सुश्री इन्दिरा किसलय

☆ व्यंग्य ☆ तोहफा दो तो ऐसा दो… ☆ सुश्री इन्दिरा किसलय ☆

तोहफा दो तो ऐसा दो

… कि दिल गार्डन गार्डन हो जाये।किसी भी “पालतू तोते” से पूछेंगे तो यही जवाब मिलेगा।अगर पूछें कि किताब का तोहफा कैसा रहेगा, तो वह “हरी मिर्च” खाने लगेगा।किताबें पढ़ने के लिये होती हैं कहेंगे तो वह तोतापंती पर उतर आयेगा–नादां!किताबें देखने के लिये होती हैं जैसे अखबार।

सब कुछ उल्टा पुल्टा होते देखकर तोते ने बरबस “जसपाल भट्टी” की याद दिला दी।

साहित्यकार होने के नाते साहित्य जगत में किताबों के ओहदे की छानबीन जरूरी है। “सौजन्य प्रतियों” का हश्र किसी से छिपा नहीं है। पाने वाला भुरभुरी नज़र से छूकर शेल्फ में अनंतकाल के लिये “नज़रबंद” कर देता है। न वो “प्रेयसी “होती है न “पत्नी”। या फिर भड़कीली पैकिंग के साथ अगले की ओर सरका दी जाती है। वह भी यही करता है। महाजनो येन गतः स पंथाः।

सवाल इसलिए भी मौजूं है, क्योंकि सुनते हैं एक उपमुख्य मंत्री ने कहा है कि जनता जनार्दन, मंत्रियों को तोहफे में सिर्फ किताबें और कलम ही प्रदान करें। वे “फिलाॅसफर किंग “की धारणा को बल दे रहे हैं। फूलों का क्या है- वे क्षणजीवी हैं। श्रीफल की चटनी कब तक खायेंगे। ठंडी में गर्मी का एहसास दिलानेवाली शालें  बदन पर लादे कब तक घूमेंगे।

लगता है लेखक पाठक बिरादरी में विचरण करनेवाला विचार मंत्रीजी ने “हाइजैक” कर लिया। समस्त भाषाओं में रचित किताबों के कान खड़े हो गये। उनकी चिन्ता वाजिब थी। क्या पता मंत्री कलंत्री, किताबों के साथ जाने कैसा सलूक करें। लिहाजा उन्होंने विमर्श के लिये एक आपातकालीन गोष्ठी आयोजित की।

“अंग्रेजी-किताब” ने कहा– हमें, पठनीयता का संकट नहीं है। लगभग दो तिहाई दुनिया अंग्रेजी जानती है।और फिर विक्रम सेठ, शशि थरूर,अरुंधति, रस्किन बांड, रूश्दी, नायपाॅल, और चेतन भगत की किताबें हाथों हाथ बिक जाती हैं। सभी पाना चाहते हैं। जनता टनों के हिसाब से खैरात में हमें नहीं बाँटती।

“हिन्दी-किताब”  लाल पीली होकर बोली- तुमने तो ऐसा हमला किया कि सवाल ही गायब हो गये। ऑफेन्स इज़ द बेस्ट डिफेंस। यहां पठनीयता के संकट पर नहीं मंत्रीजी के विचार पर मंथन हो रहा है। महान मंत्रीजी अपनी भाषा में शपथ तक नहीं पढ़ पाते वो अंग्रेजी किताबें पढ़ेंगे। उनपर नज़र डालने की जहमत तक न उठायेंगे।

—-वे चाहे जो करें। पोस्टमार्टम करें या बेच दें। उनकी मर्जी।

—–कैसी मर्जी। किताबों का घोर अपमान। किताबों के लिये जंगल कटते हैं। स्याही खर्च होती है। लेखक दिल की ढिबरी जलाकर उजाला करता है फिर लिखता है।मंत्रियों को पढ़ना होगा।

—-उन्हें रिबन काटने, लंबी लंबी फेंकने और घूमा घूमी से फुर्सत मिले तब ना।

—-“प्रादेशिक भाषा की किताबें “अब तक “साइलेंट मोड” में पड़ी थीं। अकस्मात उनमें हलचल होने लगी। वे बोलीं–हमारी हालत तो तुम सबसे ज्यादा खस्ता है।

अंग्रेजी ने उन्हें तुच्छ नज़र से देखा।

हिन्दी- किताब ने चर्चा को पटरी पर लाने के लिये कहा–भैंस के आगे बीन बजाना, साँप को दूध पिलाना, जैसे मुहावरे हमने इसी दिन के लिये सहेजे हैं।

प्रादेशिक किताब बोली– हम क्यों चिन्ता में घुलकर सींक हुये जा रहे हैं। हमने सुना– वो कहते हैं “न पढ़ेंगे न पढ़ने देंगे।” जनता भारी मात्रा में किताबें भेंट करेगी तो हो सकता है उन्हें “साइलोज” बनाने पड़ें। न बना पाये तो दीमकें खा खाकर बुद्धिजीवी बन जायेंगी।

हिन्दी किताब ने कहा– अरे कुछ कलम पर भी तो बोलो।मंत्रियों को चवन्नी छाप कलम तो कोई देगा नहीं। सोने की होगी या हीरे जड़े होंगे। मंत्री इन्हें बाँटने से रहे।

——गोष्ठी की अध्यक्षता करते हुये “कोरी किताब” ने  ध्यानपूर्वक सारे प्वाइंट्स नोट किये और इस नतीजे पर पहुंची कि– मंत्रीजी को” टेलीप्राॅम्प्टर” भेंट किये जायें। और पेनों (कलम) को राष्ट्र हित में बेच देना चाहिए।

सभी की सहमति पाकर कोरी -किताब ने अपनी सिफारिशें उप मुख्य मंत्रीजी तक पहुंचा दीं।

©  सुश्री इंदिरा किसलय 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक मंडल (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’/श्री जय प्रकाश पाण्डेय  ≈

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