श्री सदानंद आंबेकर
(श्री सदानंद आंबेकर जी की हिन्दी एवं मराठी साहित्य लेखन में विशेष अभिरुचि है। गायत्री तीर्थ शांतिकुंज, हरिद्वार के निर्मल गंगा जन अभियान के अंतर्गत गंगा स्वच्छता जन-जागरण हेतु गंगा तट पर 2013 से निरंतर प्रवास।
हम श्री सदानंद आंबेकर जी के आभारी हैं जिन्होंने श्री गणेश विसर्जन से सम्बंधित हमारी परम्पराओं के साथ ही पर्यावरण पर अपनी पैनी दृष्टी डालते हुए इस विचारात्मक आलेख की रचना की है. )
☆ अथ श्री गणेश व्यथा ☆
भाद्रपद पूर्णिमा की सुबह, मंगलमूर्ति गणपतिजी कैलाश पर महाकाल शंकर जी के समक्ष बैठे हुये थे। चेहरा म्लान, शरीर क्लांत दिखाई दे रहा था। पास ही मूषकराज भी शरीर को झटक झटक कर सुखाने का उपक्रम करते दीख रहे थे।
भगवान आशुतोष ने माता पार्वती की ओर गहरी दृष्टि से देखा और गणपतिजी से पूछा- क्या बात है वत्स ? उल्लासित नहीं दिख रहे हो ?
वे आगे कुछ और पूछते इतने में मंगलमूर्ति व्यग्रता से बोल उठे- पिताजी मुझे यह हर वर्ष धरती पर कब तक जाना होगा?
भोलेनाथ- क्यों क्या हो गया? धरती पर तो तुम्हारा बड़ा स्वागत सत्कार होता है। फिर ?
गणनाथ – स्वागत और सत्कार ? पिताश्री अब आज धरती पर झांक कर देखिये, मेरी प्रतिमायें सिरविहीन, भुजाविहीन, भग्रावस्था में जलाशयों के किनारों पर पैरों तले पड़ी मिलेंगी।
भोलेनाथ – अच्छा … ऐसी अवमानना . . . मैं अभी डमरू बजा दूँ तो चहुँ ओर प्रलय आ जायेगी।
गणपति- रहने दीजिये पिताजी, धरती पर मेरी प्रतिमाओं की स्थापना के पास मानव निर्मित वृहदाकार ध्वनि विस्तारक यंत्रों का शोर आप दस दिनों तक अहर्निश सुनेंगे तो अपने डमरू और शंख रुद्र की ध्वनि को भूल जायेंगे। कुछ दिन तक तो आपको बधिरता लगेगी। उफ्फ, आप स्वागत-सत्कार की बात कह रहे थे, पहले दिन तो खूब धूमधाम से मेरा स्वागत होता है, भजन, आरती, नारे लगते हैं पर अगले दिन से मानव न मालूम कौन सी वाणी में गीत बजाता है, मुझे तो कुछ समझ नहीं आता है। सायंकाल में महिला पुरुष भक्त दर्शनों को आते हैं, तो मेरे स्थापना करने वाले भी एकदम संत प्रकृति के हो जाते हैं, पर रात्रि बढने पर वे ही आपकी सेना के भूत पिशाचों की श्रेणी में आकर मदिरापान करने लगते हैं और आपके महाप्रलय की शैली में अबूझ नृत्य करते हैं।
मुझे अर्पित किया गया प्रसाद भी न मालूम किस पदार्थ का होता है, बड़ा अप्रिय लगता है, और दान का धन भी न जाने कहाँ चला जाता है। धरती पर विद्युत ऊर्जा अतिशय अपव्यय मैं देखता हूँ। पिताश्री, यह यंत्रणा दस दिनों तक मैं सहता हूँ।
दसवें दिन फिर मुझे बड़े आदर के साथ विसर्जन हेतु जुलूस में ले जाया जाता है और किसी जलाशय, समुद्र के तट पर ले जाकर जयकारों के साथ अत्यंत गंदे जल में विसर्जित किया जाता है। जल में मैं देखता हूँ, नाना प्रकार के जलचर बड़े घबराये हुये से भागते दिखाई पड़ते हैं और वह जल भी, उफ्फ . . कितना गंदा होता है। पिताजी , उनके जयकारों में वे कहते हैं- अगले बरस तू जल्दी आ, आप ही बताईये मैं फिर क्या करने जाऊँ? कहाँ है भक्ति, श्रद्धा, समर्पण एवं आदर्श के प्रति प्रेम? मुझे बताईये पिताजी, क्या पुण्यात्मा लोकमान्य तिलक जी से स्वर्ग में मेरी भेंट हो पायेगी ?? मैं उनसे पूछना चाहता हूँ कि उन्होंने किन पवित्र उद्देश्यों को लेकर मोहल्ले में सार्वजनिक गणेश उत्सव की परम्परा आरम्भ की थी?
पिताश्री, मेरी पीड़ा आप स्वयं भी समझ सकते हैं, जब श्रावण में कांवड यात्रा रूपी हुडदंग में आपकी घोर अवमानना होती है। अगले माह मेरी स्नेहमयी माताजी को भी नवरात्रि में धरती पर जाना होता है, मैं तो कहूँगा कि वे भी इस विषय में एक बार सोच लें।
यह सब सुनकर भगवान पशुपतिनाथ को अतिशय क्रोध आ गया और वे आवेश में खड़े होकर गर्जना करने लगे- जाग, जाग, जाग, मानव जाग।
दूर कहीं से आवाज आ रही थी उठो, उठो, उठो और अचानक जोर का धक्का लगा तो मेरी नींद झटके से खुल गई और देखा, पिताजी मुझे झकझोर कर कह रहे थे- अरे निकम्मे, विसर्जन करके रात देर में आया, अब कब तक सोयेगा, चल उठ और काम पर लग जा।
© सदानंद आंबेकर
(इस विषय पर अभी पढने में आई एक छोटी सी मराठी कविता से प्रेरणा लेकर साभार लिखा गया)
बहुत बढ़िया कथा
Kudos for your contribution!
I had forwarded it to Shri A L Deshpande.
His reaction:
तिरछी नजरवाला को कानी नजरवाले का जय गणेश. बहुत बहुत धन्यवाद.आपके पदचिन्होंपर चलने की कोशिश सदानन्द ने LHO में की थी. लगता है जुबान (वक्ता )के साथ साथ कलम चलाने भी माहिर हो गए हैं.एक संयत अभिव्यक्ती वाला शख्स सदानंद की छलांग देखकर सुकून अनुभव करता हूं. मेरी शुभकामनाएं आपके Facebook के माध्यम से उस तक पहुंचानेका कष्ट करें.
सुंदर रचना.
मैंने श्री अ ल देशपांडे को भेजी थी. उनकी प्रतिकिया:
तिरछी नजरवाला को कानी नजरवाले का जय गणेश. बहुत बहुत धन्यवाद.आपके पदचिन्होंपर चलने की कोशिश सदानन्द ने LHO में की थी. लगता है जुबान (वक्ता )के साथ साथ कलम चलाने भी माहिर हो गए हैं.एक संयत अभिव्यक्ती वाला शख्स सदानंद की छलांग देखकर सुकून अनुभव करता हूं. मेरी शुभकामनाएं आपके Facebook के माध्यम से उस तक पहुंचानेका कष्ट करें.
एक कटुसत्य को उजागर करती रचना। काश! हम अब तक जाग चुके होते। आस्था, भक्ति एवं वर्तमान की पद्धति के फर्क को समझना होगा। हम स्वयं को हानि पहुँचा कर भी वास्तविक पूजा और भक्ति नहीं समझ पा रहे हैं। ईश्वर भाव के भूखे होते हैं भव्यता और दिखावे के नहीं। देव अथवा देवियों की यदि प्रतीकात्मक स्थापना की जाती है, फिर लघु और विशाल कहाँ से आ गया। हमें त्यौहारों को आस्था और विश्वास के साथ मनाना चाहिए और यह ध्यान भी रखना होगा कि हमसे कहीं ईश्वर का कभी भी कहीं भी अपमान तो नहीं हो रहा है।… Read more »