श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” 

अल्प परिचय 

नाम – श्री संजय कुमार (उपनाम संजय आरजू “बड़ौतवी”)

पदनाम: उप महाप्रबंधक (सिविल) भारतीय विमानपत्तन प्राधिकरण, भोपाल

शिक्षा: (1) सिविल इंजीनियरिंग में स्नातक (2) जर्नलिज्म और मास कम्युनिकेशन में डिप्लोमा (3) M. A. (हिन्दी साहित्य)

अन्य रुचि:  कहानीकार, लघुकथाकार, कवि, स्तम्भकार, समाजसेवक,पर्यावरणविद.

☆ आलेख ☆ आज की सुविधा कल की दुविधा…📱☆ श्री संजय आरजू “बड़ौतवी” ☆

ट्रेन में बैठी “सुनीता” ने अपने काम को निपटाने के लिए है पास ही बैठे तीन साल के अपने छोटे बच्चे “तक्ष” को मोबाइल दे रखा है सुनीता चाहती है कि वह अपने ऑफिस का काम ट्रेन में बैठकर ही निपटाले, इस दौरान उसका बच्चा उसे परेशान ना करें इसके लिए उसने अपना एंड्राइड मोबाइल भी उसके हाथ में पकड़ा दिया है। बेटा तक्ष खुशी से झूमता है और सुनीता के गाल पर पप्पी देते हुए कहता है “मम्मी आई लव यू”।

एक मुस्कुराहट के साथ सुनीता अपने ऑफिस के काम में लग जाती है फिर ट्रेन में स्टेशन के बाद स्टेशन आते जाते हैं तक्ष अपने मोबाइल में अपनी पसंद का गेम खेलने लग जाता है। थोड़ी देर में तक्ष की यस यस की आवाजें आने लगती है बीच-बीच में वह सुनीता को बस इतना ही कहता” मम्मी देखो मैंने छटा लेवल पार कर लिया है अब मेरा लेवल आठ निकल गया है”। और सुनीता मुस्कुराते हुए कहती है ठीक है बेटा खेलो पर मुझे डिस्टर्ब ना करो।

ऐसी ही एक कहानी दुकान पर बैठे “सुमित” की भी है सुमित की तीन बच्चे हैं सबसे छोटी बेटी छः महीने की है उसे संभालने और घर के काम में लगी उसकी पत्नी “सुमित्रा” को ऐसे में अपने ढाई साल की मंझली बेटी”ईशा की देखभाल भी सुमित को ही करनी रहती है इसलिए वह दुकान में बैठे-बैठे कई बार ग्राहकों से बातें करने की जल्दी में बेटी ईशा को मोबाइल पकड़ा देता है।

 ईशा मोबाइल लेते ही एकदम खुशी से झूम उठती है”थैंक यू पापा” और उसके बाद वह अपना मनपसंद कार्टून टीवी देखती रहती है।

सुमित अपनी दुकानदारी में लग जाता है।

 यह छोटी-छोटी घटनाएं बाजार में हमारी आंखों के सामने से अक्सर गुजरती हैं और हम उन बच्चों को हल्का सा मुस्कुरा कर देखते है फिर उनके पेरेंट्स को कहते हैं “आपका बच्चा बहुत स्मार्ट है”।

पैरेंट्स भी मुस्कुरा कर कहते हैं जी शुक्रिया।

इक्कीसवीं सदी की यह नए पढ़े – लिखे मां-बाप की अक्सर इकलौती या दो संतानों में से एक हुआ करती है।

जहां दंपति अक्सर अपनी रोजमर्रा के जीवन की समस्याओं जैसे प्रोन्नत विकास, आर्थिक लाभ, महंगी कार या फिर महंगे सामान से घर भर लेने की तीव्र चाह से जूझते हैं।

कई बार हम खुद भी इन्ही की तरह जाने अंजाने में अपने हिस्से की जिम्मेदारियां कुछ इसी तरह निभा रहे होते है।

हमें लगता है कि बच्चों को मोबाइल पकड़ा देने से समस्याएं तात्कालिक रूप से बेहद कम या खत्म हो जाती हैं, और बहुत आसान हो जाता है बच्चों को संभालना और साथ में अपने रोजमर्रा के काम करना भी।

यह मानवीय प्रवृत्ति है कि अक्सर वह छोटे तात्कालिक लाभ के लिए कई बार और दूरगामी संभावित दुखों को अपनी तरफ आकर्षित कर लेता है।

तात्कालिक आर्थिक लाभ को समाज में लालच कहते हैं, इक्कीसवीं सदी की युवा अभिभावक अक्सर अपनी सुविधाओं के लिए बच्चों को मोबाइल में बिजी कर देना आसान माध्यम समझते हैं।

बाहर खेलने में सुरक्षा का अभाव, साथ ही अपने काम से ध्यान हटाकर बच्चे पर ध्यान लगाए रखने की एक, स्वाभाविक आवश्यकता, शारीरिक उठापटक, बच्चों के झगड़े, और न जाने क्या- क्या संभावनाएं है तो वहीं मोबाइल एक सुविधाजनक, सुरक्षित, एवम सीमित जगह पर बिना अतिरिक्त खर्च के बच्चों पर कम ध्यान देने से भी काम चलने के सुखद भाव से परिपूर्ण एक व्यवस्था है।

सभी अभिभावक जो काम कर रहे हैं, वह या तो आजीविका के लिए कर रहे हैं, या अपनी अगली पीढ़ी का भविष्य सुरक्षित करने के लिए।

अपनी सुविधा के लिए बच्चों को दिए मोबाइल पर तेजी से चलती उंगलियों और घूमती आंखों से बच्चा एक विशेष खेल के एक विशेष खिलाड़ी को बचाने के लिए तो तेजी से बटन तो दबा कर बचा सकता है, मगर क्या वो बच्चा सड़क पर, सामने से आने वाली साइकिल से अपने आप को बचा पाएगा?क्योंकि साइकिल से बचना एक प्रायोगिक प्रक्रिया है जो प्रयोग से ही सीखी जा सकती है।

जबकि मोबाइल गेम में वह बच्चा अपने मोबाइल के हीरो को सिर्फ बटन दबाने मात्र से बचाता है।

उसका दिमाग और शरीर एक विशेष रूप की प्रक्रिया करने का आदी हो जाता है, जो कि बटन दबाने तक ही सीमित होकर रह जाती है, भौतिक रूप से सभी अंगों को एक साथ लेकर चलने को ही शरीर की प्रतिक्रिया कहा जाता है। अंगूठा या उंगली चलाने को नही और न ही उससे सामने से आ रही साईकल ही रुकेगी।

साईकल से बचने के लिए पूरे शरीर को काम करना होगा क्या हम अभिभावकों को इस बात का अहसास है?

क्या हम जानते हैं इस सदी की नई पीढ़ी को हम मोबाइल के साथ खेलने दिए जाने वाले अवसर के साथ-साथ अपनी सुविधाओं को भविष्य में एक बहुत बड़ी दुविधा के रूप में विकसित कर रहे हैं। यह कोई छोटी – मोटी घटना नहीं है अगली पीढ़ी के सार्वभौमिक विकास की आवश्यकता को देखते हुए, ये चिंता का गंभीर विषय है।

धीरे-धीरे 21 वीं सदी अब 24वें साल में प्रवेश कर चुकी है।

जिसका मतलब है नए – नए बन रहे मात-पिता भी, 20वीं सदी के अंतिम दशक या 21 वीं सदी में ही पले बढ़े हैं 21 वीं सदी विकास की सदी रही है, इस युवा पीढ़ी ने अपने साथ-साथ देश को परिवर्तित, होते हुए देश और समाज को कृषि प्रधान देश से तकनीकी प्रधान देश की तरफ विकसित एवं अग्रसित होते हुए देख रहा है।

 यह वह पीढ़ी है जिसने अपने माता – पिता को खेतों में काम करते हुए भी देखा है पढ़ लिख कर नई सदी के नए भारत को बनाने में अपना योगदान भी दे रहे हैं। इन्होंने संभवतः यह भी सीखा है कि जो संसाधनों की कमी उन्होंने खुद के जीवन में महसूस की है वह अपनी अगली पीढ़ी को न होने देंगे।

लेकिन यहां एक छोटा सा प्रश्न इस नवयुवा पीढ़ी के लिए है कि जिन संसाधनों की कमियों ने उन्हें नए रास्ते सोचने के लिए मजबूर किया था क्या उन संसाधनों की पूर्ति के लिए इन्होंने नए-नए रास्ते निकालने की युक्तियां नहीं लगाई थी? जिसके चलते 21वीं सदी की इस युवा पीढ़ी ने आज अपने आप को शारीरिक रूप से सुदृढ़ एवं मानसिक रूप से बहुत समृद्ध पाया है। आवश्यकता आविष्कार की जननी है यह पुरानी कहावत है जब आवश्यकता आई ही नहीं होगी तो अविष्कारी सोच कहां से आएगी?, बाहर खुले मैदान में खेलना, पेड़ पर चढ़कर एक छोटा सा आम तोड़ना खेत में जाते वक्त गीली मिट्टी में पैर का धंसना, साइकिल की चेन उतरना हैंडल का मुड़ जाना दोस्त की साइकिल पर बैठकर घर तक आना जीवन को तराशने के औजार थे न की सिर्फ संसाधनों की कमी।

यह सच है कि हर व्यक्ति की अपनी अपनी ज़रूरतें और समस्याएं होती है जिनका हल भी उसी व्यक्ति को अपने, संसाधन एवं परिस्थितियों को देखते हुए निकलना होता है।

आज घर-घर में हो रही अनजानी गलतियों की तरफ ध्यान दिलाते हुए यहां पिछले दस वर्षों के आंकड़ों का विवरण करना आवश्यक है 

वर्ष 2011 से 2019 के बीच नेशनल इंस्टीट्यूट आफ हेल्थ (NIH) अमेरिका द्वारा 15 वर्ष से कम आयु के बच्चों पर मोबाइल के प्रयोग से हुए प्रभावों पर कराए गए 25 अध्यनों में से 16(64%) में मोबाइल का बच्चों के मानसिक विकास पर बेहद खतरनाक, 5 (20%)में खतरनाक एवम 4 (16%)में कम खतरनाक बताया गया है .इस तरह कुल 84%बच्चों पर खतरनाक से बेहद खतरनाक स्तर के लक्षण जैसे आंखें खराब होना, शरीर के अंगों का सामंजस्य न होना, अल्प विकसित दिमाग, भूख न लगना, उल्टियां होना, कंपकपी आना, अत्यधिक डरना, झगड़ालू होने से लेकर मानसिक रूप से विक्षिप्त होने जैसे गंभीर प्रभाव पड़ने की संभावना है। ऐसे में आज के समय में बच्चो को मोबाइल से पूरी तरह दूर तो नही रखा जा सकता परन्तु कुछ नियंत्रित नियमों के तहत सीमित जरूर किया जा सकता है अथवा कहें कि किया जाना चाहिए।

थोड़े से साकारात्मक प्रयास ओर सोच से बच्चों की इस आदत का सदुपयोग भी किया जा सकता है जैसे – उन्हे निश्चित अवधि के लिए ही मोबाइल पर खेलने की अनुमति देने के बदले में स्कूल का होम वर्क करवाना, उन्हे नई नई तकनीकियों से परिचित कराना। उन्हे इंटरनेट से जानकारी परक खगोल, विज्ञान, स्पेस जैसे विषयों पर जानकारी परक कंटेंट के लिए प्रोत्साहित करना। उनसे खुदके लिए कुछ उपयोगी सामग्री निकलने के लिए कहना, आदि। साथ ही अभिभावकों को अपनी प्राथमिकता में बच्चों से बात करना, उनसे समसामयिक विषयों पर विचार जानना अपने व्यक्तिगत अनुभवों को बच्चों को बताना आदि भी दिनचर्या का आवश्यक अंग होना चाहिए न कि वैकल्पिक।

अपने घर के दरवाजे पर खड़ी इस भयानक त्रासदी के लिए, अपनी आज की सुविधाओं को देखते हुए बच्चों के हाथ में सिर्फ मोबाइल पकड़ा कर अपनी जिम्मेदारियां से इति श्री करने की सरलता के बजाय युवा अभिभावको को किसी वैकल्पिक व्यवस्था पर ध्यान देना समय की आवश्यकता है, जिनमें विकल्प के रूप में घर के बाहर आँगन में खेलना है, पार्क आदि में खेलते हुए बच्चों को खेलने के लिए प्रेरित करना जिससे शारीरिक स्वास्थ्य के साथ-साथ इम्यूनिटी भी बढ़ती है। , यदि बाहर खेलना संभव न हो तो बच्चों के साथ ताश खेलने, कॉमिक्स पढ़ाने, अंताक्षरी खेलना, छोटे-छोटे चिड़िया उड़, तोता उड़ जैसे खेल, किसी सुरक्षित पालतू जानवर को रख कर भी मोबाइल जैसी चीजों से बच्चों को दूर रखा जा सकता हैं। साथ ही ऑनलाइन समान मंगाने के बजाए बच्चो को दुकान पर भेज कर समान मंगवाने की आदत डालने से, बच्चे अनजान लोगों से बात करना सीखेंगे, खरीदी हुए चीज की कीमत समझेंगे, मोल भाव करना सीखेँगे और खराब और सही चीज का फर्क करना सीखेंगे, पैदल या साइकिल पर चलेंगे, इसलिए उनसे घर के छोटे छोटे काम करवाकर भी बिजी रखा जा सकता है।

दिन रात मेहनत करने के साथ बच्चों को सिर्फ सुविधा ही नही समय भीं देंने को भी प्राथमिकता रखेंगे ज्यादा अच्छा होगा। प्रतिस्पर्धा का कोई अंत नहीं है न ही संसाधनों को एकत्र करने की ही कोई सीमा है ये सच हमें ध्यान में रखकर अपनी प्रतीकताएं निर्धारित करनी होंगी।

अक्सर अभिभावक एक बात कहते है “हम जो कुछ भी कर रहे है इन बच्चों के लिए ही तो कर रहे है” एक बार सोचना चाहिए क्या सच में हम सिर्फ बच्चों के लिए कर रहे है ? या अपने दिखावटी स्वभिमान और स्टेटस की प्रति पूर्ति के लिए ? कितने बच्चे है जो अपने पिता या मां को ज्यादा कमाकर लाने को कहते है? जिस उम्र में हम इनकी इच्छाएं पूरी कर रहे होते है उन्हे पता भी नही होता वो जिद किस चीज के लिए कर रहे है, ये बात अभिभावकों को खुद समझना होगा की आज अपनी सुविधा के लिए बच्चों को मोबाइल देकर उन्हें मोबाइल की आदत डालना एवम उनके कीमती बचपन को निष्क्रिय करने से उनके और परिवार के लिए भविष्य में मानसिक विकास की कमी, कमजोर सेहत, जैसी समस्याओं का सामना करते हुए उनके आने वाले कल को खराब तो नही कर रहे!

©  श्री संजय आरजू “बड़ौतवी”

ईमेल –  [email protected]

 

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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डॉ ऋतुराज टोंग्या

प्रिय संजय जी, बहुत ही उत्तम समसामयिक समस्या और उसका विश्लेषण। लेकिन जो समाधान हम लोग सोच रहे हैं या सुझाव दे रहे हैं क्या वह हमारे खुद के परिवार में भी लागू हो सकते हैं या लागू कर सकते हैं? शायद नहीं। अगर आप अनुमति दें तो मैं अपनी बात और अपना सुझाव रखना चाहूंगा । आविष्कार और आराम मनुष्य की स्वाभाविक प्रवृत्ति है। जितने भी आविष्कार होते हैं वे सब मनुष्य को शारीरिक आराम अथवा सुख देने के लिए होते हैं । सुख की चाहत और खोज हमेशा पुरानी पीढ़ी को अचंभित भी करती है, आलोचक भी बनाती… Read more »