हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण #2 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(हम श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा प्रस्तुत उनके यात्रा संस्मरण बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  को हमारे पाठकों के साथ साझा करने के लिए हृदय से आभारी हैं।  श्री अरुण जी ने इस यात्रा के  विवरण को अत्यंत रोचक एवं अपनी मौलिक शैली में  हमारे पाठकों के लिए प्रस्तुत किया है। श्री अरुण जी ने अपने ऐतिहासिक अध्ययन के साथ सामंजस्य बैठा कर इस साहित्य को अत्यंत ज्ञानवर्धक बना दिया है। अक्सर हम ऐसे स्थानों की यात्रा तो कर लेते हैं किन्तु हम उन स्थानों के इतिहास पर कभी ध्यान नहीं देते और स्वयं  को मोहक दृश्यों और कलाकृतियों के दर्शन मात्र तक सीमित कर लेते हैं।  यह यात्रा संस्मरण श्रृंखला निश्चित ही आपको एक नूतन अनुभव देगी।  आपकी सुविधा के लिए इस श्रंखला को हमने  चार भागों में विभक्त किया है जिसे प्रतिदिन प्रकाशित करेंगे। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें।)

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण # 2 ☆ बादामी और हम्पी : भूला बिसरा इतिहास  ☆

दक्षिण भारत में चौदहवीं शताब्दी में हरिहर और बुक्का दो भाईयों ने मिलकर एक शक्तिशाली साम्राज्य की स्थापना की जिसे विजयनगर के नाम से जाना गया। इस साम्राज्य की स्थापना को लेकर अनेक कहानियां हैं पर विभिन्न ऐतिहासिक साक्ष्यों के आधार पर यह निष्कर्ष निकाला जा सकता है कि कुरुबा जाति के दो भाई,  जो वारंगल के राजा के यहां महत्त्वपूर्ण पदों पर कार्यरत थे, वारंगल पर 1323 में मुस्लिम आक्रमण फलस्वरुप पराभव के कारण वहां से निकलकर अनेगुन्डी के हिन्दू राजा के दरबार में नियुक्त हो गये।1334 में अनेगुन्डी के राजा ने दिल्ली के सुलतान मुहम्मद तुगलक के भतीजे बहाउद्दीन को अपने यहां शरण दे दी जिसके कारण वहां सुल्तान ने आक्रमण किया। अनेगुन्डी की पराजय हुई और दिल्ली के सुलतान ने मलिक काफूर को यहां का गवर्नर नियुक्त किया ( मालिक काफूर गुजरात का था और धर्म परिवर्तित कराकर उसे मुसलमान बनाया गया था) । चूंकि मलिक यहां के शक्तिशाली निवासियों पर नियंत्रण न कर सका अतः दिल्ली के सुलतान ने यह क्षेत्र पुनः हिन्दू राजा को सौंप दिया। जनश्रुति के अनुसार  दोनों भाई हम्पी के जंगलों में शिकार कर रहे थे तब उन्हें  संत माधवी  विद्यारण्य ने राजा बनने का आशीर्वाद दिया और इस प्रकार हरिहर व बुक्का ने विजयनगर साम्राज्य की स्थापना सन 1335 में की। उधर सन 1347 में दक्षिण भारत में एक और मुस्लिम राज्य बहमनी सल्तनत (1347-1518) में,तुर्क-अफगान  सूबेदार अलाउद्दीन बहमन शाह द्वारा  स्थापित हुई।  1518 में इसके विघटन के फलस्वरूप गोलकोण्डा, बीजापुर, बीदर, बीरार और अहमदनगर के राज्यों का उदय हुआ। इन पाँचों को सम्मिलित रूप से दक्कन सल्तनत कहा जाता था। बहमनी सुल्तान व बुक्का के बीच अनेक युद्ध हुए।कभी बुक्का जीतता तो कभी बाजी सुलतान के हाथ लगती रही अन्ततः 1375 में विजयनगर साम्राज्य विजेता बन गया और दक्षिण भारत में उसका प्रभुत्व स्थापित हो गया।

अरब,इटली,फारस और रुस के विभिन्न इतिहासकारों व यात्रियों ने समय समय पर विजयनगर की यात्रा की और इसकी रक्षा प्रणाली, सात दीवारों से घिरे दुर्गों, विशाल दरवाजों,  संपदा व समृद्धि,राज्य द्वारा आयोजित  चार प्रमुख उत्सवों (नव वर्ष, दीपावली, नवमी व होली) , व्यापार व  व्यवसाय,लंबे चौड़े बाजार, उसमें विदेशों से आयातित  सामान जैसे घोड़े व मोती तथा भारत से निर्यात की जाने वाली सामग्री मसाले, सोने चांदी के जेवर, हीरा माणिक आदि रत्नों का विस्तार से उल्लेख किया है।
विजयनगर साम्राज्य में सर्वाधिक नामी शासक कृष्णदेव राय थे जिन्होंने 1509 से 1529 तक शासन किया। उन्होंने अनेक सैन्य अभियानों का नेतृत्व किया जिसमें ओडिसा के राजा गजपति राजू व बीजापुर के सुल्तान आदिलशाह पर रायचुर विजय प्रमुख है। रायचुर में मिली पराजय से आदिलशाह इतना घबरा गया कि उसकी दोबारा विजयनगर साम्राज्य की ओर देखने की हिम्मत भी न हुई। दूसरी ओर इन विजयों के बाद कृष्ण देवराय दक्षिण का शक्तिशाली सम्राट बन बैठा और आदिलशाह पर  उसका क्षेत्र लौटाने के लिए बहुत ही कठोर व  अपमान भरी शर्ते, जैसे पराजित सुलतान उसके चरण चूमकर माफी मांगे आदि रखी। अपमान से भरी हुई इन शर्तों ने भविष्य में मुस्लिम सुलतानों के संगठित होकर विजयनगर पर आक्रमण का रास्ता खोला। कृष्ण देवराय के समय विजयनगर में अनेक मंदिरों वे भवनों का निर्माण हुआ। उसने विरुपाक्ष मंदिर का विशाल गोपुरम, कृष्ण मंदिर, हजारा राम मंदिर, विट्ठल स्वामी मंदिर आदि बनवाये। विट्ठल स्वामी मंदिर में स्थित पत्थर का रथ भी उन्ही के राज में ओडिशा विजय के पश्चात कोर्णाक के सूर्य मंदिर की तर्ज पर बनाया गया है।

(प्रस्तर रथ विजयनगर विट्ठल मंदिर)

कृष्ण देवराय के शासनकाल में अनेक व्यापारियों व आमजनों द्वारा भी विशालकाय निर्माण कराये गये इसमें नरसिंह मूर्त्ति, बडवी शिव लिंग, सरसों बीज गणेश, चना गणेश आदि प्रसिद्ध हैं। कृष्ण देवराय ने सिंचाई प्रणाली का भी काफी विस्तार किया व अनेक तालाबों व नहरों का निर्माण कराया। उनके समय में बनाई गई कुछ नहरों से अभी भी सिंचाई होती है।

1565 में तालीकोटा  की लड़ाई के समय, सदाशिव राय विजयनगर साम्राज्य का शासक था। लेकिन वह एक कठपुतली शासक था। वास्तविक शक्ति उसके मंत्री राम राय के हाथ थी। सदाशिव राय नें दक्कन की इन सल्तनतों के बीच मतभेद पैदा करके उन्हें आपस में लड़वाने और इस लड़ाई में बीजापुर की मदद से उन्हे  कुचलने की कोशिश की। बाद में इन सल्तनतों को विजयनगर की इस कूटनीतिक चाल का पता चल गया  और उन्होंने एकजुट होकर एक गठबंधन का निर्माण कर विजयनगर साम्राज्य पर हमला बोल दिया था। दक्कन की सल्तनतों ने विजयनगर की राजधानी में प्रवेश करके उनको बुरी तरह से लूटा और सब कुछ नष्ट कर दिया। मंदिरों भवनों में आग लगा दी।विजयनगर की हार के कुछ  कारणों में दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना में घुड़सवार सेना की कमी,  विजयनगर के राजा का दंभी थ होना, अन्य हिन्दू राजाओं से उनके अच्छे संबंध न होना आदि हैं।दक्कन की सल्तनतों की तुलना में  विजयनगर के सेना के हथियार पुराने थे व अधिक परिष्कृत नहीं थे। दक्कन की सल्तनतों के तोपखाने युद्ध में बेहतर थे। तालीकोटा की लड़ाई के पश्चात् दक्षिण भारतीय राजनीति में विजयनगर  राज्य की प्रमुखता समाप्त हो गयी। मैसूर के राज्य, वेल्लोर के नायकों और शिमोगा में केलादी के नायकों नें विजयनगर से अपनी स्वतंत्रता की घोषणा की। यद्यपि दक्कन की इन सल्तनतों नें विजयनगर की इस पराजय का लाभ नहीं उठाया और पुनः पहले की तरह एक दूसरे से लड़ने में व्यस्त हो गए और अंततः मुगलों के आक्रमण के शिकार हुए।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

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(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )