई, पापिओं के पाप धोते धोते ………..
द हॉन्टेड वाक ऑफ किंग्सटन – यानी किंग्सटन के अंधकाराच्छन्न अतीत का सैर कर लें। इस भुतहा दुनिया की सैर में वे आपको ले चलेंगे सिन्डेनहैम वार्ड की कब्रगाह में। बताते चलेंगे कि कैसे वहाँ कब्रों को खोदकर लाशों से चीजे चुरायी जाती थीं। या ऐसी ही कुछ खट्टी मीठी यादें। तो शिवजी की बारात में पधारे भूतों पर एक सोरठा ही हो जाए :- नाचहिं गावहिं गीत परम तरंगी भूत सब। देखत अति बिपरीत बोलहिं बचन बिचित्र बिधि। नाचते गाते भूत बड़े ही मनमौजी हैं। देखने में बेढंगे और बड़े ही विचित्र ठंग से बतियाते हैं वे।
दूसरी सैर है फोर्ट हेनरी की। वहाँ नील्स वॉन शूल्ज् को फाँसी दी गई थी। आखिर क्यों? तो सुनिए उनकी दास्तान-ए-बगावत। फिनलैंड में नील्स गुस्ताफ उलरिक नाम से जन्मे(7.10.1807.) षूल्ज सन् 1838 में अपर कनाडा विद्रोह में नेतृत्व कर रहे थे। इसे बैटल ऑफ विन्डमिल कहा जाता है। वे ‘हंटर्स लॉजेस’ नामक गुप्त संस्था के सदस्य थे। उनकी सोच थी कि ब्रिटिश वहाँ कनाडावासिओं पर जुल्म ढा रहे हैं। न्यूयार्क से समुद्री रास्ते से ऑन्टारियो पहुँच कर उनलोगों ने न्यूपोर्ट में एक मजबूत गढ़ भी बना लिया था। मगर पाँच दिनों के युद्ध के बाद अंततः उन्हे हथियार डालना पड़ा। उन्हे एवं उनके साथियों को गिरफ्तार कर एक नौका से किंग्सटन भेजा गया। यह भी देखिए, उन्होंने अपने बचाव में भविष्य में कनाडा का प्रधान मंत्री बननेवाले उसी जॉन अलेक्जांडर मैक्डोनाल्ड को नियुक्त भी कर लिया था। पर फौजी अदालत ने इंकार कर दिया,‘मगर मिस्टर शूल्ज, कानून के मुताबिक आपको अपना बचाव खुद करना होगा। आप अपने लिए किसी वकील को नियुक्त नहीं कर सकते।’
कहा तो यही जाता है कि नील्स वॉन ने अदालत में बहुत ही शराफत एवं विनम्रता से कहा था,‘मुझे गलत सूचना ही मिली थी। मैं वस्तु स्थिति का सही आँकलन कर नहीं सका। सचमुच मुझसे गलती हो गई।’ यह भी कहा जाता है कि कनाडा के ढेर सारे प्रतिष्ठित लोग उनकी मुक्ति के लिए आवेदन करते रहे। मगर हुआ कुछ नहीं। सभी उनकी शराफत के कायल थे। आखिर आठ दिसंबर सन 1838 में फोर्ट हेनरी में उन्हें फांसी से लटका दिया गया।
पुस्तिका में छपी लोअर फोर्ट स्थित रॉयल आर्टिलरी की एक तस्वीर (सन्.1867) में एक कोने पर एक भूतनी की छाया भी दिखती है। वाह रे कमाल! काया नहीं पर छाया तो है।
यह भी एक गजब का सफर है। किंग्सटन और ऑन्टारिओ में प्रेतलोक की सैर। टिकट16.75डा., विद्यार्थियों के लिए सिर्फ14.75डा.। यानी सिनेमा सर्कस देखने की तरह भूत देखने के लिए भी स्टूडेंट्स् कनसेशन !
ज़रा एक दफे सोचिए मियां, (शब्द निर्माण के लिए माफीनामा पेश करते हुए) कोई गोरा ‘गोरनी’ भूत भूतनी अगर, वहाँ मुझसे कहते आकर,‘हैल्लो मिस्टर, आइये अपनी मिसेज के साथ हमारे साथ कॉफी पीजिए न।’
तो मेरी हालत क्या होती? मैं न कहता?-‘मिस्टर श्वेत प्रेत, मेरे पास फिलहाल एक ही पैंट है। कहीं वो आगे से गीला, पीछे से पीला हो जाये तो घर पहुँचूँगा कैसे ?’
इस पर वो अगर कहता ?-‘यही तो मुश्किल है, भाया। तुम्हारी ही गीता में नहीं है? – वासांसि जीर्णानि यथा विहाय ? यानी तुम्हारे पास जो है, वो तो फटा वस्त्र मात्र है ? उसका इतना गरूर? अरे असली चीज तो मेरे पास है। यानी रुह, वही भाया – जिसे तुम लोग आत्मा कहते हो। पर काले बबुआ, (अब भूत की उमर का तो कोई आर पार होता नहीं। मैं सिक्सटी का हुआ तो क्या हुआ ? वो मुझे बबुआ तो कह ही सकता है।) चूँकि तुम्हारे हियाँ आत्मा स्त्रीलिंग है या पुल्लिंग इस पर पंडितों में घमासान मचा रहता है, तो इस झगड़े के चक्कर में मुझे ही भूतनी मत बना देना। बिरहा बिरहा मत कहो बिरहा है शमशान! जीते जी तो विरह में भले ही कट गया हो, मगर अब मुझसे मेरी भूतनी को जुदा मत करो। मुझे मर्द ही बने रहने दो।’
मुझे याद आया सच हमारे यहाँ के संस्कृत के विद्वान आत्मा को तो पुल्लिंग ही मानते हैं। कवि त्रिलोचन शास्त्री ने ‘शब्द’ में लिखा है – ‘अपनी अपनी चमक दिखा कर , कहाँ गया वह आत्मा/जिसकी सब तलाश करते हैं, जिस की रेखा/ नहीं बनी लेकिन सत्ता का शोर हो गया/ सारे जग में, आत्मा ही तो है परमात्मा.’
‘बनारसी बबुआ, यह तो बताओ – अगर आत्मा स्त्रीलिंग है, तो फिर परमात्मा पुल्लिंग कैसे ? फूलगोभी में फूल पुल्लिंग और गोभी नारीलिंग। कुल मिला कर फूलगोभी ने भी साड़ी पहन ली। उसी तरह…….’
सोचते सुनते, सुनते सोचते मेरा तो, बिलीव मी, सर चकराने लगा मैं हो गया बेहोश। ष्वेत प्रेत के मुँह से गीतोपदेश से लेकर हिन्दी के शब्द विचार – अरे बप्पा! मेरे लिए तो गीता का बस इतना ही मतलब है कि रंगीन कैलेंडर पर बने पाँच घोड़ेवाले रथ में बैठे श्रीकृष्ण मुसकिया रहे हैं। पीछे मुड़कर दोस्त को कुछ बतिया रहे हैं, और उ धनुर्धारी अर्जुन हथियार डाल के मुँह लटका के पीछे बैठा है। हाय, हाय!
धड़ाम् …..मैं गिरा……। जागा तो स्वयम् को बिटिया के घर में ही पाया। अपने बिस्तर पर ……। इतने में हों….ओं…..हों…..ओं…..झिर झिर घिर घिर….. हों… ओं….
अरे बापरे! यह कैसा शब्द राग है? क्या मेपल के पेड़ से कोई श्वेत प्रेत नीचे उतर आया है ? पहली रात को तो मैं सचमुच चौंक गया था। झूम की माँ भी डर गयी थी। ऊँ…..ऊँ….मानो सौ बिलार एकसाथ एक दूसरे को गरिया रहे हैं। भूत बंगले की आवाज। अभी शायद कहीं दूर से कई सियार हुआँ हुआँ करके प्रेताराधना करेंगे।
अरे भाई, यह तो बताओ – यह है क्या? खिड़की का शीशा बंद कर दो, तो आवाज में खड़ी पाई। जरा फिर से खोलो हे, ससुर नंदिनी। तो फिर वही हूँ ……ऊँ….। मानो किसी की रूह दस्तक दे रही है। अरे मालिक, इ गजब का डरावना माहौल बाय!
एक और आवाज यहाँ जब तब सुनाई पड़ती है। एम्बुलेंस की अभियान-वार्ता – हुँओं…हुँओं….। और झूम बता रही थी फायर ब्रिगेडवाले भी खूब दौड़ते रहते हैं। बस फायर अलार्म बजने की देर है ….
मुआमला यह है कि ऑन्टारियो झील के बिलकुल किनारे होने के कारण ऐसे भी यहाँ पवन को पूरी छूट है। सम्पूर्ण स्वाधीनता। वो बड़े बड़ों को हिलाकर रख दे। तो….फिर से खिड़की को स्लाइड करके खोलो तो….
बाणभट्ट को जब वज्रतीर्थ श्मशान में खींच कर ले जाया गया तो…..‘जलती चिताओं के पास थोड़ा प्रकाश दिखाई दे जाता था, परंतु उनके आगे अंधकार और भी ठोस हो जाता था। रह-रहकर उलूकों के घूत्कार और शिवाओं के चीत्कार से श्मशान का वातावरण प्रकंपित हो उठता था।(बाणभट्ट की ‘आत्मकथा’- दशम उच्छ्वास)
कुछ याद आया ?
© डॉ. अमिताभ शंकर राय चौधरी
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