सौ. उज्ज्वला केलकर

(ई-अभिव्यक्ति के “दस्तावेज़” श्रृंखला के माध्यम से पुरानी अमूल्य और ऐतिहासिक यादें सहेजने का प्रयास है। श्री जगत सिंह बिष्ट जी (Master Teacher: Happiness & Well-Being, Laughter Yoga Master Trainer, Author, Blogger, Educator, and Speaker) के शब्दों में  “वर्तमान तो किसी न किसी रूप में इंटरनेट पर दर्ज हो रहा है। लेकिन कुछ पहले की बातें, माता पिता, दादा दादी, नाना नानी, उनके जीवनकाल से जुड़ी बातें धीमे धीमे लुप्त और विस्मृत होती जा रही हैं। इनका दस्तावेज़ समय रहते तैयार करने का दायित्व हमारा है। हमारी पीढ़ी यह कर सकती है। फिर किसी को कुछ पता नहीं होगा। सब कुछ भूल जाएंगे।”

दस्तावेज़ में ऐसी ऐतिहासिक दास्तानों को स्थान देने में आप सभी का सहयोग अपेक्षित है। इस शृंखला की अगली कड़ी में प्रस्तुत है सौ. उज्ज्वला केलकर जी का डॉ हंसा दीप जी के जीवन से जुड़े संस्मरणों पर आधारित एक आत्मीय दस्तावेज़ कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय । यह दस्तावेज़ तीन भागों में दे रहे हैं।) 

डॉ. हंसा दीप

☆  दस्तावेज़ # 14 – कारवां चलता रहा… – हंसा परिचय – 1 – मराठी लेखिका – सौ. उज्ज्वला केलकर ☆ हिन्दी भावानुवाद – श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’ ☆

पर्व एक 

हंसा मेरी सहेली । बिल्कुल खास । सगी । अब बोलते-बोलते वह सहेली से ‘दीदी’  और ‘दीदी’ से ‘दी’ पर कब पहुंच गयी,पता ही नहीं चला। हां, हम इतनी आत्मीय जरूर हैं पर  अबतक एक-दूसरे से  मिली कभी नहीं। मिलें भी कैसे ? वह है, दूरस्थ कैनडा के टोरंटो में और मैं हूं भारत, महाराष्ट्र के छोटे से सांगली शहर में। हम फोटो से एक दूसरे को पहचानती हैं और मोबाइल के वाट्स-अप पर इत्मीनान से गप्पेभी लड़ाती हैं।

हंसा का और मेरा आपस में परिचय संयोग से ही हुआ। हिंदी त्रैमासिक ‘कथाबिंब’  के माध्यम से। हुआ यूं कि ‘कथाबिंब’ को मैंने अपनी ‘हासिना’शीर्षक  कहानी का अनुवाद भेजा था। यह पत्रिका कहानी -प्रधान है। मेरी कहानी उसमें प्रकाशित हो गयी। वे कहानी के लिए मानदेय नहीं देते। वे ऐसा करते हैं कि कथाबिंबके साल में चार अंक निकलते हैं। वे उनमें प्रकाशित समस्त कहानियों की सूची नए साल के जनवरी अंक में प्रकाशित करते हैं और पाठकों से ही उनका मूल्यांकन करने को कहते हैं। पाठकों द्वारा दिए गए अंकों को जोड़कर उसके औसत के आधार पर पुरस्कार प्रदान किए जाते हैं। क्रमानुसार प्रथम चार को और चार प्रोत्साहन पर। मुझे उस समय प्रोत्साहन पुरस्कार मिला था। उसके बाद एक दिन मुझे संपादक का पत्र मिला। -आपके पुरस्कार की राशि आपको भेज दी  जाएगी। तथापि एक अनुरोध है। आप एक साल के लिए कथाबिंबके सदस्य बनिए । आपकी सम्मति मिलने पर वार्षिक-शुल्क काटकर शेष राशि आपको चेक द्वारा भेज दी  जाएगी। मेरी कहानी जिसमें प्रकाशित हुई थी वह अंक मुझे स्तरीय लगा था। इस कारण मैंने अपनी सम्मति दे दी। उस माह से मुझे कथाबिंबके अंक आने लगे। (साल समाप्त होने के बावजूद भी उनका आना जारी है।) उन अंकों से मुझे अनुवाद के लिए उत्कृष्ट कहानियां प्राप्त हुईं ।

श्री भगवान वैद्य ‘प्रखर’

मैंने कथाबिंबकी सदस्यता ले ली। उसके बाद प्रथम अंक में ही प्रकाशित एक कहानी ने मेरा ध्यान आकर्षित कर लिया। कहानी का नाम ‘रुतबा।’ रुतबा यानी रुबाब। लेखिका थी, हंसा दीप। यह कहानी है ईशा, मनू अर्थात मनन और मनूका पड़ोसी मित्र जैनू, इन की । ईशा छह साल की। मनू उसका छोटा भाई और जैनू उससे साल भर छोटा । कहानी इन बच्चों के भावविश्व से संबंधित है। उनकी आपस की छीन-झपट, आशा -आकांक्षा, एक -दूसरे को मात देने की नैसर्गिक प्रवृत्ति, बड़ों की बातचीत, व्यवहार का उनके द्वारा किया जा रहा निरीक्षण और उसे अपने ढंग से अपनाने की उनकी स्वाभाविक प्रवृत्ति,किसी चीज की चाहत होनेपर उसके लिए की जानेवाली बारगेनिंग। ये सारी बातें कहानी में इस प्रकार चित्रित की गयी हैं कि लगता है हम कुछ पढ़ नहीं रहे अपितु सबकुछ साक्षात देख रहे हैं। कहानी का अंत होता है, कहानी का चरमोत्कर्ष । वह बहुत आकर्षक है। ईशा मनू पर रुबाब गालिब करती है। मनू, जैनूपर। जैनू सबमें छोटा । वह किस पर रुबाब गालिब करें ? और अनायास उसका ध्यान झूले में सो रही अपनी दो माह की बहन की ओर जाता है।

इस कहानी का मराठी में अनुवाद करने का मन हुआ। तब मैंने लेखिका से अर्थात हंसा दीप से औपचारिक अनुमति मांगी। इंटरनेट की सुविधा और मूल लेखिका की तत्परता एवं विनयशीलता के कारण वह मुझे तत्काल प्राप्त हो गयी। मैंने कहानी का रुबाब शीर्षक से अनुवाद किया। वह ‘पर्ण’ 2019 के दीपावली विशेषांक में प्रकाशित हो गयी।

उसके बाद हंसा की और दो-तीन कहानियां पढ़ने को मिलीं। अनुमति लेकर उनका भी मैंने अनुवाद किया। अनुमति के लिए बात करते समय फोनपर अन्य लेखकों का पसंद आया साहित्य, लेखन संबंधी मेरी अपनी धारणाएं, साहित्येतर विषय-इन पर चर्चा होती रही। शनै-शनै औपचारिकता मित्रता में बदलती गयी। वह अधिक स्नेहसिक्त, मजबूत होने लगी। औपचारिक ‘आप’ से तुम और ‘तुम’ से तू पर कब आ गए, पता ही  नहीं चला। यह मित्रता अंतरंग सहेली के रूप में और अधिक प्रगाढ़ होती गयी।

और एक दिन उसने मुझे अपना ‘प्रवास में आसपास’ कहानी-संग्रह भेजा। वह अभी पढ़कर पूरा किया ही था कि ‘शत-प्रतिशत’ यह दूसरा कहानी-संग्रह मिला। साथमें अनुमति-पत्र-

माननीय उज्ज्वला केलकर जी,

सादर अभिवादन।

विषय: मेरी कहानियों के मराठी भाषा में अनुवाद की अनुमति।

मैं सहर्ष अनुमति देती हूं कि आप मेरी किसी भी कहानी का अनुवाद कर सकती हैं। साथ ही, अनुवाद की गई कहानी को प्रकाशित करने के लिए आप किसी भी पत्रिका में भेज सकती हैं।

आपका सहयोग एवं स्नेह बना रहे।

असीम शुभकामनाएं ।

हंसा दीप,

टोरंटो, कैनेडा

इससे लाभ यह हुआ कि मुझे पसंद आई कहानियों का अनुवाद करने तथा उन्हें प्रकाशित करवाने के लिए मुझे समय खर्च नहीं करना पड़ा, ना ही हर बार कहानी के अनुवाद की अनुमति के लिए प्रतीक्षारत रहना पड़ा। मुझे दोनों संग्रहों की कहानियां पसंद आयीं। उनकी कथन शैली भा गयी। अपने अनुभूत प्रसंग, घटनाएं, उनसे संबंधित व्यक्ति, वे इतनी सहजता से पाठकों के समक्ष प्रस्तुत करती हैं कि लगता है, हम खुद भी वे प्रसंग, वे घटनाएं अनुभव कर रहे हो। उन व्यक्तियों से प्रत्यक्ष मिल रहे हो। उनकी बातचीत प्रत्यक्ष सुन रहे हो। हंसा की पसंद आयी कहानियों का अनुवाद करते -करते इतनी संख्या हुई  कि दो संग्रह हो जाते। ‘आणिशेवटी तात्पर्य’ तथा ‘मन गाभार्यातील शिल्पे’ शीर्षक से वे प्रकाशित भी हो गये।

हंसा का जन्म मध्य प्रदेश में, झाबुआ जिले के मेघनगर का। यह क्षेत्र आदिवासी  बहुल था। एक ओर शोषण, भूख और गरीबी से त्रस्त भील थे तो दूसरी ओर परंपराओं से जूझते, विवशताओं से लड़ते हुए जीने वाले मध्यवर्गीय परिवार थे। हंसा कहती है, ‘मेरे निवास-स्थान बदलते रहे। एक शहर से दूसरे शहर में, एक देश से दूसरे देश में, मैं अपने घर बसाती रही। बदलते हुए देश का बदलता परिवेश कहानियों में विविधता लाता रहा और रचनाओं को आकार देता रहा। पर मालवा की माटी और जन्मस्थली मेघनगर का पानी संवेदनशील कलम को सींचता रहा।

‘कथाबिंब’ में एक कॉलम होता है, ‘आमने-सामने।’ यह है, लेखक और पाठक के बीच का संवाद। अपने सामने श्रोता उपस्थित हैं, यह मानकर संवाद सम्पन्न करना। वे कौनसे प्रश्न पूछेंगें, क्या जानना चाहेंगे-यह सोचकर अपनी जानकारी, रचना-प्रक्रिया, अपनी साहित्यिक उपलब्धियां बयान करना। हंसा की ‘रुतबा’ प्रकाशित हुई उसी अंक में ‘आमने- सामने’ कॉलम के माध्यम से उसने पाठकों के साथ संवाद स्थापित किया था। आमने -सामने में प्रस्तुत हंसा के विचार, एक व्यक्ति के रूप में उसे जानने में बड़े सहायक सिद्ध हुए।

हंसा कहती है, ‘इस एक ही जन्म में मैंने तीन युग अनुभव किए।’ अर्थात समय और परिस्थिति के कारण । उसका जन्म, बालपन, शिक्षा हुई मेघनगर जैसे पिछड़े कसबे में । गांव में बिजली नहीं थी। ढिबरी और कंदील की रोशनी में पढ़ाई हुई। पिता की किराणा दुकान थी। पिताजी के निधन के बाद भाई ने दुकान संभाली । दुकान में आनेवाले भीलों को अनाज तौलकर देते और वहां अनाज खाने के लिए प्रस्तुत बकरियों से अनाज की रखवाली करते-करते उसकी पढ़ाई होती। पर उससे पढ़ाई में बाधा पहुंचती है, ऐसा उसे कभी नहीं लगा।

स्कूल में वह हमेशा ही अव्वल दर्जे में पास होती। उसके अलावा विविध अंतर-शालेय, तहसील, जिला स्तरीय व्यक्तृत्व, निबंध, नाट्य आदि स्पर्धाओं में वह स्कूल का प्रतिनिधित्व किया करती। गांव में पुस्तकालय नहीं था पर शिक्षक उसे अपने पास की पुस्तकें पढ़ने के लिए दिया करते । शहर में कोई कार्यक्रम हो तो वे उसे साथ लेकर जाते। उसकी बुद्धिमत्ता,प्रतिभा,कौशल को अनुभव का साथ मिलता रहा। गांव तो एकदम देहात था। उस कारण लड़कियों पर अनेक बंधन लादे जाते। इसके बावजूद हंसा कहती है, ‘मुझपर मेरे भाई ने तथा मां ने कोई बंधन नहीं लादे। मैं कहीं भी जाने के लिए, कुछ भी करने के लिए बिल्कुल आजाद थी। भाई ने तो अपनी पुत्री की तरह प्यार किया मुझे। मेरी हर उपलब्धि  पर वह प्रसन्न होता। वह समय कष्टप्रद जरूर था पर बड़ा मधुर था।  मौज मस्ती का समय था वह । न कोई शिकायत न किसी प्रकार की चिंता।

क्रमशः… 

डॉ हंसा दीप

संपर्क –  22 Farrell Avenue, North York, Toronto, ON – M2R1C8 – Canada

दूरभाष – 001 + 647 213 1817  ईमेल  – [email protected]

मूल लेखिका – सौ. उज्ज्वला केळकर

संपर्क – निलगिरी, सी-५ , बिल्डिंग नं २९, ०-३  सेक्टर – ५, सी. बी. डी. –  नवी मुंबई , पिन – ४००६१४ महाराष्ट्र

मो.  836 925 2454, email-id – [email protected] 

भावानुवाद  – श्री भगवान वैद्य ‘ प्रखर ‘

संपर्क – 30 गुरुछाया कालोनी, साईनगर, अमरावती 444607

मो. 9422856767, 8971063051

≈ संपादक – श्री हेमन्त बावनकर/सम्पादक (हिन्दी) – श्री विवेक रंजन श्रीवास्तव ‘विनम्र’ ≈

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