हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # छह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक

श्री अरुण कुमार डनायक

(ई- अभिव्यक्ति में हमने सुनिश्चित किया था कि – इस बार हम एक नया प्रयोग  कर रहे हैं।  श्री सुरेश पटवा जी  और उनके साथियों के द्वारा भेजे गए ब्लॉगपोस्ट आपसे साझा  करने का प्रयास करेंगे।  निश्चित ही आपको  नर्मदा यात्री मित्रों की कलम से अलग अलग दृष्टिकोण से की गई यात्रा  अनुभव को आत्मसात करने का अवसर मिलेगा। इस यात्रा के सन्दर्भ में हमने कुछ कड़ियाँ श्री सुरेश पटवा जी एवं श्री अरुण कुमार डनायक जी  की कलम से आप तक  पहुंचाई ।  हमें प्रसन्नता है कि यात्रा की समाप्ति पर श्री अरुण जी ने तत्परता से नर्मदा यात्रा  के द्वितीय चरण की यात्रा का वर्णन दस -ग्यारह  कड़ियों में उपलब्ध करना प्रारम्भ कर दिया है ।

श्री अरुण कुमार डनायक जी द्वारा इस यात्रा का विवरण अत्यंत रोचक एवं उनकी मौलिक शैली में हम आपको उपलब्ध करा रहे हैं। विशेष बात यह है कि यह यात्रा हमारे वरिष्ठ नागरिक मित्रों द्वारा उम्र के इस पड़ाव पर की गई है जिसकी युवा पीढ़ी कल्पना भी नहीं कर सकती। आपको भले ही यह यात्रा नेपथ्य में धार्मिक लग रही हो किन्तु प्रत्येक वरिष्ठ नागरिक मित्र का विभिन्न दृष्टिकोण है। हमारे युवाओं को निश्चित रूप से ऐसी यात्रा से प्रेरणा लेनी चाहिए और फिर वे ट्रैकिंग भी तो करते हैं तो फिर ऐसी यात्राएं क्यों नहीं ?  आप भी विचार करें। इस श्रृंखला को पढ़ें और अपनी राय कमेंट बॉक्स में अवश्य दें। )

ई-अभिव्यक्ति की और से वरिष्ठ नागरिक मित्र यात्री दल को नर्मदा परिक्रमा के दूसरे चरण की सफल यात्रा पूर्ण करने के लिए शुभकामनाएं। 

☆हिंदी साहित्य – यात्रा-संस्मरण  ☆ नर्मदा परिक्रमा – द्वितीय चरण # छह ☆ – श्री अरुण कुमार डनायक ☆

10.11.2019 सुबह अविनाश भाई दवे जबलपूर से चलकर नरसिंहपुर होते हुए सांकल आने वाले थे, अतः हम सभी साहू जी से विदा लेकर बस स्टैंड आ गये गुड़ की जलेबी और समोसे का नाश्ता किया और उस चबूतरे पर बैठ गए जहां कल सायंकाल ग्रामीण जन चौपड़ खेल रहे थे।

पैंट शर्ट धारी परिक्रमावासियों के विषय में कल से ही गांव में चर्चा थी अतः हमें देखते ही ग्रामीण एकत्रित हो गए। पटवाजी ने पुनः महाभारत की कथा सुनाना शुरू कर दिया। यह जोशी जी को पसंद नहीं आया और उन्होंने धीरे से इसे रोजगारपरक शिक्षण-प्रशिक्षण की दिशा दी, गांधी चर्चा भी हुई और कुछ प्रतीकात्मक सफाई भी। बस स्टैंड के दुकानदारों ने कचरा संग्रहण हेतु डब्बे रखें हैं पर इसका सार्वजनिक डिस्पोजल नहीं होता है अतः यह कचरा दुकानों के पीछे फेंक दिया जाता है।

मेरी इच्छा हुई कि सरपंच से इस संबंध में बात करनी चाहिए पर उनसे मुलाकात असंभव ही रही। यहां संतोष सेन मिले, वे पेशे से नाई हैं, और दंबगों से उन्होंने बैर लिया, जिससे रुष्ट हो दंबगों ने उन पर तेजाब फेंक दिया था। लेकिन इस दुर्घटना के बाद वहां दंबगई खत्म हुई और लोगों की दुकानें खुली।

धानू सोनी मिले। वे परिक्रमा करने वालों को चाय नाश्ता उपलब्ध कराते हैं। हमें भी उन्होंने चाय पिलाई पर मूल्य न लिया। हमने उनकी पुत्री के हाथ कुछ रुपये रख विदा ली। यहीं सिलावट परिवार से मुलाकात हो गई,  उन्होंने मुआर घाट से परिक्रमा उठाई थी। मैंने उनसे पुश्तैनी पेशा के बारे में पूंछा, वे न बता सकें, खेती-बाड़ी करते हैं, ऐसा बताया। शरद तिवारी, सोशल वर्कर हैं, नर्मदा में प्रदूषण, अतिक्रमण, तराई में फसल आदि को लेकर चिंतित दिखाई दिये।

कोई साढ़े नौ बजे अविनाश की बस आ गई और हम नहर मार्ग से अगले पड़ाव की ओर चल पड़े। थोड़ी दूर चले होंगे कि राजाराम पटैल मिल गये, उन्होंने प्रेम के साथ अपने खेत का गन्ना हमें चूसने को दिया। हम लोगों में से केवल पटवाजी ही गन्ने को दांत से छीलकर चूस सके बाकी ने उसे पहले हंसिया से चिरवाया फिर चूसा।  रास्ते भर गन्ने के खेत और बेर की झाड़ियां मिली। पके मीठे बेर खूब तोड़ कर खाते हुए हम आगे बढे।

गुढवारा के रास्ते में हमें आठवीं फेल कैलाश लोधी मिल गये। वे बड़े प्रेम से हम सबको घर ले आए चाय पिलाई और अपने पुत्र रंजीत लोधी से मिलवाया। रंजीत ने इंदौर के निजी कालेज से बी ई किया है और पीएससी की तैयारियों में लगे हैं। कहते हैं कि जनता की सेवा करने शासकीय सेवा में जाना चाहते हैं। पटवाजी ने उन्हें अपनी पुस्तक गुलामी की कहानी से कुछ उद्धरण सुनाये।

गांव से निकलकर हम पुनः नर्मदा के किनारे आ गये। तट पर रेत पत्थर न थे सो नहाया नहीं और आगे बढ़ चले।  कुछ दूर चले होंगे कि नर्मदा की कल-कल ध्वनि सुनाई देने लगी। आश्चर्य हुआ, झांसी घाट से अभी तक हमने शांत होकर बहती नर्मदा के दर्शन किये थे, यहां नर्मदा संगीतमय लहरियों के साथ बह रही थी। यह घुघरी घाट है। यहां नर्मदा पत्थरों के बीच कोलाहल करती प्रवाहमान है। उत्तरी तट की ओर से विन्ध्य पर्वत माला की हीरापुर श्रृंखला के दर्शन होते हैं। तट पर हम सबने विश्राम किया और नहाया। कल-कल ध्वनि इतनी मधुर थी कि उठने का मन ही न हुआ।

हम सबने अविनाश भाई के द्वारा लाई गई मेथी की भाजी की पूरियां, आवलें के अचार और घी के साथ खाई और कुछ विश्राम किया। अविनाश स्वादिष्ट भोजन के प्रेमी हैं। यह गुण उन्हें उनके माता व पिता से विरासत में मिला है। बाबूजी बताते थे कि हमारे फूफा, अविनाश के पिता, स्वादिष्ट खेडावाडी व्यंजनों के बड़े प्रेमी थे। अविनाश के बैग का एक खंड खाद्य सामग्री से भरा है। उसके पास चाय काफी से लेकर पोहा,नमकीन, अचार, मैगी मसाला लड्डू सब मिल जायेगा। हमने घुघरी घाट में नर्मदा के साथ कोई दो घंटे बिताए और फिर  रात्रि विश्राम के लिए ठौर ढूंढने घुघरी गांव की ओर चल पड़े। यहां चढ़ाई सांकल घाट की तुलना में कम थी।

एक जगह टीलों के कटाव की मैं फोटो खींचने लगा। इतने में एक गौड़ अधेड़ दिखा चर्चा चली कि पेड़ लगे होते तो यह टीले ऐसे न कटते। उसने बताया कि यह नदी की बाढ का नहीं मनुष्य की लालच का फल है। नहर में मिट्टी भराई कार्य हेतु जेसीबी मशीनों के तांडव का नतीजा है। दुःखी मन ने सोचा कि हम ईशोपनिषद के श्लोकों को भी भूल गये हैं। गांधीजी ने हिंद स्वराज में मशीनों का उपयोग सोच समझकर करने कहा था। उनकी चेतावनी हमने नहीं मानी और यह  अब पर्यावरण को भी नुकसान पहुंचा रही है। थोड़ी दूर पर बम-बम बाबाजी द्वारा संचालित श्री राधाकृष्ण मंदिर धर्मशाला है। बाबा की उम्र अस्सी के आसपास है और परिक्रमा पश्चात घर-बार छोड़कर यहां बस गये हैं। परिजन व पत्नी अक्सर मिलने आते रहते हैं। वहीं रात कटी बाबा ने भोजन व्यवस्था की और हम लोगों ने मोटे-मोटे टिक्कड मूंग की दाल के साथ उदरस्त किये।

आश्रय स्थल  के सामने स्थित विशालकाय बरगद वृक्ष देखा। पेड़ काफी पुराना है और लगभग सात आठ स्तंभ हैं। नर्मदा तट के निवासियों ने जगह जगह बट, पीपल, इमली आदि के वृक्ष लगाए हैं इससे कटाव रूकता है। पर यह वृक्षारोपण दो पीढ़ियों के पहले का है अब तो युग अपना और केवल अपना भला सोचने का है। परहित सरिस धर्म नहिं भाई का जमाना हम बहुत पीछे छोड़ आए हैं।

 

©  श्री अरुण कुमार डनायक

42, रायल पाम, ग्रीन हाइट्स, त्रिलंगा, भोपाल- 39

(श्री अरुण कुमार डनायक, भारतीय स्टेट बैंक से सेवानिवृत्त अधिकारी हैं  एवं  गांधीवादी विचारधारा से प्रेरित हैं। )